अयोध्या के भव्य श्रीराम मंदिर में श्री रामलला के प्राण प्रतिष्ठा के लिए तैयारियां जोर-शोर से पूरी की जा रही हैं। सात हजार विशेष मेहमान और चार हजार संतों की मौजूदगी में पौष शुक्ल पक्ष द्वादशी यानी 22 जनवरी 2023 को रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा होगी। इस मौके पर विश्व के 50 देशों और सभी राज्यों से करीब 20 हजार अतिथि भी अयोध्या में मौजूद रहेंगे। प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के लिए 20 दिसंबर से अक्षत वितरण अभियान शुरू किया गया है। न्योते के लिए विश्व हिंदू परिषद ने आमंत्रण गीत भी तैयार किया है।
रघुवरजी के अवधपुरी में प्राण प्रतिष्ठा होना है, निमंत्रण को स्वीकार करो, अब सबको अयोध्या चलना है। जय बजरंगी, जय हनुमान। वंदे मातरम, जय श्रीराम। श्रीराम जय राम, जय-जय राम। वंदे मातरम, जय श्री राम। इस गीत में राम मंदिर के लिए दिए गए बलिदान और संघर्ष की बातें भी कही गईं हैं। विहिप कार्यकर्ता अक्षत वितरण के साथ लोगों को रामलला के दर्शन का न्योता भी दे रहे हैं, मगर श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने 25 जनवरी के बाद लोगों को अयोध्या आने की सलाह दी है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इससे पहले सात किलो चांदी और एक किलो सोने से बनी प्रभु की चरण पादुकाएं 19 जनवरी को अयोध्या पहुंच जाएंगी।
श्रीरामचंद्र जी के अयोध्या आगमन का अद्भुत चित्रण
सुमन बृष्टि नभ संकुल, भवन चले सुखकंद। चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद।।
कंचन कलस बिचित्र संवारे। सबहिं धरे सजि निज-निज द्वारे।।
बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू।।
बीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराईं।।
नाना भांति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे।।
जहं तहं नारि निछावरि करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहिं।।
कंचन थार आरतीं नाना। जुबतिं सजें करहिं सुभ गाना।।
करहिं आरती आरतिहर के। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर के।।
पुर सोभा संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना।।
तेउ यह चरित देखि ठगि रहहिं । उमा तासु गुन नर किमि कहहीं।।
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत।।
सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा।।
नारि कुमुदिनीं अवध सर, रघुपति बिरह दिनेस। अस्त भएं बिगसत भईं, निरखि राम राकेश।।
बावजूद इसके श्री रामलला के मंदिर का इतिहास अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुए है। इतिहास से अच्छा शिक्षक कोई दूसरा हो नहीं सकता। इतिहास सिर्फ अपने में घटनाओं को समेटे नहीं होता है, बल्कि आप इन घटनाओं से भी बहुत कुछ सीख भी सकते हैं। आइये समझते हैं अयोध्या और श्रीरामलला के ऐतिहासिक घटनाओं के बारे में।
मुगलों के खिलाफ 500 सालों में लड़ी गईं 76 लड़ाईयां
आस्था के मसले आसानी से हल नहीं होते खासकर जब मामला दो समुदायों को आमने-सामने ला देने का हो। अयोध्या विवाद एक ऐसा ही प्रसंग है, जो 500 सालों के बाद अब अंजाम तक पहुंच सका है। आज उस अयोध्या की कल्पना की जा सकती है, जिसने 491 वर्षों से एक लंबा विवाद झेला है। यह सामान्य विवाद नहीं था बल्कि दो समुदायों की आस्था को लेकर टकराव का कारण था।
