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यहां गोबर के बदले दिया जा रहा गैस सिलेंडर, जानिए क्यों किया जा रहा ऐसा और क्या है मकसद

तुम मुझे गोबर दो, हम तुम्हें गैस सिलेंडर देंगे। यह पढ़कर आप भी सोच में पड़ गए होंगे, क्योंकि गोबर का खाद के रूप में इस्तेमाल और जलावन के लिए उपले बनाने के बारे में तो हम सभी जानते हैं, लेकिन गोबर के बदले गैस सिसेंडर मिलना एक नई बात है। जी हां, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय समस्तीपुर पूसा ने एक अनूठा प्रयोग किया है। इसमें गोबर के बदले गैस सिलेंडर देने का प्रावधान है। विश्वविद्यालय ने इस योजना की शुरुआत मधुबनी जिले के सुखैत गांव से की है।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक यूनिवर्सिटी के कुलपति डॉक्टर रमेश चंद्र श्रीवास्तव इस योजना को लेकर काफी उत्साहित हैं। उनका कहना है कि इस योजना के तहत सुखैत गांव को हमने पायलट प्रोजेक्ट के रूप में लिया है। लोगों की उत्सुकता और सहयोग को देखते हुए इसे सभी गांव में लागू किया जा सकता है। इससे किसान और वहां के परिवार के लोगों को रोजगार भी मिलेगा और गांव की जीवनशैली में बदलाव आएगा।

इस तरह शुरू हुआ यह प्रोजेक्ट

यूनिवर्सिटी ने इस प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी वरिष्ठ भूमि वैज्ञानिक डॉक्टर शंकर झा को दी है। शंकर झा का कहना हैं कि इस प्रोजेक्ट के तहत हमने सबसे पहले शोध किया और पाया कि यहां गरीब लोगों के घरों में गैस चुल्हा तो है लेकिन सिलेंडर में गैस नहीं है। ज्यादातर परिवार में पुरुष रोजगार के लिए बाहर गए हुए हैं। नतीजा महिलाओं को ही पारीवारिक जिम्मेदारी उठानी पड़ रही है। आर्थिक हालात ठीक नहीं होने के कारण महिलाएं अपने घरों में पारंपरिक तरीके से यानी लकड़ी और उपले पर खाना पका रही हैं।

एक बड़ी परेशानी यहां की बाढ भी है जो हर साल आती है और परेशान करके जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उज्ज्वला योजना के तहत गांव के गरीबों को गैस कनेक्शन फ्री में दिया तो लोगों की जिंदगी आसान होने लगी। लेकिन हमने देखा कि वे एक फ्री सिलेंडर के बाद दूसरी भराने की हिम्मत नहीं कर रहे थे। इसी को देखते हुए और कुलपति के निर्देश पर हमने इस समस्या के समाधान की दिशा में काम करना शुरू कर दिया और लोगों के घरों से गोबर लेने लगे।

प्रतिदिन 20 से 25 किलो गोबर देना होता है

हरेक दिन किसान के घर एक ठेला गाड़ी जाती है। 20 से 25 किलो गोबर और उनके घर से निकलने वाले कचड़े इकट्ठा करती है। इसके अलावा पुआल और जलकुंभी को भी इकट्ठा किया जाता है। दरअसल, बाढ़ के कारण पानी में जलकुंभी काफी तेजी से फैल जाती है और गांव के लोगों के लिए एक बड़ी समस्या बन गई है। 60 फीसदी गोबर और 40 फीसदी वेस्ट मेटेरियल के साथ मिलावट के बाद गोबर और कचड़े से कम्पोस्ट तैयार किया जा रहा है। इस गांव के गोबर से 500 टन वर्मी कम्पोस्ट बनाने की योजना है, लेकिन पहले चरण में सिर्फ 250 टन बनाने की योजना पर काम चल रहा है।

“स्मोकलेस रूरल सेनिटाइजेशन प्रोग्राम” के तहत अभी तक यूनिवर्सिटी ने 28 परिवार को सिलेंडर दिया है। इस योजना में अब तक कुल 56 परिवार जुड़ गए हैं। इस गांव में सिर्फ 104 परिवार ही है। जिनकों जोड़कर 500 टन वर्मी कम्पोस्ट बनाकर इन किसानों को ही दिया जाएगा। इससे सलाना लाखों की बचत होगी। साथ ही यहां के किसान ऑर्गेनिक फसल उगाएंगे और यहीं उनकों रोजगार भी मिल जाएगा। उनके घर का चूल्हा भी जलेगा और खेती भी होगी। 5 साल बाद इन्हीं गांव वालों को ही यूनिवर्सिटी यह प्रोजेक्ट सुपुर्द कर देगी।

गांव में ही बनाई जा रही वर्मी कम्पोस्ट

गांव के किसान सुनील यादव सबसे पहले इस योजना से जुड़े थे। सुनील बताते हैं कि हमारे यहां अभी भी गरीबी है।सिलेंडर के पूरे पैसे इकट्ठा करना हर दूसरे महीनें एक बड़ी समस्या रहती है। नतीजतन कई महीनों में या साल में एक बार ही सिलेंडर ले पाते थे। यूनिवर्सिटी की इस योजना से जुड़ने के साथ ही हमलोगों की जिंदगी में कई बदलाव महसूस होने लगे हैं। बच्चों की फीस, बूजुर्गों की दवाई और बाढ़ की परेशानी में उलझे रहते थे।

अब भविष्य में हमलोग भी बेहतर कर सकते हैं। सुनील ने ही पहले वर्मी कम्पोस्ट बनाने के लिए जमीन भी उपलब्ध कराई थी। बहरहाल यूनिवर्सिटी के कुलपति डॉक्टर रमेश चंद्र श्रीवास्तव यहां के सभी पंचायतों में इस प्रोजेक्ट को लागू कराने के लिए कई निजी कंपनियों और एनजीओं से भी बातचीत कर रहे हैं।

दया शंकर चौधरी

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