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जब नेहरू ने अपनी सीट चीन के लिए छोड़ दी, क्या इतिहास की सबसे बड़ी ग़लती की नेहरू ने ?

भारत इस साल पहली जनवरी से दो बरसों के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य बना। यह भारत के लिए इस तरह का आठवां मौका है। जहां तक स्थायी सदस्यता की बात है तो अमेरिका और सोवियत संघ 1950 के दशक में ही भारत को स्थायी सदस्यता दिलवाना चाहते थे। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने स्थायी सदस्यता के लिए भारत की बजाय चीन की वकालत की थी। वह चीन को एक महान देश मानते रहे, जबकि बीजिंग अपनी सीमाओं के विस्तार की तैयारी में लगा था।

संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य है भारत

एक जनवरी 1942 को संयुक्त राष्ट्र की स्थापना की घोषणा पर दस्तखत करने वाले 26 देशों में भारत भी था। बाद में 25 अप्रैल 1945 को सैन फ्रांसिस्को में संयुक्त राष्ट्र स्थापना सम्मेलन हुआ। 50 देशों ने उसमें भाग लिया। 26 जून तक चले सम्मेलन में सर अर्कोट रामास्वामी मुदालियार के नेतृत्व में भारत का भी एक प्रतिनिधिमंडल शामिल हुआ। मुदालियार ने ही भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए। 30 अक्टूबर 1945 को भारत की ब्रिटिश सरकार ने इस सम्मेलन में पारित अंतिम घोषणा पत्र की औपचारिक पुष्टि की।

इस प्रक्रिया के दौरान स्वतंत्रता के बाद भारत को भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता देने की चर्चा हुई। हवा का रुख भारत के अनुकूल था। उस समय च्यांग काई शेक की कुओमितांग पार्टी और माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच चल रहे गृह युद्ध से लहूलुहान था चीन। कम्युनिस्टों से नफरत करने वाले अमेरिका के साथ उसके सहयोगी ब्रिटेन और फ्रांस भी साम्यवादी चीन को सुरक्षा परिषद में नहीं देखना चाहते थे।

चीन के नाम की सीट 1945 में च्यांग काई शेक की राष्ट्रवादी चीन सरकार को दी गई। लेकिन गृह युद्ध में जीत मिली चीनी कम्युनिस्टों को। एक अक्टूबर 1949 को चीन की मुख्य भूमि पर उनकी सरकार बनी। च्यांग काई शेक को अपने समर्थकों के साथ भागकर ताइवान द्वीप पर शरण लेनी पड़ी। वहां उन्होंने अपनी एक अलग सरकार बनाई।

इन्हीं हालात में 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ। तब प्रधानमंत्री नेहरू की अंतरिम सरकार को भी सबसे पहले देश के बंटवारे वाली उथल-पुथल से निपटना पड़ा। नेहरू ही भारत के पहले विदेश मंत्री भी थे।समाजवाद की रूसी और चीनी सोच से वह काफी प्रभावित थे। यही कारण था कि चीन में माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट सरकार बनते ही उसे राजनयिक मान्यता देने वाले देशों की पहली कतार में भारत शामिल रहा। नेहरू को आशा ही नहीं, अटल विश्वास था कि ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ ही बनेंगे।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता: नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित भी बनी रोड़ा

चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देने के एक ही साल के भीतर 24 अगस्त 1950 को नेहरू को अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित का एक पत्र मिला। कुछ समय पहले तक वह पत्र अज्ञात था। विजयलक्ष्मी पंडित उस समय अमेरिका में भारत की राजदूत थीं। पत्र में विजयलक्ष्मी ने अपने भाई को लिखा था, ‘अमेरिका के विदेश मंत्रालय में चल रही एक बात तुम्हें भी मालूम होनी चाहिए। वह है, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट पर से ताइवान के राष्ट्रवादी चीन को हटा कर उस पर भारत को बैठाना। इस सवाल के बारे में तुम्हारे जवाब की रिपोर्ट मैंने अभी-अभी रॉयटर्स में देखी। पिछले हफ्ते मैंने जॉन फ़ॉस्टर डलेस और फ़िलिप जेसप से बात की थी। दोनों ने यह सवाल उठाया और डलेस कुछ अधिक ही उत्साह दिखाते लगे कि इस दिशा में कुछ किया जाना चाहिए। पिछली रात वॉशिंगटन के एक प्रभावशाली स्तंभकार मार्किस चाइल्ड्स से मैंने सुना कि डलेस ने विदेश मंत्रालय की ओर से उनसे इस नीति के पक्ष में जनमत बनाने को कहा है। मैंने उन्हें हम लोगों का रुख बताया और सलाह दी कि वे इस मामले में धीमी गति से चलें क्योंकि भारत में इसका गर्मजोशी से स्वागत नहीं किया जाएगा।’

जॉन फ़ॉस्टर डलेस 1950 में अमेरिकी विदेश मंत्रालय के शांति वार्ता प्रभारी थे। 1953 से 1959 तक अमेरिका के विदेश मंत्री भी रहे। फ़िलिप जेसप अमेरिकी राजनयिक थे। वह नेहरू से पहले मिल चुके थे। विजयलक्ष्मी पंडित का यह पत्र और 30 अगस्त 1950 को नेहरू की ओर से आया जवाब, दोनों कुछ ही साल पहले लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स से पीएचडी कर रहे ऐंटन हार्डर को नई दिल्ली के नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय में मिले।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का मामला: देश हित से ऊपर रहे नेहरू की निजी भावनायें और आदर्श

अपने जवाब में नेहरू ने लिखा था, ‘तुमने लिखा है कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट से चीन को हटा कर भारत को वहां बैठाने का प्रयास कर रहा है। जहां तक हमारा प्रश्न है, हम इसका समर्थन नहीं करेंगे। हमारी नज़र में यह एक बुरी बात होगी। चीन का साफ-साफ अपमान होगा। चीन और हमारे बीच एक तरह का बिगाड़ भी होगा। मैं समझता हूं कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय इसे पसंद तो नहीं करेगा, लेकिन इस रास्ते पर हम चलना नहीं चाहते। हम संयुक्त राष्ट्र में और सुरक्षा परिषद में चीन की सदस्यता पर बल देते रहेंगे। मुझे लगता है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के अगले अधिवेशन में इस मसले पर एक संकट पैदा होने वाला है। जनवादी चीन की सरकार अपना एक प्रतिनिधिमंडल वहां भेजने जा रही है। अगर उसे वहां नहीं जाने दिया गया, तो समस्या खड़ी हो जाएगी। यह भी हो सकता है कि सोवियत संघ और कुछ दूसरे देश भी संयुक्त राष्ट्र से निकल जाएं। यह अमेरिकी विदेश मंत्रालय को भले ही अच्छा लगे, लेकिन उस संयुक्त राष्ट्र का अंत हो जाएगा, जिसे हम जानते हैं। इसका एक अर्थ युद्ध की तरफ और अधिक लुढ़कना भी होगा।’

उस वक़्त के सोवियत संघ के संयुक्त राष्ट्र से मुंह फेर लेने और युद्ध की ओर बढ़ने का जो डर नेहरू ने जताया था, उसका मुख्य कारण शायद यह था कि सोवियत संघ जनवरी 1950 से करीब आठ महीनों तक सुरक्षा परिषद की बैठकों में भाग नहीं ले रहा था। ऐसा उसने इस बात पर विरोध जताने के लिए किया था कि चीन के गृह युद्ध में कम्युनिस्टों की विजय होने और 1 अक्टूबर 1949 को वहां उनकी सत्ता स्थापित होने के बाद भी संयुक्त राष्ट्र में चीन वाली सीट उसे नहीं मिली।

