बिरसा मुण्डा एक भारतीय आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और मुंडा जनजाति के लोक नायक थे। उन्होंने ब्रिटिश राज के दौरान 19वीं शताब्दी के अंत में बंगाल प्रेसीडेंसी (अब झारखंड) में हुए एक आदिवासी धार्मिक सहस्राब्दी आंदोलन का नेतृत्व किया, जिससे वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सदा के लिए अमर हो गये। भारत के आदिवासी उन्हें ‘धरती आबा’ के नाम से भगवान मानते हैं।
आरंभिक जीवन: ब्रिटिश राज के दौरान 19वीं शताब्दी के अंत में आदिवासी और दलित समुदाय को जहां एक ओर अंग्रेजों की दासता का शिकार होना पड़ा वहीं दूसरी ओर जमींदारी और छुआ-छूत की प्रथाओं का भी शिकार होना पड़ा था। जातीय और आर्थिक उत्पीड़न के शिकार आदिवासियों के बीच बिरसा मुंडा नाम के महामानव ने जनजाति की पहचान बचाये रखने के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष किया।
भारतीय आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और मुंडा जनजाति के लोक नायक
बिरसा मुंडा का जन्म मुंडा जनजाति के गरीब परिवार में पिता सुगना मुंडा और माता करमी मुंडा के सुपुत्र के रूप में 15 नवम्बर 1875 को झारखण्ड के खुटी जिले के उलीहातु गाँव में हुआ था। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद इन्होंने चाईबासा जी0ई0एल0 चर्च (गोस्नर एवं जिलकल लुथार) विद्यालय से आगे की शिक्षा ग्रहण की।
मुंडा विद्रोह का नेतृत्व
1858-94 का सरदारी आंदोलन बिरसा मुंडा के उलगुलान का आधार बना, जो भूमिज-सरदारों के नेतृत्व में लड़ा गया था। 1894 में सरदारी लड़ाई मजबूत नेतृत्व की कमी के कारण सफल नहीं हुआ, जिसके बाद आदिवासी बिरसा मुंडा के विद्रोह में शामिल हो गए। एक अक्टूबर 1894 को बिरसा मुंडा ने सभी मुंडाओं को एकत्र कर अंग्रेजों से लगान (कर) माफी के लिये आन्दोलन किया, जिसे ‘मुंडा विद्रोह’ या ‘उलगुलान’ आंदोलन कहा जाता है। 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके मानने वालों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और जिससे उन्होंने अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा प्राप्त कर लिया। उन्हें उस इलाके के लोग “धरती आबा”के नाम से पुकारा और पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोल दिया। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं।
जनवरी 1900 में डोम्बरी पहाड़ पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें व बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से अंग्रेजों द्वारा गिरफ़्तार कर लिए गये। बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें 9 जून सन 1900 में लीं। ऐसा कहा जाता है कि आंग्रेजों ने उन्हें राँची कारागार में जहर देकर मर डाला था। आज भी भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और
पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।
बिरसा मुंडा को पकड़कर रांची कारागार ले जाया गया
बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमानन क्षेत्र भी है।
जनजातीय गौरव दिवस
भारत सरकार के केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा 10 नवंबर 2021 को आयोजित बैठक में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को याद करने के लिए बिरसा मुंडा की जयंती 15 नवंबर को “जनजातीय गौरव दिवस” के रूप में घोषित किया है। इस दिन को भारत के एक वीर स्वतंत्रता सेनानी को याद किया जाता है।
