श्रीमद्भागवत गीता (Shrimad Bhagwat Geeta) भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारबिन्द की अमृतमयी वाणी है जो उनके हृदयसागर से प्रगट हुई है जिन्हें सनातन धर्म उपनिषद के रूप में स्वीकारता है ओर गीता के प्रत्येक अध्याय का प्रति श्लोक किसी भी उपनिषद से कमतर नहीं है। ‘गीता’ के मूलमें संस्कृतका ‘गीतम्’ शब्द है, परंतु ‘उपनिषद्’ शब्द स्त्रीलिंग होने तथा उसके अनुकरणके कारण ‘गीता’ शब्द बना माना जाता है। इसीलिये विभिन्न गीताओं की पुष्पिकाओं में भगवद्गीतोपनिषद्, भगवतीगोतोपनिषद्, शिवगोतोपनिषद् इत्यादि पाया है। विभिन्न गीताओं में भगवान् के भिन्न-भिन्न स्वरूपों की विभूतियों का भी विशद् विवरण तथा श्रोताद्वारा विस्मित होकर की गयी उनकी स्तुतियाँ भी मिलती हैं अतएव ‘गीयते स्तुयते यः स गीता’- ऐसा भी कहा गया हैं। उपनिषद् को वेद के शिरोभाग होने की मान्यता है जिसमें आत्मा ओर परमात्मा की ऐक्यबोधक स्थिति है या कह सकते है कि आत्मा ओर परमात्मा दोनों एक ब्रम्ह का अनादि ज्ञान गीता से प्राप्त होता है। ज्ञान की उत्पत्ति भी ज्ञान से ही सिद्ध होती है। गीता का ज्ञान अमृततुल्य है जो मनुष्यमात्र के लिए विषम परिस्थितियों में भी संजीवनी तुल्य है।
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गीता में केवल कर्म, भक्ति या ज्ञान का ही प्रतिपादन है ऐसा कहना उपयुक्त नहीं है। कर्म, उपासना, ज्ञान किसी भी वस्तु को समझने, समझाने अथवा सिद्ध करने के लिये श्रीकृष्ण वचन गीता को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, इसलिए गीता प्रत्यक्ष प्रामाणिक ग्रन्थ है। वेदोंके सदृश गीता भी अपौरुषेय है। इसीसे गीता को उपनिषद् और ब्रह्मविद्या कहा गया है। गीता के रूपमें अनादि सिद्ध अद्वैत ज्ञान ही भगवद् वाणी से अभिव्यक्त हुआ है।
गीता को श्रीमदभागवत गीता कहा गया है अर्थात गीता को माँ के रूप में सर्वोच्च सम्मान मिला है। ‘अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम्’ सम्बोधन गीता को माँ के स्थान पर प्रतिष्ठित करता है ओर ‘गीता मे हृदयं पार्थ ‘के द्वारा श्रीकृष्ण ने गीता को अपना हृदय भी कहा है। हृदयस्थ नेह मूर्तिमान् होकर माता के रूपमें ही तो गीता प्रकट हुई है। पुत्र के पोषण, संरक्षण, संवर्धन के लिये माँ दुग्धपान कराती है।’ दुग्धं गीतामृतं महत्’ गीता माता का दुग्ध सामान्य नहीं, अमृतमय है। अमृत भी इन्द्रिय भोग्य जड़ नहीं, भगवद् रूप से पान किया जाने वाला भगवद् रूप-चिन्मय अमृत है। यह जड़ जगत् की या देवलोक की विनश्वरता से रहित अमृत है।
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भगवद् रूप यह चिन्मय गीतारूपी वचन अमृत होने का प्रमाण स्यंव जगदीश्वर कृष्ण है जिनके गीता रूप में यह कृति साध्य पुस्तक के रूप में सहज ओर सरलता से प्राप्त है। पार्थसारथि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीतामृत का पान कराया यह अपने आप में आनंद ओर उल्लास से भरने वाली बात है। गीता के प्रत्येक अध्याय की विषयवस्तु का अनुसंधान होता रहा है ओर सदियों से कई ऋषि महर्षि ज्ञानी ध्यानी इसे समझने अपना जीवन दाव पर लगा चुके है ओर कई लगा रहे है किन्तु जो जान गया उसके लिए गीता गूंगे का गुड है ओर जो नहीं जान सका वे बेकार के गाल बजाकर अपने को सिद्ध माने हुये है । लोगोंका मत है कि गीता मुख्य रूपसे कर्म का निर्देश करती है, तो कुछ गीता को ज्ञान का प्रधान प्रतिपादक ग्रन्थ मानते हैं, निर्विवाद क्या है?
