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लावारिस मिलती नवजात बच्चियाँ: झाड़ियों से जीवन तक

      डॉ सत्यवान सौरभ

हरियाणा के हिसार जिले के अग्रोहा में सतीश डूडी ने एक नवजात बच्ची (Adopting Newborn Girl) को गोद लेकर ममता और इंसानियत की मिसाल पेश की। यह बच्ची जन्म के कुछ घंटों बाद झाड़ियों में लावारिस पाई गई थी। सतीश का यह साहसिक कदम समाज (Society) के उस निष्ठुर चेहरे (Cruel Face) को बेनकाब करता है जो बेटियों को बोझ समझता है। यह कहानी बताती है कि ममता का रिश्ता (Relationship Of Love) खून से नहीं, अपनाने से होता है। यह कदम ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की असली आत्मा को दर्शाता है और समाज को एक नई सोच की प्रेरणा देता है।

हरियाणा के हिसार जिले के अग्रोहा में हाल ही में एक दिल को छू लेने वाली घटना सामने आई है। गांव कुलेरी निवासी सतीश डूडी ने उस नवजात बच्ची को गोद लेकर इंसानियत और ममता की एक अनोखी मिसाल पेश की, जिसे जन्म के कुछ ही घंटों बाद उसके माता-पिता ने झाड़ियों में छोड़ दिया था। यह घटना न केवल एक मासूम जीवन को नया अवसर देने की कहानी है, बल्कि समाज की उस कठोर सच्चाई का भी पर्दाफाश करती है, जो आज भी बेटियों को बोझ समझती है।

लावारिस मिलती नवजात बच्चियाँ: एक कठोर सच्चाई

जब किसी सड़क किनारे, कूड़े के ढेर में, या किसी अस्पताल के बाहर एक नवजात बच्ची लावारिस पाई जाती है, तो यह महज एक खबर नहीं होती, बल्कि हमारे समाज के उस निष्ठुर चेहरे का आईना होती है, जिसे हम अक्सर अनदेखा करना चाहते हैं। यह केवल एक परित्यक्त जीवन नहीं, बल्कि उस मानसिकता का प्रतीक है, जो एक लड़की के जन्म को अभिशाप समझती है।

फिर आएगा गौरी : इतिहास के पन्नों से वर्तमान तक का सबक

इस बच्ची को न जाने किस मजबूरी में त्याग दिया गया होगा, पर यह कहानी एक गहरी सामाजिक समस्या की ओर इशारा करती है। यह बच्ची, जिसे अपने जीवन की पहली सांसों में ही दर्द और बेरुखी मिली, शायद खुद नहीं जानती थी कि उसका जीवन किसी मसीहा की तलाश में था। लेकिन सतीश डूडी ने उसे अपनाकर दिखा दिया कि ममता का रिश्ता खून से नहीं, अपनाने से होता है।

सतीश डूडी का साहसिक कदम

अग्रोहा की झाड़ियों में मिली इस नन्ही जान के जीवन में सतीश डूडी एक मसीहा बनकर आए। उन्होंने उस बच्ची को अपनाकर यह साबित कर दिया कि इंसानियत केवल खून के रिश्तों तक सीमित नहीं होती। यह एक ऐसा कदम है, जो न केवल उस बच्ची का भविष्य संवारने वाला है, बल्कि समाज को एक नया संदेश भी देता है – कि हर बच्चा महत्वपूर्ण है, हर जीवन मूल्यवान है।

सतीश का यह कदम समाज के लिए एक प्रेरणास्रोत भी है। जहां एक ओर बच्चियों को लेकर नकारात्मक मानसिकता हावी है, वहीं सतीश का यह कदम समाज को एक नया संदेश देता है – कि हर बच्चा महत्वपूर्ण है, हर जीवन मूल्यवान है। यह कदम बताता है कि ममता और अपनापन किसी खून के रिश्ते का मोहताज नहीं होता।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ: असली अर्थ

सतीश का यह कदम ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की वास्तविक आत्मा को दर्शाता है। जब हम बेटी को अपनाने का साहस दिखाते हैं, तब ही हम समाज में वास्तविक बदलाव की नींव रखते हैं। यह घटना हमें बताती है कि सिर्फ नारों से नहीं, बल्कि कर्मों से बदलाव आता है। हमें केवल बेटियों के जन्म का स्वागत नहीं, बल्कि उनके पूरे जीवन का सम्मान करना होगा।

समाज की चुप्पी पर सवाल

यह घटना हमें समाज की उस चुप्पी पर भी सोचने पर मजबूर करती है, जहां नवजात बच्चियों को आज भी बोझ समझा जाता है। हम अपने बेटों को गर्व से पालते हैं, लेकिन बेटियों को अपनाने से डरते हैं। यह कहानी हमें बताती है कि असली साहस सिर्फ युद्ध में ही नहीं, बल्कि नन्हीं जानों को सहारा देने में भी होता है।

इस बच्ची का लावारिस मिलना समाज की उस गहरी मानसिकता का प्रतीक है, जो आज भी लड़कियों को आर्थिक बोझ, परिवार की प्रतिष्ठा पर खतरा और वंशवृद्धि में बाधा के रूप में देखती है। ‘बेटी पराया धन’ जैसी कहावतें हमारे सामूहिक अवचेतन में इतनी गहराई तक घुल गई हैं कि उनके प्रभाव से उबर पाना आसान नहीं।

समाधान की राह

समाज को यह समझना होगा कि बेटियाँ बोझ नहीं, बल्कि शक्ति और संवेदना की प्रतीक हैं। इसके लिए:

सामाजिक जागरूकता: बेटियों को समान अधिकार और सम्मान देने के लिए निरंतर जागरूकता अभियान चलाने होंगे।

शिक्षा का प्रसार: लड़कियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देना होगा ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें।

आर्थिक स्वतंत्रता: महिलाओं की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए स्वरोजगार, प्रशिक्षण और उद्यमशीलता को बढ़ावा देना होगा।

कठोर कानून: लिंग भेदभाव और नवजात परित्याग के मामलों में सख्त कानूनी कार्रवाई सुनिश्चित करनी होगी।

अंतिम विचार

नवजात बच्चियों का परित्याग केवल एक व्यक्तिगत अपराध नहीं, बल्कि पूरे समाज की सामूहिक विफलता का प्रतीक है। जब तक हम अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे, तब तक न तो कानून सफल होंगे और न ही सरकारी योजनाएँ। हमें यह समझना होगा कि बेटी का जन्म केवल एक जीवन नहीं, बल्कि एक पूरे परिवार, समाज और देश के उज्ज्वल भविष्य की नींव है। सतीश डूडी की यह कहानी एक प्रेरणा है, एक सबक है, और एक चुनौती भी, कि हम अपने आसपास के अनचाहे जीवन को अपनाकर दुनिया को एक बेहतर जगह बना सकते हैं।

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