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तिराहे पर खड़ा जाट वोटर, हर राह में बिछे हैं फूल के साथ कांटे 

संजय सक्सेना
      संजय सक्सेना

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अब चुनाव की घड़ी नजदीक आ गई है। जाट वोटर यहां हमेशा से ही निर्णायक साबित होते रहे हैं, लेकिन इस बार जाट वोटर सियासी रूप से ‘तिराहे’ पर खड़े नजर आ रहे हैं। वह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि किस राह पर आगे बढ़ें। एक रास्ता वह है जिस पर वह आगे बढ़ते हैं तो वहां भाजपा की मोदी-योगी सरकार खड़ी नजर आती है। इस मार्ग पर आगे बढ़ने पर नये कृषि कानून के विरोध में साल भर से अधिक समय तक चला किसान आंदोलन और आंदोलन के चलते सात सौ किसानों की मौत (जैसा दावा किया जा रहा है) का नजारा नजर आता है। दूसरी राह पकड़ते हैं तो जाट मतदाताओं को राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री और किसानों के बड़े जाट नेता रहे चौधरी चरण सिंह की विरासत संभाले युवा नेता जयंत चौधरी (दिवंगत चौधरी चरण सिंह के पौत्र) खड़े दिखाई देते हैं। इस मार्ग पर जाट वोटरों को चलना आसान लगता है।

जयंत के दादा चौधरी चरण सिंह की हापुड़ जन्मस्थली है। पिता अजित सिंह केंद्र में कई बार मंत्री रह चुके हैं। अब जयंत पर दादा और पिता की तरह अपनी चौधराहट साबित करने का दबाव है। किसान आंदोलन के समय जिस तरह से जयंत चौधरी ने इसका खुलकर समर्थन किया था, उसको देखते हुए जाट वोटर चाहता है कि जयंत जीतें। इतना ही नहीं जयंत को जाट इसलिए भी जिताना चाहते हैं क्योंकि उन्हें पछतावा है कि 2019 में उनके (जाट वोटरों के) चलते किसान नेता चौधरी अजित सिंह को हार का सामना करना पड़ा था और बीजेपी की जीत हुई थी। इसी के बाद कोरोना काल में उनकी (अजित सिंह की) मौत हो गई थी। इस लिए जाट नेता अजित सिंह के साथ की गई गलती जयंत को वोट देकर सुधारना चाहते है, परंतु बात यहां पर खत्म नहीं हो जाती है।

एक तीसरा रास्ता भी है जिस पर पहले ही रास्ते की तरह जाट वोटर चाह कर भी आगे नहीं बढ़ना चाहता है। उसे (जाट वोटरों को) इस राह पर चलने में इसलिए परेशानी हो रही है क्योंकि इस राह पर चौधरी जयंत सिंह तो मिलते हैं जिन्हें वह जिताना चाहते है, लेकिन इस रास्ते पर जयंत उस नेता के साथ खड़े नजर आते हैं, जो मुजफ्फरनगर दंगों का गुनाहगार खड़ा नजर आता है। यह नेता हैं सपा प्रमुख और 2012 से 2017 तक उत्तर प्रदेश के सीएम रहे अखिलेश यादव। अखिलेश सरकार पर 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे के दाग लगे हैं, मुजफ्फनगर दंगे की त्रासदी यही थी कि यहां पीड़ित भी जाट थे और कुसूरवार भी उन्हें बना दिया गया था। जबकि, मुजफ्फरनगर दंगे के एक सम्प्रदाय विशेष के लोगों को अखिलेश सरकार का संरक्षण हासिल था। दंगो के समय लखनऊ में बैठे सपा के दिग्गज नेता आजम खान मुजफ्फरनगर पुलिस को गाइड कर रहे थे कि किसे छोड़ना है, किसे हवालात में डालना है। मुजफ्फरनगर दंगे का दर्द आज भी जाट वोटर भुला नहीं पाए हैं कि किस तरह से उनके घर की बहू-बेटियों को अपमानित किया गया था और बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया था। तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तो दंगाग्रस्त इलाके का दौरा करना तक उचित नहीं समझा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वह मुस्लिम सियासत की रहनुमाई करने वालों के दबाव में थे। इसी के चलते जाट वोटरों को तीसरी राह पकड़ना भी समझदारी का फैसला नहीं लगता है।