वस्तुतः गीता के प्रतिपाद्य श्रीकृष्ण ही हैं, इस वातको समझनेके लिये यह प्रश्न विचारणीय है कि बड़ा कौन है? रथी पार्थ कि पार्थसारथि श्रीकृष्ण ! देखा जाये तो सारथी से बड़ा रथी होता है। परन्तु यहाँ कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में ठीक इसके विपरीत बात है। यहाँ रथी (अर्जुन) बड़ा नहीं, सारधि श्रीकृष्ण बड़े हैं। यहाँ पर सारथि कृष्ण हैं। अब सरलतासे यह बात समझी जा सकती है कि गीताका मुख्य प्रतिपाद्य कर्मात्मक अर्जुन नहीं, ज्ञानात्मक परमात्मा श्रीकृष्ण हैं। गीता का स्वाध्याय करने के पहले भूमिका के रूपमें कुछ महत्त्वपूर्ण बातों पर एक विहंगम दृष्टि डाल लेना आवश्यक है। सर्वप्रथम यह समझना है कि श्रीमदभागवत गीता के रूप में जो उत्कृष्ट ज्ञान हमारे समक्ष उपस्थित है, वह कहाँ पर और कैसी परिस्थिति में प्रकट हुआ है। स्थल है कुरुक्षेत्र का।
कौरव पाण्डव दोनों दलों के सैनिक अस्त्र-शस्त्रसे सुसज्जित युद्ध के लिये तत्पर हैं और साथ ही घोड़ों की हिनहिनाहट, रथों की घरघराहट, शंख-दुन्दुभि-भेरी आदि युद्धवाद्योंकी हृदयविदारक एवं गगनभेदी भयावह ध्वनि का आर्तनाद गूंज रहा है तब इस अत्यंत भयावह परिस्थिति में अर्जुन जिज्ञासा से भरा भगवान श्रीकृष्ण से यह श्रीमदभागवत गीता का ज्ञान प्राप्त कर रहा है। तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिये एकांत शांति में भी मन स्थिर नहीं होता तब अर्जुन युद्ध के इस भीषण भयानक वातावरण में किस तरह अनुकूल हुआ होगा यह समझने के लिए बुद्धि काम करना बंद कर देती है।
विचार कीजिये अर्जुन कि जगह अगर आप कोई भी होता ओर उन्हे श्रीकृष्ण जैसा गुरु भी मिल जाता तो स्थानकी अनुकूलता के बिना अर्जुन के समक्ष उत्पन्न धर्मसंकट कि स्थिति में आप भगवान से तत्त्वज्ञान की प्राप्ति कर सकते थे, जबाब होगा कदापि नहीं। फिर अर्जुन के समक्ष कुरुक्षेत्र, में यह सब हुआ ओर उस स्थान को दो भागों में विभक्त किया गया एक स्थान का नाम दिया ‘धर्मक्षेत्रे ओर दूसरे स्थान के रूप में कुरुक्षेत्रे’ कहा गया।
कुरुक्षेत्र के लिए ‘धर्मक्षेत्रे शब्द सहित दो शब्दों का विशेषण देना क्या विलक्षण बात नहीं है। दो विरुद्ध स्थितियों का संकेत देने का साहस युद्ध के मूलकारण समझे जाने वाले महाराज धृष्टराष्ट्र का विवेक ओर चतुराई भी कहा जा सकता है जिन्होने दोनों सेनाओ के योद्धाओं के लिए यह सम्बोधन श्रीमद भागवत गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में ही किया ओर कौरवों अर्थात दुर्योधन के सेना के लिए कुरुक्षेत्र शब्द का प्रयोग किया अर्थत कुरुक्षेत्र में जो अधर्मनिष्ठ सेना का नायक उसका बेटा ओर सेना थी वही धर्मराज युधिष्ठिर को धर्मनिष्ठ मानकर उनके लिए धर्मक्षेत्रे शब्द कहा।