तिलका मांझी बिहार में 11 फरवरी, 1750 को तिलका मांझी का जन्म हुआ था। उन्होंने अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध एक बड़ी जंग का आगाज किया। तिलका मांझी ने ‘संथाल विद्रोह’ का नेतृत्त्व किया, जिसकी वजह से उनका नाम देश के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और शहीद के रूप में लिया जाता है। अंग्रेज़ी शासन द्वारा किये गए शोषण का उन्होने मुंहतोड़ जवाब दिया, जिसकी वजह से तिलका मांझी को 1785 में गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर उन्हें फ़ाँसी दे दी गई। तिलका मांझी को प्रथम स्वतंत्रता सेनानी कहा जाता है। आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान इस शूरवीर स्वतंत्रता सेनानी को याद करना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले जबरा पहाड़िया (तिलका मांझी)
जबरा पहाड़िया (तिलका मांझी) भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले पहाड़िया समुदाय के वीर आदिवासी थे। सिंगारसी पहाड़, पाकुड़ के जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी के बारे में कहा जाता है कि उनका जन्म 11 फ़रवरी 1750 ई में हुआ था। 1771 से 1784 तक उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासक की नींद उड़ाए रखा। पहाड़िया लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाड़िया भारत के आदिविद्रोही हैं। दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है।
भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में जबकि पहला आदिविद्रोही होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को जाता हैं, जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रितानी हुकूमत से लोहा लिया। इन पहाड़िया लड़ाकों में सबसे लोकप्रिय आदिविद्रोही जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हैं। इन्होंने 1778 ई. में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया। 1784 में जबरा ने अंग्रेज क्लीवलैंड को मार डाला। बाद में आयरकुट के नेतृत्व में जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और जबरा को गिरफ्तार कर लिया गया। कहते हैं उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह पहाड़िया लड़ाका जीवित था।
खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थी। भय से कांपते हुए अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। हजारों की भीड़ के सामने जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। तारीख थी संभवतः 13 जनवरी 1785। बाद में आजादी के हजारों लड़ाकों ने जबरा पहाड़िया का अनुसरण किया और फांसी पर चढ़ते हुए जो गीत गाए – हांसी-हांसी चढ़बो फांसी …! – वह आज भी हमें इस आदिविद्रोही की याद दिलाते हैं। पहाड़िया समुदाय का यह गुरिल्ला लड़ाका एक ऐसी किंवदंती है जिसके बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज सिर्फ नाम भर का उल्लेख करते हैं, पूरा विवरण नहीं देते। लेकिन पहाड़िया समुदाय के पुरखा गीतों और कहानियों में इसकी छापामार जीवनी और कहानियां सदियों बाद भी उसके आदिविद्रोही होने का अकाट्य दावा पेश करती हैं।
तिलका माँझी उर्फ जबरा पहाड़िया विवाद
तिलका मांझी संताल थे या पहाड़िया इसे लेकर विवाद है। आम तौर पर तिलका मांझी को मूर्मु टोटेम का बताते हुए अनेक लेखकों ने उन्हें संताल आदिवासी बताया है। तिलका के संताल होने का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज और लिखित प्रमाण मौजूद ना हो, किन्तु संथालों के अनेकों लोक गीतों में उनका नाम है। और रही बात इतिहास की तो भारत देश मे सदैव उच्च जाति और पैसे वालों के आगे झुकता रहा है।ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार संताल आदिवासी समुदाय के लोग 1770 के अकाल के कारण 1790 के बाद संताल परगना की तरफ आए और बसे।
