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सफलता के लिए बच्चों को बना दिया गया अंक-केंद्रित

वर्तमान दौर में इम्तिहान प्रणाली को एक ऐसी प्रतियोगिता में बदल दिया गया है जिसका एकमात्र लक्ष्य केवल सफलता हासिल करना है  उस सफलता के लिए बच्चों को अंक-केंद्रित बना दिया गया है. परिणामस्वरूप ‘मैट्रिक सोसाइटी’ (आंकड़ों का समाज) की अवधारणा उभर कर आई है. मैट्रिक सोसाइटी वह सामाजिक व्यवस्था है जिसमें सामाजिक ईकाइयों का ज़िंदगी एवं समाज का समूचा तंत्र मापन की व्यवस्थाओं का भाग बन गया है. विभिन्न समूहों में ‘ग्रेड’ के आधार पर तुलना एक सामान्य घटना हो गई है.

 उदाहरण के लिए, विद्यार्थियों की उपलब्धियों के मूल्यांकन, विश्वविद्यालयों की स्टार रेटिंग इत्यादि. यह बोला जा सकता है कि आधुनिक दुनिया की काम प्रणाली का एक बड़ा भाग आंकड़ों (अंकों) पर केंद्रित है.ऐसा लगता है जैसे मनुष्य की सभी क्रियाओं को डिजिटल क्रांति ने अपने अधीनस्थ कर लिया है. आंकड़ों के इस दुनिया में न तो कोई भावना रह गई है, न कोई सामूहिकता, न एक-दूसरे की सहायता करने की भावना, क्योंकि प्रतियोगिता में सहायता करने की भावना खत्म हो जाती है  ईष्या प्रारम्भ हो जाती है. इम्तिहान प्रणाली में ज्यादा अंक लाने की प्रतियोगिता विद्यार्थियों में मित्रता की भावना को खत्म कर बदले की भावना उत्पन्न कर देती है. इस कारण वे अन्य लहपाठियों के साथ अपना ज्ञान साझा नहीं करते, क्योंकि ऐसा करने से उन्हें दूसरे के ज्यादा अंक आने का डर सताता है. यह प्रवृत्ति शैक्षणिक चेतना को अनेक अवसरों पर न केवल प्रतिबंधित करती है, बल्कि उसे समाप्त भी कर देती है. साथ ही, इम्तिहान में अधिक अंक लाने की प्रवृत्ति ने कोचिंग केंद्रों को भी बढ़ावा दिया है. पहले स्कूल-कॉलेज, फिर कोचिंग  फिर अपनी पढ़ाई (सेल्फ स्टडी). विद्यार्थी सारा दिन इतना व्यस्त हो गया है कि एजुकेशन जो उसे समाज से बांधने का कार्य करती थी, उसी आज उसे समाज से काट दिया है.

बाजार के असर से प्रतियोगिता के इस दौर में सबको न केवल सौ फीसद अंक चाहिए बल्कि यह भी कि मेरे ही सर्वाधिक अंक आने चाहिए किसी  के नहीं. अंकों के आधार पर बच्चों की योग्यता, क्षमता  कौशल को आंका जाने लगा है. इसका परिणाम यह हो रहा है कि कला, साहित्य, संस्कृति, संगीत में रंगने वाला विद्यार्थी इन सबसे दूर हो जाएगा  उसका ज़िंदगीचीज अथवा उत्पाद (कमोडिटी) में बदल जाएगा  उसके ज़िंदगी का एकमात्र लक्ष्य होगा मार्केट में जॉब हासिल करना. इसमें कोई दो राय नहीं कि पूरी की पूरी पीढ़ी तबाही के गर्त में जा रही है. इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है कि हमारी एजुकेशन के उद्देश्य क्या हैं  क्या होने चाहिए, इस पर व्यापक बहस होनी चाहिए. आज अंकों की होड़ में बच्चों की सृजनशीलता समाप्तहो रही है. बच्चा सिर्फ पाठ्यपुस्तक की सामग्री तक सीमित कर दिया गया है. वह वही उत्तर देता है जो शिक्षक चाहते हैं. बच्चा क्या बनना चाहता है, इस पर परिवार ध्यान नहीं दे रहे हैं.वे अपने बच्चों को सिर्फ ऐसे पेशे में डालना चाहते हैं जिससे अधिक से अधिक आय हो. आज जिस तरह से रोजगार के मौका  संभावनाएं कम होती जा रही हैं, ऐसे में इम्तिहान प्रणाली बड़ा खतरा बनकर उभरेगी.