देखा जाए तो कुरुवंशी तो युधिष्ठिर भी हैं, फिर भी ‘कौरव’ नाम दुर्योधनादि में रूढ हो गया है। दुर्योधनके पक्ष में द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कर्ण जैसे महापुरुष भी हैं, इसलिये उस पक्षमें अधर्म ही अधर्म और पाण्डवोंके पक्षमें धर्म हो धर्म है, ऐसा कहता भी उपयुक्त नहीं है। धर्म दोनों ओर है। फिर भी एक अन्तर स्पष्ट है, कौरव दुर्योधनादि ने धर्म का, जो विदुर के रूपसे उनके बीच में रहते थे, कोई मूल्य नहीं किया। एक दासकी हैसियतसे ही उसकी वहाँ स्थिति है। और फिर बादमें तो उसका दुर्योधनादिके द्वारा तिरस्कार ही नहीं, सर्वथा बहिष्कार भी कर दिया जाता है।
अब युधिष्ठिर धर्मराज कि सेना में धर्मराज खुद धर्म के राजा थे ओर उनकी सेना में पूर्णा अनुशासन था तथा धर्मकी प्रेरणासे ही सम्पूर्ण कार्य हो रहे हैं। दोनों दलोंमें इस प्रकारके भेदकी स्थिति स्पष्ट है। महाभारतके प्रधान पात्र संजय, धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर, अर्जुन और दुर्योधनादिके सम्बन्धमें कुछ और भी स्पष्ट समझ लेना है। महाभारत युद्धका वर्णन धृतराष्ट्र के प्रति संजय करते हैं। ‘संजय’- जिसने अपनी इन्द्रियों पर, मन-बुद्धि पर सम्यक् जय-संयम प्राप्त कर लिया है। संजय को दिव्यदृष्टि प्राप्त है। राजमहल में बैठे ही बैठे वे सुदूर कुरुक्षेत्र की सम्पूर्ण घटनाओं को देख रहे हैं। यह दृष्टि धृतराष्ट्र को नहीं मिली। संजय आचार्यवान् हैं। महर्षि व्यास के प्रसादसे उनको दिव्यदृष्टि प्राप्त हुई है किन्तु धृतराष्ट्र के जीवनमें उचित ढंग से किसी आचार्यकी प्राप्ति नहीं होने पायी है, इसलिये न केवल संजय के समान धृतराष्ट्र को दिव्य दृष्टि की प्राप्ति नहीं हुई, अपितु उनकी बुद्धि भी आचारवर्जित है।’
धृतराष्ट्र अन्धे हैं, आँखाँसे ही नहीं, ज्ञान-दृष्टिसे भी। अन्धत्वका प्रधान कारण बुद्धि-राहित्य है। ‘धृतं राष्ट्र येन’ वे राज्यको पकड़कर बैठ गये हैं। करणोपाधि (देहेन्द्रियादि) को मैं’ एवं विषयोंको ‘मेरा’ मान बैठना अन्धापन है। धृतराष्ट्रको कुछ सूझता ही न हो, ऐसा नहीं है। अपने बेटों की भलाई- पक्षपात और अपने राजपद के संरक्षण की बहुत बातें उन्हें सूझती हैं। किन्तु जब कोई पाण्डवों की भलाई अथवा परमार्थ का प्रसंग उपस्थित होता है, तब उनकी बुद्धि कुछ भी सही निर्णय नहीं कर पाती। अहंता-ममतासे ग्रस्त हैं धृतराष्ट्र। ‘मैं’ और ‘मेरा ‘के रूपमें जो कुछ भी व्यवहार चल रहा है, वह सबका सब ईश्वर में अध्यस्त और ईश्वर से ही प्रकाशित है, इस सत्यको वह नहीं जानते।
