लखनऊ प्राचीन इमारतों के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन इनमें से कई इमारतें स्वतंत्रता आंदोलन की जंग की गवाह भी है। चाहे वह 1857 का गदर हो, रेजीडेंसी की घेराबंदी हो, बेगम हजरत महल का नेतृत्व हो या फिर काकोरी ट्रेन एक्शन जैसी ऐतिहासिक घटना।
आजादी के संग्राम में लखनऊ ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और पूरे देश को प्रेरित करने की भूमिका निभाई। आजादी के अमृत महोत्सव के सन्दर्भ में लखनऊ में स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी प्रमुख घटनाओं में 1857 के गदर की पृष्ठभूमि अधिक प्रासंगिक है। हालांकि देश में अंग्रेज शासन के खिलाफ बगावत की चिंगारी 10 मई 1857 को मेरठ के विद्रोह में भड़की थी, लेकिन उसके काफी पहले ही लखनऊ में इसकी पृष्ठभूमि तैयार होने लगी थी।
11 फरवरी 1856 को अवध राज्य को अधिग्रहीत करने और वाजिद अली शाह को गद्दी छोड़ने के लिए विवश करने के बाद से ही लोगों में अंग्रेज शासकों के प्रति नाराजगी बढ़ने लगी थी। लोगों को यह बात पसंद नहीं आई कि उनके धार्मिक स्थलों, नवाबों के महलों पर अंग्रेज फौजें तैनात करते जा रहे हैं।
जमींदार और तालुकेदार इस बात से भयभीत थे कि उनकी जमीन भी छीनी जा सकती है। व्यापारियों पर नए-नए करों का भार बढ़ता जा रहा था। अंग्रेज शासक भी इस असंतोष को महसूस करने लगे थे। मेरठ में बगावत की चिंगारी भड़कने और दिल्ली में क्रांतिकारियों का कब्जा होने की खबरों ने लखनऊ में इस असंतोष को हवा दी और यहां भी विद्रोह भड़क उठा। रेजीडेंसी, चिनहट, आलमबाग, ला-मार्टीनियर, सिकंदराबाद जैसी जगहों पर घमाशान युद्ध हुए। 30 जून 1857 में विद्रोही सैनिकों ने हेनरी लॅारेन्स की फौज को धूल चटा दी और उन्हें वापस जाना पड़ा।
रेजीडेंसी की घेराबंदी
चिनहट में विद्रोही सैनिकों से मिली शिकस्त के बाद अंग्रेज सैनिकों और उनके परिवार के लोगों ने रेजीडेंसी में शरण ली थी। कई दूसरे क्षेत्रों के अंग्रेज भी यहां आकर छिप गए थे, लेकिन विद्रोही सैनिकों ने वहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा और बड़ी संख्या में वहां पहुंचकर उसे रेजीडेंसी को घेर लिया और जमकर गोलीबारी की। इतिहास साक्षी है कि एक और दो जुलाई को जमकर हमले हुए। विद्रोही सैनिकों के हमलों में अवध के चीफ कमिश्नर हेनरी लॉरेन्स की मौत हो गई।
राजकीय अभिलेखागार के अभिलेखों के अनुसार, ‘30 जून 1857 को चिनहट की हार के एक दिन बाद अंग्रेजों ने प्राणरक्षा हेतु रेजीडेंसी में शरण ली। इनमें करीब 130 अफसर, 700 देशी सिपाही, 150 गैर सैनिक, 237 महिलाएं, 260 बच्चे, 50 स्कूली छात्र, 727 यूरोपियन एवं देशी असैनिक, इस प्रकार कुल मिलाकर 2994 लोग थे।
क्रांतिकारियों द्वारा की गई गोलीबारी में हेनरी लॉरेन्स मारा गया। 30 जून से 25 सितंबर तक 86 दिन का घेरा चलता रहा। 25 सितंबर को हैवलॉक और आउटरम रेजीडेंसी तक पहुंचे परंतु अन्तत: सर कॉलिन कैम्पबेल ने 25 नवंबर 1857 को रेजीडेंसी में घिरे अंग्रेजों को मुक्त कराया।’
बेगम हजरत महल का नेतृत्व
वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल ने वीरता के साथ स्वतंत्रता के आंदोलन में संघर्ष किया और अंग्रेजों का मुकाबला किया।
क्रांतिकारियों को जब शाही खानदान का कोई वारीश न मिला तो उन्होंने पांच जुलाई 1857 को वाजिद अली शाह के बेटे मिर्जा बिरजिस कद्र को गद्दी पर बैठा दिया और मां हजरत महल सल्तनत की मुख्तार बन गई।
उन्होंने करीब आठ महीने शासन किया और फिर अंग्रेज सेना से जंग भी लड़ी। इस दौरान क्रांतिकारियों से जगह जगह हुए संघर्ष में जनरल जेम्स नील, मेजर हडसन जैसे अंग्रेज अधिकारियों की मौत हुई।
रौलेट बिल का व्यापक विरोध
“रौलेट बिल” के विरोध में लखनऊ में 1919 में हुई सभा भी ऐतिहासिक थी। यह एक ऐसा काला कानून था, जिसमें बिना किसी सुनवाई के ही सरकार को किसी को भी मुजरिम ठहराने तथा सजा देने का अधिकार दिया गया था। राजकीय अभिलेखागार के अभिलेखों के अनुसार, “एक काला कानून रौलेट बिल के नाम से आया था। इसके विरुद्ध लखनऊ में सभा का आयोजन नवाब जुलकदर जंग की अध्यक्षता में किया गया था, जिसमें जफर उल मुल्क, गोकरण नाथ मिश्र, हरकरण नाथ मिश्र, फिरंगी महल के मौलवी अयूब, एपी सेन सहित 15 हजार लोगों ने भाग लिया।”