हाल में प्राथमिक एजुकेशन पर जारी एक रिपोर्ट में कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. पता चला कि सत्तावन फीसद बच्चे साधारण भाग नहीं कर पाते, चालीस फीसद बच्चे अंग्रेजी के वाक्य नहीं पढ़ पाते, पच्चीस फीसद बच्चे बिना रुके अपनी भाषा नहीं पढ़ सकते, छिहत्तर फीसद विद्यार्थी पैसों की गिनती नहीं कर सकते, अट्ठावन फीसद अपने प्रदेश का नक्शा नहीं जानते, चौदह फीसद को देश के नक्शे की जानकारी नहीं है  . ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर शिक्षक स्कूलों में कर क्या रहे हैं? अगर विद्यार्थी पढ़ नहीं पा रहे तो भाषा कैसे सीख सकते हैं? गणित नहीं कर सकते तो उनमें तार्किक क्षमता कैसे विकसित होगी? अगर प्राथमिक  माध्यमिक एजुकेशन का यह हाल है तो फिर उच्च एजुकेशन के अंदर जो घटित हो रहा है उसे अप्रत्याशित नहीं बोला जा सकता. हिंदी भाषी क्षेत्र में जो बच्चे आ रहे हैं न उनके पास भाषा है न तर्कसंगतता है. ‘चूँकि  इसलिए’ के बीच का संबंध गणित सिखाती है जब इन्हें गणित ही नहीं आता तो तर्कसंगतता कैसे सीखेंगे? इसलिए संभवत: बच्चे धार्मिक अथवा सांप्रदायिक ज्यादा बनते जा रहे हैं. अधिकतर शिक्षकों में पढ़ने की आदत खत्महोती जा रही है. दूसरी ओर ग्रामीण या कस्बाई इलाकों में अधिकतर विद्यार्थियों के अभिभावक भी पढ़े-लिखे नहीं हैं या केवल साक्षर हैं. ऐसे में वे बच्चों को नहीं पढ़ा सकते. इसलिए शिक्षक की किरदार  भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है. सवाल उठता है कि क्या शिक्षक इस लायक हैं? शिक्षक की गुणवत्ता को परखने का कोई आधार है? शिक्षकों को अपने विषय का कितना ज्ञान है? अकादमिक परिषदों या पेशेवर निकायों को इस प्रकार के मूल्यांकन करने चाहिए, तभी गुणवत्तापूर्ण एजुकेशन मूर्त रूप ले पायेगी.

शिक्षकों के साथ कई बार अनौपचारिक वार्ता के दौरान यह सामने आया कि वे शिक्षक इसलिए बने क्योंकि उनका किसी  प्रतियोगी इम्तिहान में चयन नहीं हुआ. यानी शिक्षक का पेशा उन्होंने अपनी ख़्वाहिश से नहीं, बल्कि विवशता में चुना. यह तर्क न केवल एजुकेशन विरोधी है, बल्कि विकास विरोधी भी है. इस प्रकार का तर्क तो यथास्थितिवादी भी नहीं देते.ऐसे शिक्षक अपने पेशे के साथ या विद्यार्थियों के साथ कितना न्याय कर पाएंगे, यह चिंतन का विषय है. वे अपने वेतन  प्रमोशन के अतिरिक्त इस पेशे से कोई अपेक्षा नहीं रखते.

सवाल यह उठता है कि इम्तिहान के विस्तार लेते मार्केट में दोषी कौन है? विद्यार्थी या शिक्षक, या फिर दोनों? शिक्षकों की जो असली किरदार है उसको शिक्षकों ने खत्म कर दिया है.उनका एकमात्र लक्ष्य अब यही रह गया है कि केवल पाठ्यक्रम पूरा किया जाए  उसमें भी केवल उतना ही पढ़ाया जाए जो इम्तिहान की दृष्टि से उपयोगी है? पाठ्यक्रम भी अब उपयोगितावाद से जुड़ गया है. शिक्षक एक उपयोगितावादी सेवा प्रदाता में  विद्यार्थी उपयोगितावादी उपभोक्ता में तब्दील हो चुका है. अब विद्यार्थी को केवल वही सामग्री चाहिए जिससे वह अधिकाधिक अंक प्राप्त कर सके. इम्तिहान में सफलता का आश्वासन देने वाली पुस्तकें भी मार्केट में उपलब्ध हैं. यह एक किस्म का मार्केट है जहां शिक्षक इन पाठ्यपुस्तकों के प्रकाशकों के लिए पूंजी संचयन की धुरी हैं. आज के दौर में ऐसे विशेषज्ञ शिक्षकों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है. आज का शिक्षक समाज से कट गया है. वह भूल गया है कि वह एक विद्यार्थी भी है. जिन पुस्तकों को वह पढ़ता है उनसे, जिन विद्यार्थियों को वह पढ़ाता है उनसे  जब वह समाज के विभिन्न हिस्सों में सक्रिय किरदार निभाता है उनसे सीखता है. अर्थात शिक्षक पुस्तकों, विद्यार्थियों  समाज इन तीन स्रोतों से सीखता है तब जाकर वह एक मजबूत देश  समाज के निर्माता की किरदार निभाता है. शिक्षक अपने ज्ञान  सूचना का इस्तेमाल करते हुए ही विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का निर्माण करता है. शिक्षक की यही किरदार आज गुम हो गई है. आज की पीढ़ी विचारहीन  नकलची पीढ़ी है. उसके पास जुमले हैं. लेकिन विचारधारात्मक चिंतन नहीं है. चिंतन-प्रधान भाषा का अभाव है. किसी ने क्या खूब बोला है- किताब लेकर रोज मैं ढूंढता हूं जवाब, जिंदगी है कि रोज सिलेबस से बहार का ही पूछती है’. समय रहते एजुकेशन व्यवस्था पर चिंतन-मनन की आवश्यकता है.

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