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विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए फूंकने वाले झारखंड के यह बीजेपी नेता नहीं दे पा रहे 5 साल का हिसाब

झारखंड की सियासत के लिए अगले साठ दिन काफी महत्वपूर्ण हैं। इस दौरान जनता मौजूदा रघुबर दास सरकार के साठ महीने के काम का हिसाब करेगी। इसी दौरान विधानसभा चुनाव होंगे। लोग इस आस में वोट करेंगे कि चुनावों के बाद बनने वाली सरकार झारखंड के विकास और लोगों के बेहतर भविष्य के लिए काम करेगी। यह पहला मौका है जब झारखंड की कोई सरकार अपने पांच साल का कार्यकाल पूरा कर रही हो। इसके बावजूद विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए फूंकने वाली रघुबर दास सरकार के पास उपलब्धियों के नाम पर बहुत कुछ नहीं है। स्वयंसेवी संस्थाओं और सिविल सोसायटी ने सरकार पर जनहितों को साधने और इनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने में विफल रहने के आरोप लगाए हैं।

यह सरकार कई दफा विवादों में रही है। विपक्ष ने इसकी कार्यप्रणाली के खिलाफ जोरदार आंदोलन भी किए हैं। विपक्ष इन्हीं विफलताओं को शो-केस कर चुनाव में उतर चुका है, वहीं सत्तापक्ष को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मैजिक की आस है। रघुबर सरकार जिन योजनाओं को अपनी उपलब्धि बताकर इसके विज्ञापन पर करोड़ों रुपए फूंक रही है उनमें से अधिकतर केंद्र प्रायोजित हैं। उनकी उपलब्धि और विज्ञापनों में किए गए दावों में भी काफी फर्क है। पूर्व मुख्यमंत्रीऔर झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन इन्ही फर्कों के पोस्टर बनाकर रघुबर दास से सवाल-दर-सवाल कर रहे हैं।

कब-कब फंस गई सरकार

सत्ता में आने के कुछ दिनों बाद ही सरकार ने छोटा नागपुर और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियमों (सीएनटी व एसपीटी एक्ट) को बदलने की कई कोशिशें की। इसका मुख्य उद्देश्य खेती-योग्य भूमि को गैर-खेती (व्यावसायिक) इस्तेमाल में बदलना एवं इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण को आसान करना था। तब व्यापक जनविरोध के कारण सरकार इन कानूनों को बदलने में सफल नहीं हो सकी। इसके बाद सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में ग्राम सभा द्वारा अनुमोदन एवं सामाजिक और पर्यावरण प्रभाव आकलन के प्रावधानों को कमजोर कर दिया। इन संशोधनों का इस्तेमाल कर सरकार ने गोड्डा में अडानी की बिजली परियोजना के लिए आदिवासियों की सहमति के बिना उनकी जमीन को अधिग्रहित किया।

बीजेपी सरकार ने आदिवासियों और मूलवासियों की सार्वजनिक जमीनें (मसलन- नदी, सड़क, तालाब, धार्मिक स्थल आदि) लैंड बैंक के तौर पर चिह्नित कर दीं, ताकि ग्राम सभा की सहमति के बगैर इनका अधिग्रहण किया जा सके।

पिछले चुनाव में पूर्ण बहुमत के बावजूदरघुबर दास की सरकार ने पेसा और पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों और कानूनों को लागू नहीं किया। इन्हीं सब कारणों से झारखंड जनाधिकार मंच ने भी बीजेपी शासन के पांच सालों में भ्रष्टाचार और जन-विरोधी विकास को और बढ़ोतरी मिलने का आरोप लगाया है। मंच से जुड़े चर्चित सोशल एक्टिविस्ट सिराज दत्ता, तारा मणि साहू, अंबिका यादव आदि ने आरोप लगाया कि सरकार ने अपनी राजनीतिक स्थिरता का इस्तेमाल हिंदुत्व विचारधारा के विस्तार और कॉरपोरेट घरानों के पक्ष में नीतियों को बनाने में लगाया है।

मॉब लिंचिंग के मामले

इस सरकार के शासन में अल्पसंख्यकों पर लगातार हमले हुए और धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिशें की गईं। इस कारण सरकार को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद 2017 में बने धर्मांतरण कानून की आड़ में सरकार ने सरना और ईसाई आदिवासियों के बीच दरार डालने की कोशिशें कीं। झारखंड ह्यूमन लॉ नेटवर्क की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले पांच वर्षों में कम से कम 21 लोगों को भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला। इनमें से 10 मुसलमानों और 3 ईसाईयों को धर्म या गाय के नाम पर मारा गया। आरोप है कि ज्यादातर घटनाओं में पुलिस की भूमिका अपराधियों के पक्ष में थी। इन सांप्रदायिक घटनाओं के विरोध की जगह बीजेपी के जिम्मेदार नेताओं और मंत्रियों ने मॉब लिंचिंग में शामिल रहने वाले अभियुक्तों का स्वागत फूल मालाओं से किया। कई पीड़ितों पर पुलिस ने ‘गौवंश हत्या अधिनियम’ अंतर्गत मामला भी दर्ज किया।

सामाजिक-आर्थिक अधिकारों का हनन

झारखंड जनाधिकार मंच की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले पांच सालों के दौरान आधार कार्ड की आड़ में हजारों लोगों के मनरेगा जॉब कार्ड रद्द कर दिए गए। जन वितरण प्रणाली में आधार आधारित बायोमीट्रिक प्रमाणीकरण व्यवस्था के कारण अनेक कार्डधारियों को राशन लेने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस कारण लाखों योग्य परिवार आज भी राशन से वंचित हैं क्योंकि सरकार ने साल 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना पर आधारित राशन सूची को पूरी तरह अपडेट नहीं किया। इस कारण पिछले पांच साल के दौरान राज्य में कम से कम 22 लोगों की मौत भूख से हो गई, हालांकि सरकार ने इन मौतों का कारण भूख नहीं माना।

सरकार की दलील रही कि इन मौतों की वजह भूख नहीं बल्कि बीमारी है। आधार की अनिवार्यता के कारण वृद्ध, विधवा और विकलांगों की लगभग आधी आबादी सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजनाओं के दायरे से बाहर रह गई है। कई सालों से मनरेगा में मजदूरी दर के वास्तविक स्तर में बढोतरी नहीं हुई। इस सरकार के कार्यकाल के दौरान आदिवासी और दलित परिवारों का कुल मनरेगा मजदूरी में हिस्सा 50 फीसदी से गिरकर 36 फीसदी हो गया।

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