1950 में महासभा के राष्ट्रीय महासचिव बनने पर उन्होंने कहा कि, “अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो वो मुसलमानों से 5-10 वर्षों के लिए मताधिकार वापस ले लेंगे ताकि उस समय में वो समुदाय सरकार को आश्वस्त कर सके कि उसके इरादे भारत के हित में हैं।”
- Published by- @MrAnshulGaurav
- Friday , 11 March, 2022
वो मुख्यमंत्री हैं लेकिन, अपने नाम के साथ ‘मुख्यमंत्री’ और ‘महाराज’– इन शब्दों का इस्तेमाल करना पसंद करते हैं। उनके official Twitter Account में उनका परिचय कुछ इस तरह लिखा गया है- ‘मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश); गोरक्षपीठाधीश्वर, श्री गोरक्षपीठ; सदस्य, विधान परिषद, उत्तर प्रदेश; पूर्व सांसद (लोकसभा-लगातार 5 बार) गोरखपुर, उत्तर प्रदेश।’ यही नहीं, उनके Twitter Account से किए जाने वाले हर tweet में यही नाम लिखा जाता है- ‘मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ जी महाराज!’
‘मुख्यमंत्री’ भी और ‘महाराज’ भी
महंत आदित्यनाथ योगी जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो धार्मिक गद्दी के साथ राजनीतिक सत्ता भी उनके हाथ आई। शायद, इसी बात को हमेशा ज़ाहिर करने के लिए ‘मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ जी महाराज’ का संबोधन चुना गया। मुख्यमंत्री और महाराज का ये मिला-जुला नाम, सिर्फ संबोधन नहीं है, यह उनके धार्मिक-राजनीतिक सफ़र की ताक़त, ख़ासियत और कुछ लोगों की नज़रों में ख़ामी भी है।
त्रेता और द्वापर युग के रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य मिलते हैं। प्राचीन भारत के राजा-महाराजाओं और बादशाहों का इतिहास में दर्ज़ शासन-प्रशासन मिलता है। बाद आज़ादी के भारत की राजनीति का इतिहास भी मिलता है। इन दस्तावेज़ों में ऐसे ऋषी-मुनि, महंत, मठाधीश, पण्डित-पुजारी या आचार्य-शिक्षक इत्यादि का ज़िक्र भी मिलता है, जो अपने पूजा-पाठ, पठन-पाठन या शिक्षा-दीक्षा के कर्तव्यों का पालन पूरी कर्मठता से किया करते थे।
मगर, इसके बावजूद भी, शायद ही किसी ऐसे शख़्स का ज़िक्र आता हो, जो संवैधानिक पद पर भी आसीन हो और किसी मठ की धार्मिक गद्दी पर भी विराजमान हो। बल्कि, राजनीति में गहरी छाप और राजकाज में भी उसकी गहरी छाया दिखती हो।
हर तरफ़ भगवा रंग
योगी आदित्यनाथ की दोनों पहचानों को अलग करना इसलिए भी मुश्किल है कि वो ख़ुद उन्हें साथ लेकर चलते हैं। सरकारी दस्तावेज़ों में उनके नाम के साथ महंत या महाराज नहीं लगाया जाता पर मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद भी गेरुआ वस्त्र पहनने से उनकी वही छवि दिखती है। लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस बताते हैं, “वो सत्ता में हैं तो लोग वही करते हैं जो उन्हें पसंद है। उनकी कुर्सी के पीछे सफ़ेद की जगह गेरुआ तौलिया टंगा रहता है। शौचालय का उद्घाटन करने भी जाएँ तो दीवार को गेरुए रंग से रंग दिया जाता है।”
