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अपनी बोली अपना गांव

रिपोर्ट-डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

अभी तक गांव से शहरों की तरफ पलायन होता था,कोरोना आपदा ने पहली बार यह परिदृश्य बदल दिया है। पहली बार महानगरों से लाखों की संख्या में लोग गांव पहुंचे है। इसके लिए उन्होंने कष्ट उठाया, जोखिम लिया, लेकिन विचलित नहीं हुए। गांव पहुंच कर इन्हें अपनी बोली मिली, अपना परिवेश मिला।

साहित्य परिषद् कानपुर बुन्देलखण्ड प्रान्त की वेबिनार में अपनी वोली अपना गाँव पर विचार विमर्श किया गया। गांव पहुंचे लोगों को सरकार रोजगार देने की कार्ययोजना स्थानीय स्तर पर बना रही है। लेकिन साहित्यकारों के लिए यह बोली, प्रकृति और जमीन से जुड़ने की अनुभूति का विषय है।

साहित्य परिषद के अनेक कवियों ने इस पर भावपूर्ण रचना भी की है। बेबीनार में साहित्यकार पवन पुत्र बादल सहित विद्वत वक्ताओं ने अपनी बोली अपना गांव विषय पर महत्वपूर्ण वक्तव्य दिए। भारत गांवों का देश है। यहां की जीवनशैली को अब विश्व स्तर पर स्वीकार्यता मिल रही है।

इसमें प्रकृति से निकटता का भाव समाहित है। प्रकृति के संरक्षण व संवर्धन का सन्देश है। कृषि के साथ पशुपालन का समन्वय है। इसी के माध्यम से सम्पूर्ण पौष्टिकता मिलती है। परस्पर सहयोग की भावना है। यह व्यक्ति के मानसिक तनाव को कम करने में सहायक होती है। महानगरों की तरह भीड़ में भी कोई अकेला नहीं है। इस विषय पर कानपुर बुन्देलखण्ड प्रान्त की सार्थक पहल रही। इसमें प्रह्लाद जी,डॉ महेश पाण्डे व समस्त पदाधिकारियों और कार्यकर्त्ताओं का सहयोग रहा।

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