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धृतराष्ट्र का यह अज्ञान और पक्षपात उनके प्रश्न के रूप में गीता के प्रथम श्लोकमें ही प्रकट हो गया है। संजयसे उन्होंने पूछा-युयुत्सवः। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।। ‘हे संजय ! धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?’ मामकाः दुर्योधनादयः और पाण्डवाः युधिष्ठिरादयः, इस प्रकार पृथक्- पृथक् कहकर धृतराष्ट्र ने, दुर्योधनादि के प्रति अपनेपन तथा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरादि के प्रति परायेपन की भेदभावना स्पष्ट रूपसे प्रकट कर दी है। युधिष्ठिरादि में इस प्रकार की भेदबुद्धि नहीं हैं; क्योंकि वे पाण्डव हैं।
‘पण्डा’ अर्थात् सदसद्विवेकिनी बुद्धि, उससे जो युक्त हों उन्हीं को पाण्डव कहते हैं। पण्डित शब्द का भी वही भाव है। सिख सम्प्रदायमें ग्रन्थी को पण्डित कहते हैं। पण्डित निर्ग्रन्थ को पण्डित माना जाता है, किन्तु गीतामें पण्डित की परिभाषा इन सबसे भिन्न है-‘ नानु शोचन्ति पण्डिताः पण्डित (आत्मज्ञानी) शोक नहीं करते। ‘ज्ञानाग्निदग्ध कर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ज्ञानकी आगसे जिसके सम्पूर्ण कर्म जल चुके हैं, उसको पण्डित कहते हैं, ‘पण्डिताः समदर्शिनः’- जो समदर्शी हैं वे पण्डित हैं!
अर्जुन और दुर्योधन के युद्ध लड़ने का उद्देश्य भी पृथक् पृथक् है। दुर्योधन अपने दल के विशिष्ट-विशिष्ट योद्धाओंका संकेत करते हुए साफ कहता है- ‘मर्थे त्यक्तजीविताः “ये सब मेरे लिए लड़ रहे हैं।’ परन्तु ठीक इसके विपरीत – ‘येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च” हमें जिनके लिये राज्य भोग और सुख आदि इष्ट हैं’ इत्यादि कहकर अर्जुन ने युद्ध करने में अपना स्पष्ट मन्तव्य प्रकट किया है कि मैं अपने लिये नहीं, दूसरोंके लिये, समाज या राष्ट्र के शोषण अथवा विघटन के लिये नहीं, पोषण-संवर्धन के लिये युद्ध में प्रवृत्त होना चाहता हूँ। व्यक्तिगत स्वार्थ की दृष्टिसे तो अर्जुन त्रैलोक्य तक के वैभव से विरत है।
अर्जुन में विवेक, वैराग्य शम, दम आदि साधन षट्सम्पत्ति है। दुर्योधन आसुरी सम्पत्ति से आक्रान्त है। अर्जुन दैवी सम्पत्ति में ही जन्मा है-‘ मा शुचः सम्पदं दैर्वे भाभिजातोऽसि पाण्डव। “हे अर्जुन ! शोक मत कर, तू तो दैवी सम्पत्ति को लेकर ही जन्मा है।’ दैवी सम्पत्ति से सम्पन्न होने का यह प्रमाणपत्र अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा ही प्राप्त है। कुरुक्षेत्र के युद्ध में उत्तम अधिकार सम्पन्न श्रेष्ठ जिज्ञासु के रूप में ही अर्जुन भगवान् के समक्ष उपस्थित है, ऐसी ही स्थिति में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के द्वारा गीता के रूप में अर्जुनके प्रति दिव्य ज्ञान का अवतरण हुआ अर्थात गीता को माँ के रूप में सर्वोच्च सम्मान मिला है। ‘अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम्’ सम्बोधन गीता को माँ के स्थान पर प्रतिष्ठित करता है ओर ‘गीता मे हृदयं पार्थ ‘के द्वारा श्रीकृष्ण ने गीता को अपना हृदय भी कहा है।