‘शेड्स ऑफ़ सैफ़रन: फ़्रॉम वाजपेयी टू मोदी’ लिखने वाली सबा नक़वी के मुताबिक, आदित्यनाथ अपने शासन में केसरिया का ऐसा रंग लेकर आए हैं जो पहले कभी नहीं देखा गया। सबा कहती हैं, “उन्होंने हिन्दुत्व की परिभाषा मुसलमानों से नफ़रत में तब्दील कर दी है। ये इतनी कारगर साबित हो रही है कि अन्य बीजेपी शासित राज्य, जैसे मध्य प्रदेश सरकार भी अपनी भाषा और नीतियों को वैसे ही ढाल रही है।”
सबा आगे कहती हैं “आदित्यनाथ को अपने हिंदुत्व में, ध्रुवीकरण की राजनीति के फ़ायदे में पूरा विश्वास है, वो सोच उनके ज़हन में बसी है। सांप्रदायिकता तो उत्तर प्रदेश में पहले से ही अंदर ही अंदर पनप रही थी पर अब उनकी देखा-देखी खुलकर सामने आने लगी है।”
छात्र संघ से मंदिर और राजनीति का रास्ता
‘यदा यदा हि योगी’ नाम से योगी आदित्यनाथ की जीवनी लिखने वाले विजय त्रिवेदी के मुताबिक 1972 में गढ़वाल के एक गांव में जन्मे अजय मोहन बिष्ट का शुरुआत से ही राजनीति की ओर रुझान था। जीवनी में वो लिखते हैं कि अजय बिष्ट को कॉलेज के दिनों में ‘फ़ैशनेबल, चमकदार, टाइट कपड़े और आंखों पर काले गॉगल्स’ पहनने का शौक़ था. 1994 में दीक्षा लेने के बाद वे आदित्यनाथ योगी बन गए।
बचपन में शाखा में जाने वाले बिष्ट, कॉलेज में छात्रसंघ का चुनाव लड़ना चाहते थे पर आरएसएस से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने उन्हें टिकट नहीं दिया। वे निर्दलीय लड़े, लेकिन हार गए। अजय बिष्ट ने बीएससी की पढ़ाई गढ़वाल के श्रीनगर स्थित हेमवती नंदन बहुगुणा यूनिवर्सिटी से पूरी की है।
विजय त्रिवेदी लिखते हैं कि ‘हार के कुछ महीनों बाद जनवरी 1992 में बिष्ट के कमरे में चोरी हो गई जिसमें एमएससी के दाख़िले के लिए ज़रूरी कई कागज़ात भी चले गए। दाख़िले के सिलसिले में मदद मांगने के लिए ही बिष्ट पहली बार महंत अवैद्यनाथ से मिले और दो वर्षों के भीतर ही उन्होंने न सिर्फ़ दीक्षा ली बल्कि उत्तराधिकारी भी बन गए.’
दीक्षा लेने के साथ नाम ही नहीं बदला जाता, पिछली दुनिया के साथ संबंध भी तोड़ा जाता है. आगे चलकर साल 2020 में बीमार पड़ने के बाद जब उनके पिता आनंद बिष्ट की मृत्यु हो गई तब मुख्यमंत्री बन चुके आदित्यनाथ ने एक बयान जारी कर कहा कि, “कोरोना महामारी को पछाड़ने की रणनीति के तहत और लॉकडाउन की सफलता के लिए मैं उनके कर्म कांड में शामिल नहीं हो सकूंगा”
पत्रकार विजय त्रिवेदी के मुताबिक़, बदलते राजनीतिक परिदृश्य में लोगों को अब ‘पोलिटिकली करेक्ट’ नेता नहीं चाहिए। वो कहते हैं, “योगी आदित्यनाथ का मक़सद अल्पसंख्यकों में डर पैदा करना नहीं, बल्कि उनके प्रति हिंदुओं में ख़ौफ़ पैदा करके उन्हें अपने पक्ष में गोलबंद करना है। लोग रचनात्मक उद्देश्य से वैसे एक साथ नहीं आते जैसे विनाशकारी मुद्दों पर। बाबरी मस्जिद विध्वंस ही याद कर लीजिए।”
त्रिवेदी की क़िताब में लिखा है कि दीक्षा के बाद से ही आदित्यनाथ योगी ने आधिकारिक दस्तावेज़ों में पिता के नाम के कॉलम में आनंद बिष्ट की जगह महंत अवैद्यनाथ का नाम लिखना शुरू कर दिया। महंत अवैद्यनाथ तब राम मंदिर आंदोलन का प्रमुख चेहरा थे। वो गोरखपुर से चार बार सांसद रह चुके थे और गोरखनाथ मंदिर के महंत थे। गोरखनाथ मंदिर और सत्ता का रिश्ता और पुराना है। महंत अवैद्यनाथ से पहले महंत दिग्विजय नाथ ने इसे राजनीति का अहम केंद्र बनाया। वो गोरखपुर से सांसद भी चुने गए।
