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ज्ञान रूपी गंगा में गोता लगाने से मिलेगी मुक्ति- आनंदमूर्ति गुरू माँ

महाकुम्भ नगर। आचार्य शंकर सांस्कृतिक एकता न्यास, मध्यप्रदेश द्वारा एकात्म धाम में तीसरे दिन मंगलवार को ऋषि चैतन्य आश्रम की प्रमुख आनंदमूर्ति गुरू माँ ने आचार्य शंकर विरचित ‘दृग्-दृश्य विवेक’ पर प्रवचन दिए, इस अवसर पर साधु संतो सहित हजारों की संख्या में देश-विदेश के श्रोतागण उपस्थित रहे।

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ज्ञान रूपी गंगा में गोता लगाने से मिलेगी मुक्ति- आनंदमूर्ति गुरू माँ

वेदांत का अध्ययन और अध्यापन केवल वही गुरु कर सकता है, जो श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ हो, ज्ञान और अनुभव से परिपूर्ण हो तथा सत्यनिष्ठ हो। गुरु में वैराग्य और आत्मज्ञान का होना आवश्यक है। शरीर को जब ‘मैं‘ मानते है तो भय होता है, भय का कारण अज्ञान है, सदगुरू के साथ सत्संग करने से ही ज्ञान संभव है। हम आत्मस्वरुप ही है, यह गुरु ही स्मरण कराता है।

उन्होंने वेदांत के दृष्टिकोण से कहा कि राम वह हैं, जो सर्वव्यापी, अनादि और अनंत ब्रह्म हैं। वहीं सिया माया का प्रतीक हैं। राम और सिया के माध्यम से जीवन के गूढ़ सत्य को समझाया गया है—राम वह शाश्वत सत्य हैं, जो परिवर्तन से परे है, और सिया वह माया है, जो सृजन का आधार है। यह अद्वैत का संदेश देता है कि ब्रह्म और माया एक ही सत्य के विभिन्न पहलू हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस से उदहारण देते हुए कहा कि..

एक अनीह अरूप अनामा।अज सच्चिदानंद पर धामा।।
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना।तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥

वेदांत यह स्पष्ट करता है कि मन का कोई जन्म या मरण नहीं है। यह अनादि है—अर्थात् इसकी उत्पत्ति का कोई प्रारंभ नहीं। मन स्थूल शरीर के साथ नष्ट नहीं होता, बल्कि यह अपने कर्मों और वासनाओं के अनुसार यात्रा करता है।

जो व्यक्ति अपनी इच्छाओं और वासनाओं के पाश में बंधा हुआ है, उसे ही पशु कहा जाता है। यह लिप्सा मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप से दूर ले जाती है। वेदांत का उद्देश्य इन बंधनों से मुक्ति दिलाकर आत्मज्ञान की ओर ले जाना है।

चित्त की तुलना चित्रगुप्त से करते हुए कहा यह प्रतीक है हमारे कर्मों के फल का, जो ग्लानि, अपराधबोध और मानसिक अशांति के रूप में हमें दंडित करता है। आत्मज्ञान से ही शांति और संतोष संभव है। कार्यक्रम में चिन्मय मिशन चेन्नई के आचार्य स्वामी मित्रानंद सरस्वती, स्वामी अनुकूलानंद सरस्वती, स्वामी भूमानंद सरस्वती सहित हजारों की संख्या में श्रोता उपस्थित रहे।

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