The Annals of Rural Bengal, Volume 1, 1868 By Sir William Wilson Hunter (page no 219 to 227) में साफ लिखा है कि संताल लोग बीरभूम से आज के सिंहभूम की तरफ निवास करते थे। 1790 के अकाल के समय उनका माइग्रेशन आज के संताल परगना तक हुआ। हंटर ने लिखा है, ‘1792 से संतालों का नया इतिहास शुरू होता है’ (पृ. 220)। 1838 तक संताल परगना में संतालों के 40 गांवों के बसने की सूचना हंटर देते हैं जिनमें उनकी कुल आबादी 3000 थी (पृ. 223)। हंटर यह भी बताता है कि 1847 तक मि. वार्ड ने 150 गांवों में करीब एक लाख संतालों को बसाया (पृ. 224)।
1910 में प्रकाशित ‘बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संताल परगना’, वोल्यूम 13 में एल.एस.एस. ओ मेली ने लिखा है कि जब मि. वार्ड 1827 में दामिने कोह की सीमा का निर्धारण कर रहा था तो उसे संतालों के 3 गांव पतसुंडा में और 27 गांव बरकोप में मिले थे। वार्ड के अनुसार, ‘ये लोग खुद को सांतार कहते हैं जो सिंहभूम और उधर के इलाके के रहने वाले हैं।’ (पृ. 97) दामिनेकोह में संतालों के बसने का प्रामाणिक विवरण बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संताल परगना के पृष्ठ 97 से 99 पर उपलब्ध है।
इसके अतिरिक्त आर कार्सटेयर्स जो 1885 से 1898 तक संताल परगना का डिप्टी कमिश्नर रहा था, उसने अपने उपन्यास ‘हाड़मा का गांव’ (Harmawak Ato) की शुरुआत ही पहाड़िया लोगों के इलाके में संतालों के बसने के तथ्य से की है। पूर्वजों के नाम पर बच्चे का नाम रखने की परंपरा अन्य आदिवासी समुदायों की तरह संतालों में भी है। लेकिन संतालों में पूर्व में और आज भी किसी व्यक्ति का नाम ‘तिलका’ नहीं मिलता है। लेकिन पहाड़िया समुदाय के लोगों में आज भी ‘जबरा’ नाम रखने का प्रचलन है।
अंग्रेजों ने जबरा पहाड़िया को खूंखार डाकू और गुस्सैल (तिलका) मांझी (समुदाय प्रमुख) कहा। संतालों में भी मांझी होते हैं और बड़ी आबादी व 1855 के हूल के कारण वे ज्यादा जाने गए, इसलिए तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया के संताल आदिवासी होने का भ्रम फैला। दरअसल, जबरा प्रत्यक्षतः भागलपुर के तत्कालीन जिला कलेक्टर क्लीवलैंड द्वारा गठित ‘पहाड़िया हिल रेंजर्स’ के सेना नायक के रूप में अंग्रेजी शासन के वफादार बनने का दिखावा करते थे और नाम बदल कर ‘तिलका’ मांझी के रूप में अपने सैंकड़ों लड़ाकों के साथ गुरिल्ला तरीके से अंग्रेज शासक, सामंत और महाजनों के साथ युद्धरत रहते थे। वैसे, पहाड़िया भाषा में ‘तिलका’ का अर्थ है गुस्सैल और लाल-लाल आंखों वाला व्यक्ति। चूंकि वह ग्राम प्रधान था और पहाड़िया समुदाय में ग्राम प्रधान को मांझी कहकर पुकारने की प्रथा है। इसलिए हिल रेंजर्स का सरदार जौराह उर्फ जबरा मांझी तिलका मांझी के नाम से विख्यात हो गए। ब्रिटिशकालीन दस्तावेजों में भी जबरा पहाड़िया मौजूद है पर तिलका का कहीं नामोल्लेख नहीं है।
साहित्य में जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी
बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पणर बांग्ला भाषा में एक उपन्यास ‘शालगिरर डाके’ की रचना की है। अपने इस उपन्यास में महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी को मुर्मू गोत्र का संताल आदिवासी बताया है। यह उपन्यास हिंदी में ‘शालगिरह की पुकार पर’ नाम से अनुवादित और प्रकाशित हुआ है। हिंदी के उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने जबकि अपने उपन्यास ‘हूल पहाड़िया’ में तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया के रूप में चित्रित किया है। ‘हूल पहाड़िया’ उपन्यास 2012 में प्रकाशित हुआ है। तिलका मांझी के नाम पर भागलपुर में तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय नाम से एक शिक्षा का केंद्र स्थापित किया गया है। (अगली कड़ी में सिक्ख परंपरा के स्वतंत्रता सेनानी बंदा बैरागी और भाई तारू सिंह जी)