ईद-उल-अजहा यानी बकरीद जिसे बड़ी ईद भी कहा जाता है, इस पर्व को मुस्लिम समुदाय के लोग बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। सारे पिछले गिले सिकवे दूर कर अपने रसूल को याद कर गले मिलकर एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं। इस साल ईद-उल जुहा यानी बकरीद का त्योहार भारत में 12 अगस्त ( सोमवार) के दिन मनाया जायेगा, जबकि बांग्लादेश, पाकिस्तान और सऊदी समेत तमाम अरब देशों में 11 और 12 अगस्त को बकरीद मनाई जाएगी। मुस्लिम समुदाय में यह पर्व हजरत इब्राहिम की कुर्बानी की याद के तौर पर मनाया जाता है। ईद-उल-फितर के बाद इस्लाम धर्म का यह दूसरा प्रमुख त्यौहार है।
मीठी ईद के करीब दो महीने के अंतराल के बाद बकरीद आती है। इस्लाम धर्म के मुताबिक इस त्यौहार में जानवरों की कुर्बानी दी जाती है। खासकर इस दिन बकरे की कुर्बानी देने की परंपरा रही है। ईद-उल-जुहा का चांद जिस रोज नजर आता है उसके 10वें दिन बकरीद मनाई जाती है। इस त्यौहार का मुख्य उद्देश्य लोगों में जनसेवा और अल्लाह की सेवा का भाव जगाना है। कैसे मनाई जाती है बकरीद: इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार यह त्योहार हर साल जिलहिज्ज के महीने में आता है।
ईद-उल-जुहा के दिन मुसलमान किसी जानवर जैसे बकरा, भेड़, ऊंट आदि की कुर्बानी देते हैं। इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोग साफ-पाक होकर नए कपड़े पहनकर नमाज पढ़ते हैं। आदमी मस्जिद व ईदगाह में नमाज अदा करते हैं तो औरतें घरों में ही नमाज पढ़ती हैं नमाज़ अदा करने के बाद ही जानवरों की कुर्बानी की प्रक्रिया शुरू की जाती है। कुर्बानी में अल्लाह का नाम लेकर बकरों की बलि दी जाती है। कुर्बानी और गोश्त को हलाल कहा जाता है। बकरे के गोश्त को तीन भागों में बांटकर एक हिस्सा खुद के लिए, एक दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए और तीसरा हिस्सा गरीबों के लिए रखा जाता है।
ऐसे शुरु हुई कुर्बानी देने की परंपरा: एक प्रचलित कहानी के अनुसार, बकरीद का त्योहार पैगंबर हजरत इब्राहिम द्वारा शुरु हुआ था। जिन्हें अल्लाह का पैगंबर माना जाता है। इब्राहिम जिंदगी भर दुनिया की भलाई के कार्यों में लगे रहे, लेकिन उनका एक ही दुख था कि उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति की कामना के लिए उन्होंने खुदा की इबादत की जिससे उन्हें चांद-सा बेटा इस्माइल मिला। एक रोज उन्हें सपने में अल्लाह दिखे, जिन्होंने इब्राहिम से अपनी प्रिय चीज की कुर्बानी देनी को कहा।
अल्लाह के आदेश को मानते हुए उन्होंने अपने सभी प्रिय जानवर कुर्बान कर दिए। लेकिन फिर से अल्लाह सपने में दिखे और प्रिय वस्तु की मांग की। तब पैगंबर हजरत इब्राहिम ने अपने बेटे को कुर्बान करने का सोचा। अपने प्रिय बेटे की कुर्बानी उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर दे दी और जब उनकी आखें खुली तो उन्होंने पाया कि उनका बेटा तो जीवित है और खेल रहा है। बल्कि उसकी जगह वहां एक बकरे की कुर्बानी खुद ही हो गई थी। माना जाता है कि तभी से बकरीद के मौके पर बकरे और मेमनों की बलि देने का प्रचलन शुरू हुआ।