हम सबके पास सुंदर काया है जिसे देह या शरीर नाम भी मिला है और हम सभी अपने आप में इस देह में न जाने कितनी ज्ञात अज्ञात बातें समेटे हुये इन बातों से अनभिज्ञ रहकर जीते है। देखा जाये तो जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक अवसर आते है जब हम इस देह को उसी समय स्मरण रखते है जब हम कोई विशेष उपलब्धि पाते है शेष समय हम ओर आप शरीर के साथ असंख्य संभावनाओं को लिए एक खुमारी में होते है जिसका हमे पता तक नहीं होता है। योग भोग में लगी यह देह पंच तत्व से निर्मित और पंच इंद्रियों के वशीभूत होकर जीने के अवसर देती भी है और जीवन के अवसर छीनकर नैराश्य में गिराती भी है। इन्द्रियाँ फिर उस देह को, उसके मन और हृदय को किसी बहुरुपदर्शक ,की मानिंद मोह माया के अनंत, सुन्दर समीकरणों और प्रस्तावो में उलझा देती है जिसमें शरीर के प्रति अशौच ओर उसके दोषमार्जन से बचाव कर उसकी सुचिता ओर शुभ्रता के अवसर खोकर उसके दुष्परिणामों से देह को बचाना मुश्किल होता है। देह के प्रति आसक्ति सभी को है किन्तु शौच और अशौच के प्रभाव से यह देह मुक्त नहीं होती, इसकी मुक्ति का एकमात्र उपाय हमारे ऋषि मुनियों के द्वारा धर्मसूत्रों में प्रतिपादित नियमों का पालन करना है ताकि अशौच के इन गंभीर दोषों को वैदिक पद्धति से निराकृत कर इस देह को पवित्र पावन रख अपना जीवन सभी प्रकार से आनंद ओर उल्लास से जी सके।
घरेलू विवाद से दहेज के झूठे मामलों में उलझते पुरुष
मनुष्य धर्म के साथ ही पैदा होता है, जीता है तथा उसके साथ ही मृत्यु को प्राप्त होता है। उसके बिना उसका जीवन अधूरा तथा संकटमस्त है। मनुष्यजीवन से यदि धर्म को पृथक कर दिया जाय तो मनुष्य में मनुष्यता ही नहीं बचेगी और उसका अन्य पशु आदि प्राणियोंसे भेद किस तरह किया जा सकेगा, यह उसके जन्म मृत्यु के अशौच संस्कारों से विचारणीय होगा। मनुष्य जब पैदा होता है उस समय अन्य प्राणियों की तरह प्राकृत व असंस्कृत स्थिति में ही पैदा होता है। फिर उस में संस्कार किये जाते हैं तब वह सस्कृत बनता है। तभी वह मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि कहलाने का वास्तविक अधिकारी बनता है। यह संस्कार ही धर्म है। संस्कारों को प्रत्येक मनुष्य जीना चाहता है। ऐसी स्थिति में कोई भी मनुष्य धर्मविमुख होने की इच्छा नहीं करता। फिर भी जनता इस समय धर्मविमुख क्यों होती जा रही है। यदि इसके कारण की गवेषणा की जाय तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि आजकल का मनुष्य समाज प्रत्येक बस्तु को विज्ञान व तर्क की कसौटी पर कस कर जानना चाहता है यदि उसे यह साधन उपलब्ध न हो तो उसकी धर्म और इन बातों के प्रति अश्रद्धा ओर विश्वास पैदा हो जाएगा।
प्रत्येक व्यक्ति में प्रधानतया शरीरात्मा, अन्तरात्मा, व विशुद्धात्मा इन तीन आत्माओं की सत्ता मानी गई है। इनको शरीर सत्व व चेतना तथा भूतात्मा, जीवात्मा क्षेत्रज्ञ भी कहते है । इन तीनों में विशुद्धात्मा सर्वथा विशुद्ध है, दोषरहित है, अतः उसके संस्कार की आवश्यकता नहीं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में भी क्षेत्रज्ञ को सर्वथा विशुद्ध, क्षेत्र के धर्मों से असंशपुष्ट बतलाया है। शेष दो शरीर व सत्व दोषयुक्त है अतएव असस्कृत है। अतः उनके संस्कार की उपेक्षा होती है। उनमें शरीर के दोषमार्जन व गुणाधान को प्रधान तथा आयुर्वेदशास्त्र बतलाया है। शरीर व सत्व के परस्पर संबंध होने एक के लिए संस्कार बतलाने वाला शास्त्र गौणतया दूसरे के भी संस्कारो का बोधन करता है। संस्कार के अन्तर्गत दोषमार्जन, गुणाधान और स्वत्वाधन ये तीन तत्व आते है। अतः सर्वप्रथम दोषमार्जन की आवश्यकता होती है। हर व्यक्ति में प्रज्ञा होती है पर वह प्रज्ञापराध के कारण आहार विहार आदि के लिए प्रयुक्त द्रव्यों के हीन योग, मिध्या योग व अतियोग से सत्त्व के भीतर जो अशुभरूप मल संचित होते हैं उन मलरूप दोषों को दूर करना ही दोषमार्जन है। दोषमार्जन ही शुद्धि संस्कार है।
