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विभाजन विभीषिका दिवस पर विशेष : पिता से सुनी कहानी याद करके आज भी रुह कांप जाती है

उत्तर प्रदेश सिंधी सभा के उपाध्यक्ष रमेश लालवानी ने साझा किया विभाजन का दर्द

सन् 46 में ही आभास हो गया था कि अब पाकिस्तान में रह पाना मुश्किल होगा

पूर्वजों का घर देखने पाकिस्तान गए तो हिन्दुओं की दुर्दशा देख दिल दु:खी हो गया

वाराणसी। 14 अगस्त सन 1947 को हुए देश के बंटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। ”विभाजन की विभीषिका”, ये शब्द सुनकर ही रूह काँप जाती है। नफरत और हिंसा की वजह से लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा और अपनी जान तक गंवानी पड़ी। सोचिए जिन्होंने विभाजन की विभीषिका को झेला होगा, उनपर क्या गुजरी होगी। ऐसे में हमने बात की पार्टीशन का दर्द झेल चुके सिंधी परिवार के सदस्य और यूपी सिंधी सभा के उपाध्यक्ष रमेश लालवानी से।

सन् 46 में ही आभास हो गया था कि अब यहां रहना मुश्किल है- वाराणसी में कई ऐसे परिवार हैं जो पाकिस्तान के सिंध प्रांत से भारत आए थे। इसी परिवार की दूसरी पीढ़ी के 72 वर्षीय सदस्य रमेश लालवानी हैं, जिनके पिता स्वर्गीय देऊमल लालवानी पाकिस्तान के सिंध प्रांत से वाराणसी आकर बसे। रमेश लालवानी ने पिता से सुनी दास्तां को याद करते हुए बताया कि सिंध में 1946 में ही आभास होने लगा था कि अब यहां हिन्दुओं का रहना मुश्किल होगा। हिन्दुओं के प्रति खराब होते हालात को देखकर 1946 में ही हमारा परिवार पाकिस्तान छोड़ कर वाराणसी में आकर बस गया।

पिता से सुनी बातों को याद कर सिहर उठते हैं रमेश- रमेश लालवानी अपने पिता से सुनी बातों को याद करके सिहर उठते हैं। रमेश के पिता सिंध में सरकारी नौकरी में थे, लेकिन 1946 के अंतिम महीनों में ही वहां हालात खराब होने लगे थे। तभी आभास हो गया था अब अपना घर छोड़कर यहां से निकल जाना ही सुरक्षित होगा। हालात ऐसे बन गये थे कि अब पाकिस्तान में रह पाना और कारोबार करना काफी मुश्किल होगा। आखिरकार हुआ भी वही, 1947 में भारत पाकिस्तान का विभाजन हुआ और इसकी विभीषिका वहां रहने वाले हिन्दुओं को झेलनी पड़ी।

रो पड़ते थे पिताजी, दाने-दाने के लिये हो गये थे मोहताज
रमेश के अनुसार उनके पिता वहां हुए जुल्मों को याद कर करके रो पड़ते थे। पिता बताया करते थे कि विस्थापन के दौरान कैसे वहां की स्थानीय पुलिस प्रताड़ित करती थी, मौलिक अधिकार नाम की कोई चीज ही नहीं थी। हिन्दुओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता था। इतना ही नहीं कई दिनों की पैदल यात्रा करनी थी और हमारा परिवार एक-एक दाने के लिये मोहताज हो गया था।

नयी पीढ़ी को विभाजन की विभीषिका को जानना चाहिए
रमेश लालवानी कहते हैं, प्रधानमंत्री द्वारा 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाना बेहद जरूरी है। आने वाली पीढ़ी को उस दर्द की जानकारी देना बहुत जरूरी है। यह पूरे हिन्दू समाज के लिये एक सामाजिक संवेदना से जुड़ा मुद्दा है। विभाजन के दंश के रूप में लाखों लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। पूरी मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसा दर्दनाक विस्थापन कभी नहीं हुआ था, जिसे हमारे परिवार वालों ने झेला था।

अपनी मातृभूमि से वंचित होना दर्दनाक अनुभव-अपनी मातृभूमि, सम्पत्ति और रोजगार से वंचित होना कितना दर्दनाक होता है, ये सोचकर ही रूह कांप उठती है। हमारे पिता ने बताया था कि उन्हें खाली हाथ विभिन्न नगरों में जाकर स्थापित होने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा था। अपने बुजुर्गों से जब हम इस पीड़ा की कहानियां सुनते थे तो उनकी आंखों में बहते आंसू देखकर हम भी दु:खी हो जाते थे।

2005 में गये थे पाकिस्तान, हालात देख मन दु:खी हो गया
अपने पैतृक गांव को लेकर हमेशा से हमारे मन में उत्कंठा थी। अपने पूर्वजों से सुनी कहानियों और उनकी स्मृतियों में बसी उस भूमि का दीदार करने की लालसा ही थी, जो हम लोगों को 2005 में एक जत्थे के साथ पाकिस्तान जाने का अवसर प्राप्त हुआ। हमारा घर पाकिस्तान में सिंधु नदी के पास सिंध प्रांत के सक्खूर के पवहारी गाँव में था। जब हम अपने पैतृक गांव पहुंचे तो वहां बचे हिन्दुओं की स्थिति देख दिल कांप उठा। हिन्दू वहां दोयम दर्जे के नागरिक की हैसियत में जीवन गुजार रहे थे। उनके मठ मंदिरों को उजाड़ने का क्रम आज भी जारी है। पाकिस्तान में मौलिक अधिकार नाम की चीज नहीं है। हिन्दुओं की बहन बेटियां भी सुरक्षित नहीं हैं।

आज भारत में स्वावलंबी है सिंधी समाज-रमेश लालवानी बताते हैं कि विस्थापित होने के पश्चात आज हमारा समाज अपने पुरुषार्थ के बल पर आत्मनिर्भर और स्वावलंबी हो चुका है। आज हम किसी के रहमोकरम के मोहताज नहीं है। उद्योग, व्यापार, शिक्षा, चिकित्सा, राजनीति समेत सभी क्षेत्रों में अपनी पहचान बना चुके सिंधी लोग शरणार्थी शब्द सुनना भी नहीं चाहते। एक प्रान्त से दूसरे प्रांत में खाली हाथ चले जाना और वहां समरसता, सद्व्यवहार से स्थानीय निवासियों का दिल जितना सिंधी और पंजाबी बखूबी जानते हैं।

चीन युद्ध के समय भी देश सेवा में जुटा था सिंधी समाज-रमेश लालवानी ने बताया कि उनके पिता और दादा ने 1962 में चीन से हुए युद्ध के समय 25,000 की राशि सिंधी समाज से एकत्रित करके तत्कालीन खाद्य मंत्री को दी थी। देश सेवा में हमारा समाज भी बराबर सहयोग की भावना रखता है। आज की पीढ़ी को विभाजन विभीषिका की जानकारी देने के लिए स्मृति दिवस का आयोजन एक शुभ संदेश दे रहा है।

रिपोर्ट-संजय गुप्ता 

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