पूर्व केंद्रीय मंत्री और राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया पशुपति कुमार पारस ने एनडीए का साथ छोड़ने का एलान कर दिया है। इतना ही नहीं पशुपति ने महागठबंधन में भी जगह न बनती देख, बिहार विधानसभा चुनाव में सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारने की भी बात कही है। पारस कुछ समय पहले तक भाजपा के लिए बेहद अहम सहयोगी के तौर पर देखे जाते थे। वजह थी रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा), जिस पर बडे़ भाई के निधन के बाद पशुपति का ही सबसे ज्यादा प्रभाव था। पार्टी जब दो फाड़ हुई तो भजीते चिराग को छोड़कर अन्य सभी सांसद पारस के साथ चले गए थे। हालांकि, 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद चीजें पूरी तरह बदल गईं। अब पारस खाली हाथ रह गए हैं।
कौन हैं राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख पशुपति पारस?
पशुपति पारस की एक पहचान यह है कि वह लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के संस्थापक रहे दिवंगत रामविलास पासवान के भाई हैं।
1977 में पशुपति पारस ने चुनावी राजनीति में कदम रखा। आपतकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में रामविलास पासवान हाजीपुर लोकसभा सीट से जीतकर सांसद बने। इसके बाद बिहार में नए सिरे से विधानसभा के चुनाव हुए। इस चुनाव में अलौली सीट से पहली बार चुनाव लड़े और जीते। अलौली वो सीट थी जहां से रामविलास पासवान ने चुनावी राजनीति में कदम रखा था। हालांकि, पशुपति को भाई की विरासत बचाने में सफलता 1980 में भी नहीं मिली थी। दरअसल, तब जनता पार्टी (सेक्युलर) के टिकट पर चुनाव लड़ रहे पशुपति को हार का सामना करना पड़ा था। कांग्रेस (आई) के मिश्री सदा से वापस इस सीट पर कब्जा किया और पशुपति पारस को 9,440 वोट से हरा दिया।
पशुपति पारस ने इसके बाद 1985 में विधानसभा में वापसी की और फिर 1990, 1995, 2000, फरवरी 2005 और अक्तूबर 2005 के विधानसभा चुनाव में भी अलौली सीट से जीत हासिल की। लेकिन उन्होंने यह सब रामविलास के नेतृत्व में रहते हुए ही किया। वह तीन बार बिहार सरकार में मंत्री पद पर भी पहुंचे। हालांकि, बड़े भाई का उन पर कितना जोर था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जैसे-जैसे रामविलास ने पार्टियां बदलीं, वैसे-वैसे पशुपति की पार्टियां भी बदलती रहीं।