मल पांच प्रकार के हैं अतः उनकी शुद्धि भी पांच प्रकार की है। शारीरिक मलमूत्राक्षि की शुद्धि? पहला-शैया, आसन, वसन, भोजन, पात्र आदि द्रव्यों की शुद्धि, दूसरा-सापिंडयादी संबंध के कारण एक दूसरे में संक्रान्त होने वाले जन्म मरण आदि नैमित्तिक अपवित्र एवं अपूर्वविशेष की शुद्धि, तीसरा-प्रज्ञाअपराध के कारण चारित्र्यदोष से पैदा होने वाले पाप की शुद्धि, चौथा-रज व तमोगुण के अधिकता से दूषित भावों कि शुद्धि एवं पांचवा- प्रधानतया सत्व अर्थात अंतरात्मा की शुद्धि धर्मशास्त्र का लक्ष्य है। अंतरात्मा की शुद्धि बिना शरीर व प्राणादि अवयवों की शुद्धि नहीं होता है। आशौच मनुष्यों में रहने वाला मलिन अतिशय हैं जिससे कि पिण्डदान, उदकदान व अध्ययन आदि कर्मों में व्यक्ति का अधिकार नहीं रहता है। संसर्गी पुरुष में एक अतिशय पैदा होता है वह अतिशय योनिसम्बन्ध व विध्यासम्बन्ध वालों में अतिशय शीघ्रता से और विशेषरूप से पैदा होता है यह अतिशय ही अशौच कहलाता है।
आशौच के चार भेद बताए है जिसमें अशौच के कारण जन्म अशौच, मृत्यु आशौच, उत्तरक्रिया अशौच और दोष अशौच प्रमुख है। आशौच दो प्रकार से वस्तुसदा अशौच और वासनाशौच भी कहलाता है जिसमें अधिष्ठान भेद आश्रय भेद का आशौच तीन प्रकार का कहा गया है स्पर्शा शौच, कर्माश शौच और मंगला आशौच। शरीर मात्र का निषेध स्पर्शा आशौच कहलाता है जिसका आश्रय बाहरी शरीर है और जहां पर विहित वैदिक कर्मों का निषेध होता है वह कर्मा शौच होता है और आश्रय अंत शरीर अंदरूनी अंतकरण शरीर होता है और जिस आशौच में विवाह, उपनयन, कन्यादान आदि मांगलिक कार्यों का निषेध होता है वह मंगलाशौच कहलाता है जिसका आश्रय पुत्रादि का स्वत्वमात्र है।
जन्म ओर मृत्यु पर अशौच होता है । जन्म के समय पुत्रोत्पत्ति से पूर्व गर्भस्य पुत्र का एक नाडी द्वारा मातृगर्भ से सम्बन्ध रहने के बाद उत्पत्ति से पूर्व पुत्र का मातृशरीरस्थ शरीराग्निरूप चेतना से भी सम्बन्ध रखता है किन्तु उसके जन्म/उत्पत्ति के बाद नाडीछेदन कर के मातृचेतना का सम्बन्ध पुत्र से हटा दिया जाता है। इस तरह उत्पत्तिकाल में चेतना के अधिष्ठानभूत धातुपंच का चेतना घातु से पृथक होना ही आशौच है। यह अशौच साक्षात् संबन्ध से माता तथा पुत्र में रहता है, क्यों कि पुत्र के धातुपश्वक का मातृचेतना से तथा माता के धातुपश्वक पुत्रचेतना से वियोग होता है। किन्तु परम्परा संबंध से यह आशौच माता के तथा पुत्रके सम्बन्धियों में भी संक्रान्त होता है। मरणकाल में भी मृतपुरुष के धातुपञ्चक का चेतना से सम्बन्ध नष्ट होजाता है अतः बहां भी वह चेतना के अधिष्ठानभूत धातुपञ्चक का चेतना से पृथग्भावरूप आशौच मृतपुरुष के शरीर में साक्षात् तथा तत्संसर्गियों में परम्परया संक्रान्त होता है।
यह अशौच सम्बन्ध रूप सूत्र के द्वारा तत्सम्बद्ध सम्बन्धियों में भी संक्रान्त होता है। उपर्युक्त रीति से चेतनारहित भूतविकार तथा चेतना के अपकर्षकधर्मबाला पदार्थ आशौच का प्रादुर्भाव स्थान है। अर्थात् चेतनारहित भूतविकारों में चेतना के अपकर्षक धर्मवाले पदार्थ में आशौच का प्रादुर्भात्र होता है। अतः ये ही अशौच के उत्पत्तिस्थान है। आशौच जिन सम्बन्धों को लेकर दूसरे में संक्रामक होता है वे योनि संबद्ध, विध्यासम्बन्ध यज्ञसंबंध व अन्य प्रमुख है जिंसपर जितना लिखा जाए उतना कम है। चूंकि इस विषय पर शौच और आशौच पर किए जाने वाले ओर न किए जाने वाले कार्यों पर अगले लेख में विस्तार से उल्लेख किया जाएगा ताकि पाठक इससे परिचित हो सके।