स्वतंत्रता आंदोलन की महत्वपूर्ण घटना: काकोरी ट्रेन एक्शन
स्वतंत्रता आंदोलन की महत्वपूर्ण घटना रहा “काकोरी ट्रेन एक्शन।” यह घटना लखनऊ के निकट काकोरी में हुआ। इस घटना ने अंग्रेजों की बुरी तरह डरा दिया। इस योजना के लिए शाहजहांपुर में सात अगस्त 1925 को हुई बैठक में चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खान, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, शचीद्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त सहित कई क्रांतिकारियों ने शामिल होकर व्यापक योजना बनाई थी और तय किया गया कि सहारनपुर से लखनऊ आने वाली ‘8 डाउन पैसेंजर ट्रेन’ से ले जाए जाने वाले अंग्रेज सरकार के खजाने को लूट लिया जाय।
आठ अगस्त 1925 को असफल होने के बाद क्रांतिकारियों ने इसे नौ अगस्त को सफलतापूर्वक अंजाम दिया। इस घटना में जर्मनी में बने माउजर पिस्तौल का प्रयोग किया गया था। क्रांतिकारियों को लूट में ‘साढ़े चार हजार रुपये’ से अधिक की राशि मिली थी। बौखलाए अंग्रेजों ने व्यापक अभियान चलाकर 40 क्रांतिकारी पकड़े। चन्द्रशेखर आजाद फरार रहे और इलाहाबाद में शहीद हुए। बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खान, रोशन सिंह और राजेंद्र नाथ लाहिड़ी को फांसी शचीद्र नाथ सान्याल, मुकुंदी लाल, गोविद चरण, योगेशचंद्र चटर्जी और शचीद्र नाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा हुई। मन्मथनाथ गुप्त को 14 वर्ष तथा कई अन्य क्रांतिकारियों को तीन से 10 वर्ष तक की सजा हुई।
लखनऊ का आंदोलन और महात्मा गांधी
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी लखनऊ में कई बार आए और स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरित किया। 1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच ‘लखनऊ समझौता’ हुआ। 28 दिसंबर 1916 को हुए कांग्रेस के अधिवेशन में गांधीजी पहली बार आए और चारबाग पर उनकी जवाहर लाल नेहरू से मुलाकात हुई। उन्होंने 1920 और 1921 में भी यहां सभाएं कीं। लखनऊ में साइमन कमीशन का व्यापक विरोध भी हुआ। 1928 में “साइमन गो बैक” के नारे चारो ओर लगने लगे। जवाहर लाल नेहरू ने इस दौरान लखनऊ विश्वविद्यालय में पर्चा भी वितरित किया था। विरोध करने वालों की संख्या इतनी अधिक थी कि ‘कैम्प जेल’ बनाकर उनमें लोगों को भरा जाने लगा। 25 जून 1934 को गांधी जी के आगमन पर अमीनाबाद में झंडे वाले पार्क में तिरंगा फहरा दिया गया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भी लखनऊ के लोगों की भागीदारी रही।
दुर्गा भाभी का योगदान
आजादी के अमृत महोत्सव में लखनऊ के योगदान के साथ यदि दुर्गा भाभी की चर्चा न की जाये तो कुछ अधूरा सा लगेगा। दुर्गा भाभी भारत के स्वतंत्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों की प्रमुख सहयोगी थीं। १८ दिसम्बर १९२८ को भगत सिंह ने इन्ही दुर्गा भाभी के साथ वेश बदल कर कलकत्ता-मेल से यात्रा की थी। दुर्गाभाभी क्रांतिकारी भगवती चरण बोहरा की धर्मपत्नी थीं।
संक्षिप्त परिचय : दुर्गा भाभी का जन्म सात अक्टूबर 1907 को शहजादपुर ग्राम अब जिला कौशाम्बी में पंडित बांके बिहारी के यहां हुआ। इनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे और इनके बाबा महेश प्रसाद भट्ट जालौन जिला में थानेदार के पद पर तैनात थे। इनके दादा पं॰ शिवशंकर शहजादपुर में जमींदार थे जो बचपन से ही दुर्गा भाभी की सभी बातों को पूर्ण किया करते थे।
दस वर्ष की अल्प आयु में ही इनका विवाह लाहौर के भगवती चरण बोहरा के साथ हो गया। इनके ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊंचे पद पर तैनात थे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘राय साहब’ का खिताब दिया था। भगवती चरण बोहरा राय साहब का पुत्र होने के बावजूद अंग्रेजों की दासता से देश को मुक्त कराना चाहते थे। वे क्रांतिकारी संगठन के प्रचार सचिव थे।