जयंत ने इन्हीं के साथ चुनावी गठबंधन किया है। इसी लिए भाजपा नेता जयंत पर तंज भी कस रहे हैं कि जयंत ने गलत घर (सपा से गठबंधन) चुन लिया है। वह वापस भाजपा में आ जाएंगे। सपा से रालोद के गठबंधन के बाद जाट समुदाय में अपना अस्तित्व बचाने का सवाल भी उठ खड़ा हुआ है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में जयंत के परिवार का जो दबदबा है, वह मुजफ्फरनगर दंगे के बाद बने नए राजनीतिक समीकरणों में कम हुआ है। जयंत की परीक्षा पहले दो चरणों के चुनाव में ही है।

कोरोना की दूसरी लहर में पिछले साल मई में चौधरी अजित सिंह की मृत्यु हो गई। इसके बाद रालोद की जिम्मेदारी जयंत के कंधों पर आ गई। जयंत ने सपा के साथ गठबंधन किया है। जाटों को सपा के साथ गठबंधन रास नहीं आ रहा है। कारण भी साफ है। मुजफ्फरनगर का कवाल गांव जिसे जाट भूल नहीं पा रहे हैं। जाटों ने पिछले चुनाव में खुलकर भाजपा को समर्थन दिया था। करीब एक साल तक चले किसान आंदोलन के चलते भाजपा और जाटों के बीच दूरी आई। इसे पाटने के लिए पिछले दिनों केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में सांसद प्रवेश वर्मा के घर जाटों को बुलाकर मनाया। इससे दोनों के रिश्ते में कड़वाहट काफी कम हुई है, तो जयंत भाजपा के रणनीतिकार अमित शाह की फेंकी गई उस गुगली में भी फंसते नजर आ रहे हैं, जिसमें शाह ने कहा था कि जयंत ने गलत घर चुन लिया है।

जयंत के सामने विरासत को बचाने की चुनौती है। पिछले दिनों अखिलेश और जयंत की जोड़ी जब यहां आई तो दोनों ने चौधरी चरण सिंह की जन्मस्थली से अपने आत्मीय संबंध दर्शाने की पूरी कोशिश की। क्षेत्र में अभी जो माहौल है, वह बताता है कि राह आसान नहीं है। हापुड़ विस क्षेत्र के जाट बाहुल्य गांव अकड़ोली में करीब 1,550 मतदाता हैं। यहीं के जाट समुदाय के हरेंद्र सिंह कहते हैं कि आज कोई भी गुंडई नहीं कर पा रहा है। संदीप सिद्धू कहते हैं, पहले लव जिहाद के नाम पर लड़कियों का शोषण किया जाता था, लेकिन आज ऐसा करने की हिम्मत नहीं है। वहीं, विकास सिद्धू कहते हैं कि जाट बिरादरी के कुछ लोग चाहते हैं कि चौधरी चरण सिंह की विरासत को बचा लिया जाए। समस्या इस बात की है कि जयंत चौधरी ने गलत लोगों से हाथ मिला लिया है। सभी को लग रहा है कि विरासत बचे न बचे, लेकिन हमारा अस्तित्व बचा रहे।

गौरतलब हो, जयंत चौधरी वर्ष 2009 में सक्रिय राजनीति में आए थे। उस समय उन्होंने मथुरा से अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा था और वह संसद पहुंचने में कामयाब हुए थे। इसके बाद वह 2012 के विधानसभा चुनाव में मथुरा की मांट विधानसभा सीट से जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। लेकिन, 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें मथुरा लोकसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी हेमामालिनी ने हराया था। 2019 के लोकसभा चुनाव में जयंत बागपत सीट से मैदान में थे। इस बार भी वह संसद नहीं पहुंच सके थे।

बहरहाल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश किसके साथ जाएगा, इसको लेकर तिराहे पर खड़ा नजर आ रहा है। वह जिस भी रास्ते पर आगे बढ़ने की सोचता है, उसे वहां फूल के साथ कांटे भी नजर आते हैं। इसी के चलते वह समझ नहीं पा रहा है कि कौन से पथ पर चले जिससे उसकी अकड़ भी बनी रहे और नुकसान भी नहीं हो।

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