सोवियत संघ में उस समय स्टालिन का शासन था। चीन में माओत्से तुंग की तानाशाही भी कुछ कम निर्मम नहीं थी। दोनों के बीच मतभेद तब तक शुरुआती दौर में थे। 25 जून 1950 को चीन के पड़ोसी और उसी के जैसे कम्युनिस्ट देश उत्तर कोरिया ने गैर-कम्युनिस्ट दक्षिण कोरिया पर हमला कर कोरिया युद्ध छेड़ दिया। सोवियत संघ उस समय भी सुरक्षा परिषद का बहिष्कार कर रहा था। उस की गैरहाजिरी में उसके वीटो का डर नहीं था, लिहाजा अमेरिका ने उत्तर कोरिया की निंदा का प्रस्ताव बड़े आराम से पास करवा लिया। भारत भी उत्तर कोरिया के क़दम का समर्थन नहीं कर सकता था, इसलिए उसने अमेरिकी प्रस्ताव का समर्थन किया। अमेरिका को यह बात पसंद आई। उसे लगा कि वैसे तो नेहरू खेमेबाजी का विरोध करते हैं, लेकिन कम्युनिस्टों के होश ठिकाने लगाने के सवाल पर उसकी ओर आ रहे हैं। कोरिया युद्ध छिड़ने से कुछ ही दिन पहले नेहरू दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ देशों में गए थे। वहां उन्होंने जो कुछ कहा था, वह भी अमेरिका को रास आया।

आबादी के लिहाज से भारत उस समय भी विश्व का दूसरा बड़ा देश था और बहुदलीय लोकतंत्र के रास्ते पर चल रहा था। वहीं चीन के नाम वाली सीट पर बैठाया गया ताइवान एक द्वीप देश था। माना जाता है कि इन्हीं सब बातों को नापने-तौलने के बाद अमेरिका सुरक्षा परिषद में ताइवान वाली सीट भारत को दिलवाने का कोई औपचारिक प्रस्ताव रखना चाहता था। लेकिन उससे पहले वह पक्का कर लेना चाहता था कि समाजवादी नेहरू का भारत भी यही चाहता है या नहीं।

अमेरिका को यह सावधानी भी बरतनी थी कि पाकिस्तान को कहीं यह न लगे कि उसके सिर से अमेरिका का हाथ उठने जा रहा है। यह सब सोचे बिना प्रधानमंत्री नेहरू का अनौपचारिक उत्तर था, ‘भारत कई कारणों से सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लायक है, लेकिन हम इसे चीन की क़ीमत पर नहीं चाहते।’ कहा जाता है कि सोवियत संघ और चीनी साम्यवाद की रोकथाम के लिए बने अमेरिकी सैन्य संगठनों ‘सीएटो’ यानी साउथ एशिया ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन और ‘सेन्टो’ यानी सेंट्रल ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन में 1954-55 में पाकिस्तान की भर्ती के पीछे भी नेहरू का यही रुख एक बड़ा कारण था।

आरोप लगाने वाले कहते रहे हैं कि नेहरू ने काफी समय तक चीन के बारे में निजी भावनाओं और आदर्शों को देशहित से ऊपर रखा। नेहरू का कहना था कि चीन महान देश है, इसलिए उसे उसकी उचित जगह मिलनी चाहिए। पता नहीं उन्होंने यह कैसे मान लिया कि महान चीन इतना दीन-हीन है कि अपने उचित स्थान के लिए ख़ुद नहीं लड़ सकता! यह भला भारत की जिम्मेदारी क्यों होनी चाहिए थी कि वह ख़ुद भूखा रहकर भी चीन को न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ता फिरता? भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में चीन ने ऐसा कोई योगदान भी नहीं दिया था कि भारत उसका एहसानमंद होता।

रिपोर्ट- दया शंकर चौधरी

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