वर्ष 1920 में पिताजी की मृत्यु के पश्चात भगवती चरण वोहरा खुलकर क्रांति में आ गए और उनकी पत्नी दुर्गा भाभी ने भी पूर्ण रूप से सहयोग किया। सन् 1923 में भगवती चरण वोहरा ने नेशनल कालेज से बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की और दुर्गा भाभी ने प्रभाकर की डिग्री हासिल की। दुर्गा भाभी का मायका व ससुराल दोनों पक्ष संपन्न था। ससुर शिवचरण जी ने दुर्गा भाभी को 40 हजार व पिता बांके बिहारी ने पांच हजार रुपये संकट के दिनों में काम आने के लिए दिए थे, लेकिन इस दंपती ने इन पैसों का उपयोग क्रांतिकारियों के साथ मिलकर देश को आजाद कराने में उपयोग किया। मार्च 1926 में भगवती चरण वोहरा व भगत सिंह ने संयुक्त रूप से नौजवान भारत सभा का प्रारूप तैयार किया और रामचंद्र कपूर के साथ मिलकर इसकी स्थापना की। सैकड़ों नौजवानों ने देश को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों को बलिदान वेदी पर चढ़ाने की शपथ ली। भगत सिंह व भगवती चरण वोहरा सहित अन्य सदस्यों ने अपने रक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए। 28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय वोहराजी शहीद हो गए। उनके शहीद होने के बावजूद दुर्गा भाभी साथी क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय रहीं।
9 अक्टूबर 1930 को दुर्गा भाभी ने गवर्नर हैली पर गोली चला दी थी, जिसमें गवर्नर हैली तो बच गया लेकिन सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी दुर्गा भाभी ने गोली मारी थी, जिसके परिणाम स्वरूप अंग्रेज पुलिस इनके पीछे पड़ गई। मुंबई के एक फ्लैट से दुर्गा भाभी व साथी यशपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। दुर्गा भाभी का काम साथी क्रांतिकारियों के लिए राजस्थान से पिस्तौल लाना व ले जाना था। चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से लड़ते वक्त जिस पिस्तौल से खुद को गोली मारी थी उसे दुर्गा भाभी ने ही लाकर उनको दी थी। उस समय भी दुर्गा भाभी उनके साथ ही थीं। उन्होंने पिस्तौल चलाने की ट्रेनिंग लाहौर व कानपुर में ली थी।
भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त जब केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने जाने लगे तो दुर्गा भाभी व सुशीला मोहन ने अपनी बांहें काट कर अपने रक्त से दोनों लोगों को तिलक लगाकर विदा किया था। असेंबली में बम फेंकने के बाद इन लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया तथा फांसी दे दी गई।
साथी क्रांतिकारियों के शहीद हो जाने के बाद दुर्गा भाभी एकदम अकेली पड़ गईं। वह अपने पांच वर्षीय पुत्र शचींद्र को शिक्षा दिलाने की व्यवस्था करने के उद्देश्य से वह साहस कर दिल्ली चली गईं। जहां पर पुलिस उन्हें बराबर परेशान करती रही। दुर्गा भाभी उसके बाद दिल्ली से लाहौर चली गईं, जहां पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और तीन वर्ष तक नजरबंद रखा। फरारी, गिरफ्तारी व रिहाई का यह सिलसिला 1931 से 1935 तक चलता रहा। अंत में लाहौर से जिलाबदर किए जाने के बाद 1935 में गाजियाबाद में ‘प्यारेलाल कन्या विद्यालय’ में अध्यापिका की नौकरी करने लगीं और कुछ समय बाद पुन: दिल्ली चली गई और कांग्रेस में काम करने लगीं। कांग्रेस का जीवन रास न आने के कारण उन्होंने 1937 में छोड़ दिया। 1939 में इन्होंने मद्रास जाकर मारिया मांटेसरी से मांटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लिया तथा 1940 में लखनऊ में ‘कैंट रोड के पुराना क़िला’ स्थित एक निजी मकान में सिर्फ पांच बच्चों के साथ मांटेसरी विद्यालय खोला। आज भी यह विद्यालय लखनऊ मांटेसरी इंटर कालेज के नाम से जाना जाता है। 14 अक्टूबर 1999 को गाजियाबाद में उन्होंने सबसे नाता तोड़ते हुए इस दुनिया को अलविदा कह दिया।