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बताया जाता है कि बाबर के आदेश पर उसके सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में बने राम मंदिर को 21 मार्च 1528 को तोप से ध्वस्त कराया था। वैसे तो यह मसला काफी पहले हल हो जाना चाहिए था, लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि बात बिगड़ती ही गई। प्रयास अनेक किए गए, लेकिन कोई भी पक्ष पूरे से कम पर राजी नहीं हुआ।
अयोध्या का सफर
यह कहानी है भारतीय जन मानस में आस्था के केंद्र श्रीराम के जन्मभूमि की। इतिहास बताता है कि भगवान श्रीराम के स्वधाम गमन के बाद सरयू में आई भीषण बाढ़ से अयोध्या की भव्य विरासत को काफी क्षति पहुंची थी। भगवान राम के पुत्र कुश ने अयोध्या की विरासत नए सिरे से सहेजने का प्रयास किया और राम जन्मभूमि पर विशाल मंदिर का निर्माण कराया। युगों के सफर में यह मंदिर और अयोध्या जीर्ण-शीर्ण हुई, तो विक्रमादित्य नाम के शासक ने इसका उद्धार किया। मीर बाकी ने 1528 में जिस मंदिर को तोड़ा था, उसे 57 ई.पू. में युग प्रवर्तक राजाधिराज की उपाधि ग्रहण करने वाले विक्रमादित्य ने ही निर्मित कराया था।
डेढ़ सहश्राब्दि से भी अधिक समय के सफर में यह मंदिर हिंदुओं की आस्था-अस्मिता का शीर्षस्थ केंद्र रहा है। इस पर मध्य काल की शुरुआत से ही संकट मंडराने लगा था। महमूद गजनवी के भांजे सैयद सालार तुर्क ने सत्ता के विस्तार में अयोध्या के क्षेत्र को भी शामिल करने का प्रयास किया। हालांकि 1033 ई. में राजा सुहेलदेव ने बहराइच में उसे मार कर इस आतंक से मुक्ति दिलाई थी। 1440 ई. में जौनपुर के शर्की शासक महमूद शाह के शासन क्षेत्र में अयोध्या के भी शामिल होने का उल्लेख मिलता है। इसके बावजूद अयोध्या के अनुरागियों की रगों में राम मंदिर ध्वंस के प्रतिकार की ताकत बची थी।
विवाद को लेकर लड़े गए 76 युद्ध
पारंपरिक स्रोतों से प्राप्त इतिहास के अनुसार राम मंदिर की वापसी के लिए 76 युद्ध लड़े गए। एकाध बार ऐसा भी हुआ, जब विवादित स्थल पर मंदिर के दावेदार राजाओं-लड़ाकों ने कुछ समय के लिए उसे हासिल भी किया पर यह स्थाई नहीं रह सका।
जिस वर्ष मंदिर तोड़ा गया, उसी वर्ष निकट की भीटी रियासत के राजा महताब सिंह, हंसवर रियासत के राजा रणविजय सिंह, रानी जयराज कुंवरि, राजगुरु पं. देवीदीन पांडेय आदि के नेतृत्व में मंदिर की मुक्ति के लिए जवाबी सैन्य अभियान छेड़ा गया। शाही सेना को उन्होंने विचलित जरूर किया पर विजय नहीं पा सके। 1530 से 1556 ई. के मध्य हुमायूं एवं शेरशाह के शासनकाल में 10 युद्धों का उल्लेख मिलता है। हिंदुओं की ओर से इन युद्धों का नेतृत्व हंसवर की रानी जयराज कुंवरि एवं स्वामी महेशानंद ने किया। रानी “स्त्री सेना” का और महेशानंद “साधु सेना” का नेतृत्व करते थे। इन युद्धों की प्रबलता का अंदाजा रानी और महेशानंद के साथ उनके सैनिकों की शहादत से लगाया जा सकता है। 1556 से 1605 ई. के बीच अकबर के शासनकाल में 20 युद्धों का जिक्र मिलता है। इन युद्धों में अयोध्या के ही संत बलरामाचार्य बराबर सेनापति के रूप में लड़ते रहे और अंत में वीरगति प्राप्त की। इन युद्धों का परिणाम रहा कि अकबर को इस ओर ध्यान देने के लिए विवश होना पड़ा।
अकेले औरंगजेब ने किया 30 बार युद्ध
औरंगजेब ने बीरबल और टोडरमल की सलाह से बाबरी मस्जिद के सामने चबूतरे पर राम मंदिर बनाने की इजाजत दी। अकबर के ही वंशज औरंगजेब की नीतियां कट्टरवादी थीं और इसका मंदिर-मस्जिद विवाद पर भी असर पड़ा। 1658 से 1707 ई. के मध्य उसके शासनकाल में राम मंदिर के लिए 30 बार युद्ध हुए। इन युद्धों का नेतृत्व बाबा वैष्णवदास, कुंवर गोपाल सिंह, ठाकुर जगदंबा सिंह आदि ने किया। माना जाता है कि इन युद्धों में दशम गुरु गोबिंद सिंह जी ने निहंगों को भी राम मंदिर के मुक्ति संघर्ष के लिए भेजा था और आखिरी युद्ध को छोड़ कर बाकी में हिंदुओं को कामयाबी भी मिली थी।
