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मानसून तो आया लेकिन आफत भी साथ लाया!

लंबे इंतजार के बाद जब मानसून ने देश के विभिन्न भागों में दस्तक दी तो राहत के साथ आफत भी बरसी। यूं तो देश के तमाम इलाकों में जलभराव और बाढ़ जैसे हालातों से लोगों को दो-चार होना पड़ा है, लेकिन महाराष्ट्र में स्थिति विकट है। मुंबई, पुणे और कोंकण के इलाकों में अतिवृष्टि के बीच जनजीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया है।

रायगढ़ में भूस्खलन व जलभराव से बड़ी संख्या में लोगों के मरने की खबरें हैं। सदियों से देश में मानसूनी फुहारें जन के तन-मन को भिगोती रही हैं। जीवनदायिनी बूंदों का महीनों इंतजार रहता था। उसके लिये इंद्रदेव की तरह-तरह से पूजा अर्चना और टोटको का जिक्र पौराणिक ग्रंथों व लोककथाओं में विद्यमान है।

अब सवाल यह है कि जीवनदायिनी मानसूनी बारिश जानलेवा क्यों हो रही है? इसके कारणों की पड़ताल करें तो पाते हैं कि यह केवल भारत की ही समस्या नहीं है। जर्मनी समेत यूरोप के कई देशों ने हाल में अतिवृष्टि से जो तबाही देखी, वैसे हालातों को पिछले सैकड़ों सालों में नहीं देखा गया। उनका सिस्टम ऐसी आपदा से निपटने के लिये तैयार ही नहीं था। उनके लिये बाढ़ का आना ही अचरज भरा है। चीन में कई बांधों के टूटने के बाद तबाही का जो आलम है, वह दुनिया की नंबर एक ताकत बनने को आतुर चीन को आईना दिखा रहा है। अमेरिका के जंगलों में लगी आग, कनाडा में झुलसाती गर्मी और बर्फानी साइबेरिया में लू के थपेड़ों ने कुदरत के कहर की दास्तां लिखी है।

पर्यावरण के प्रति जागरूक बिरादरी और विकासशील देश जिस ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिये विकसित व धनाढ्य देशों से गुहार लगाते रहे, उसकी जमीनी हकीकत ये संपन्न मुल्क अब महसूस कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि विश्वव्यापी कोरोना महामारी के बाद ये आसमानी आफत इनसान को उसके बौने कद का अहसास करा रही है। साथ ही भारत जैसे विकासशील देशों के लिये नसीहत भी है कि ग्लोबल वार्मिंग के आसन्न संकटों से निपटने को शासन-प्रशासन की नीतियों को जमीनी स्तर पर क्रियान्वित किया जाये।

बीते बृहस्पतिवार को हरियाणा के गृह व स्थानीय निकाय मंत्री अनिल विज द्वारा गुरुग्राम नगर निगम कार्यालय का अचानक निरीक्षण किया गया। मंत्री के छापे में तमाम कर्मचारी नदारद मिले, कुछ देर से पहुंचे तथा कुछ यूं ही टहलते मिले। मंत्री ने फाइलें खंगाली तो जल निकासी व सफाई बाबत शिकायतों के अंबार मिले। कुछ अधिकारी निलंबित भी किये गए। दरअसल, पहली बारिश में गुरुग्राम जिस तरह जलमग्न हुआ, उसने नगर निगम के उन दावों की पोल खोल दी, जिसमें कहा गया था कि मानसून आने से पहले नालों की सफाई और जल निकासी की पूरी तैयारी कर ली गई है। सड़कों पर इतना पानी भरा था कि यातायात ठप होकर रह गया।

यही स्थिति दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के तमाम शहरों की भी है। मुंबई व पुणे भी कमोबेश ऐसी ही स्थितियों से दो-चार हैं। दरअसल, सरकार व नगर निगमों में तालमेल के अभाव व जिम्मेदारियों से बचने की प्रवृत्ति ने इस संकट को बढ़ाया है। नगर निगमों में राजनीतिक दलों की अनावश्यक दखल और ठेकदारों को राजनीतिक संरक्षण समस्या को जटिल बनाती है। सही बात यह है कि नगर निगम के अधिकारियों व कर्मचारियों की निगरानी करने वाला और उनकी जवाबदेही तय करने वाला कोई तंत्र विकसित नहीं हो पाया। यही वजह है कि न तो बरसाती पानी की निकासी की कारगर व्यवस्था हो पाती है और न ही जलभराव से मुक्ति के लिये पानी निकालने वाले पर्याप्त पंपों की खरीद।

योजनाएं सिर्फ कागजों पर ही बनती हैं, जो पहली मानसूनी बारिश में ही बह जाती हैं। दरअसल, पिछले दिनों बारिश के पैटर्न में जो विश्वव्यापी बदलाव आया है, उसके हिसाब से बहुत कम समय में बहुत ज्यादा पानी बरस जाता है जो किसी भी शहर में बाढ़ जैसे हालात पैदा कर सकता है। इस चुनौती से निपटने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर रणनीति तैयार करने की जरूरत है। साथ ही स्थानीय निकायों को इसके लिये प्रशिक्षित करने की भी जरूरत है। दरअसल, हमें ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम के मिजाज में आ रहे बदलावों के अनुरूप खुद को ढालना होगा।

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