ऐसे में समझा जा सकता है कि इस दौर में मंदिर समर्थकों का कुछ समय के लिए राम जन्मभूमि पर कब्जा भी रहा होगा और औरंगजेब ने पूरी ताकत से उसे छुड़वाया होगा। इतिहास की एक अन्य धारा का तो यहां तक कहना है कि राम मंदिर बाबर के नहीं, औरंगजेब के आदेश पर ध्वस्त किया गया और उसके ही आदेश से अयोध्या के कुछ और प्रमुख मंदिर तोड़े गए। 18वीं शताब्दी के मध्य तक मुगल सत्ता का तो पतन हो गया पर मंदिर के लिए संघर्ष बरकरार था। हालांकि, अवध के नवाबों के समय अयोध्या को कुछ हद तक सांस्कृतिक-धार्मिक स्वायत्तता हासिल हुई। बार-बार के युद्धों से तंग अवध के नवाब सआदत अली खां ने अकबर की भांति हिंदुओं और मुस्लिमों को साथ-साथ पूजन एवं नमाज की अनुमति दी। इसके बावजूद संघर्ष नहीं थमा।
अयोध्या का इतिहास
21 मार्च 1528: बाबर के आदेश पर उसके सेनापति मीर बाकी ने मंदिर को तोप से ध्वस्त कराया था। 18वीं शताब्दी के मध्य तक मुगल सत्ता का तो पतन हो गया पर मंदिर के लिए संघर्ष जारी रहा। 76 युद्ध लड़े गए राम मंदिर की वापसी के लिए, हालांकि स्थाई रूप से वापस पाने में रहे असफल। 1658 से 1707 ई. के मध्य औरंगजेब के शासनकाल में राम मंदिर के लिए 30 बार युद्ध हुए। जिसका नेतृत्व
बाबा वैष्णवदास, कुं गोपाल सिंह आदि ने किया।
श्रीराम जन्मभूमि की रक्षार्थ जब गुरु गोविंद सिंह जी की सेना का हुआ मुगलों से भयंकर युद्ध
अयोध्या में मौजूद गुरुद्वारा ब्रह्मकुंड साहिब के दर्शन करने के लिए देश और दुनिया के कोने-कोने से सिख श्रद्धालु आते हैं। कहते हैं कि सिख समुदाय के पहले गुरु नानकदेवजी, 9वें गुरु तेगबहादुरजी और 10वें गुरु गोविंद सिंहजी ने यहां गुरद्वारा ब्रह्मकुंड में ध्यान किया था। पौराणिक कथाओं के मुताबिक इसी जगह के पास भगवान ब्रह्मा ने 5,000 वर्ष तक तपस्या की थी।
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कहते हैं कि श्रीराम की नगरी अयोध्या में गुरु गोविंदसिंहजी के चरण पड़े थे तब संभवत: उनकी उम्र 6 वर्ष की थी। कहते हैं कि उन्होंने यहां राम जन्मभूमि के दर्शन करने के दौरान बंदरों को चने खिलाए थे। गुरुद्वारे में रखी एक किताब के अनुसार मां गुजरीदेवी एवं मामा कृपाल सिंह के साथ पटना से आनंदपुर जाते हुए दशम् गुरु गोविंद सिंह जी ने रामनगरी में धूनी रमाई थी और अयोध्या प्रवास के दौरान उन्होंने मां एवं मामा के साथ रामलला का दर्शन भी किया था।
गुरुद्वारा ब्रह्मकुंड में मौजूद एक ओर जहां गुरु गोविंद सिंह जी के अयोध्या आने की कहानियों से जुड़ी तस्वीरें हैं तो दूसरी ओर उनकी निहंग सेना के वे हथियार भी मौजूद हैं जिनके बल पर उन्होंने मुगलों की सेना से राम जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध किया था। कहते हैं कि राम जन्मभूमि की रक्षा के लिए यहां गुरु गोविंद सिंह जी की निहंग सेना से मुगलों की शाही सेना का भीषण युद्ध हुआ था जिसमें मुगलों की सेना को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था। उस वक्त दिल्ली और आगरा पर औरंगजेब का शासन था। इस युद्ध में गुरु गोविंद सिंह जी की निहंग सेना को चिमटाधारी साधुओं का साथ मिला था। कहते हैं कि मुगलों की शाही सेना के हमले की खबर जैसे ही चिमटाधारी साधु बाबा वैष्णवदास को लगी तो उन्होंने गुरु गोविंद सिंह जी से मदद मांगी और गुरु गोविंदसिंह जी ने तुरंत ही अपनी सेना भेज दी थी।