1950 में महासभा के राष्ट्रीय महासचिव बनने पर उन्होंने कहा कि, “अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो वो मुसलमानों से 5-10 वर्षों के लिए मताधिकार वापस ले लेंगे ताकि उस समय में वो समुदाय सरकार को आश्वस्त कर सके कि उसके इरादे भारत के हित में हैं।“
नाथ संप्रदाय का सनातनीकरण
ऐतिहासिक तौर पर नाथ संप्रदाय में हिंदुओं और मुसलमानों में भेदभाव नहीं किया जाता और मूर्ति पूजा नहीं होती। एकेश्वरवादी नाथ संप्रदाय अद्वैत दर्शन में विश्वास रखता है जिसके मुताबिक़ ईश्वर एक ही है और उसी का अंश सभी जीवों में है, वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग नहीं मानते।
मुगल शासक जहांगीर के दौर में एक कवि की लिखी ‘चित्रावली’ में गोरखपुर का उल्लेख मिलता है। 16वीं सदी की इस रचना में गोरखपुर को योगियों का ‘भला देश’ बताया गया है। मौजूदा गोरखनाथ मंदिर के बाहर एक सबद भी अंकित है- “हिंदू ध्यावे देहुरा, मुसलमान मसीत/ जोगी ध्यावे परम पद, जहां देहुरा ना मसीत।” इस सबद का अर्थ है कि हिंदू मंदिर का और मुसलमान मस्जिद का ध्यान करते हैं, पर योगी उस परमपद (परमब्रह्म, एकेश्वर) का ध्यान करते हैं, वे मंदिर या मस्जिद में उसे नहीं ढूंढते। गोरखपुर के पत्रकार मनोज सिंह के मुताबिक महंत दिग्विजय नाथ के साथ ही इस पीठ का सनातनीकरण होने लगा, मूर्ति-पूजन शुरू हुआ और राजनीतिकरण भी।
गोरखपुर से मुख्यमंत्री की सीढ़ी
अजय बिष्ट के राजनीतिक सफ़र की सही मायने में शुरुआत तब हुई जब 1994 में उन्होंने महंत अवैद्यनाथ से दीक्षा लेकर योगी आदित्यनाथ की पहचान अपनाई। इसके बाद उनका अगला संसदीय चुनाव लड़ना लगभग तय था। पांच साल बाद 26 साल की उम्र में वो गोरखपुर से सांसद चुने गए। हालांकि तब उन्हें सिर्फ़ छह हज़ार वोटों से जीत हासिल हुई थी।
मनोज सिंह बताते हैं, “इस वक्त उन्होंने तय किया कि उन्हें बीजेपी से अलग एक सपोर्ट बेस चाहिए और उन्होंने हिंदू युवा वाहिनी बनाई, जो कहने को एक सांस्कृतिक संगठन था, पर दरअसल उनकी अपनी सेना थी।” वे कहते हैं, “हिंदू युवा वाहिनी का कथित लक्ष्य था धर्म की रक्षा करना, सांप्रदायिक तनाव में इस संगठन की भूमिका रही है। इसी संगठन की अगुवाई करते हुए योगी आदित्यनाथ साल 2007 में गिरफ़्तार हुए थे।”
11 दिन जेल में रहने के बाद वो ज़मानत पर छूट गए। दस साल तक इस केस में किसी सरकार के तहत कोई कार्रवाई नहीं हुई। 2017 में जब आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने तो उनके हाथ के नीचे आनेवाले गृह मंत्रालय ने सीबीसीआईडी को इस केस को चलाने की इजाज़त नहीं दी। साल 2014 में जब आदित्यनाथ ने अपना आखिरी चुनाव लड़ा था, तब चुनाव आयोग में दाखिल ऐफ़िडेविट के मुताबिक़ उनके ख़िलाफ़ कई संगीन धाराओं के तहत मुक़दमे दायर थे।
दिसंबर 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने क़ानून में एक संशोधन किया जिससे राजनेताओं के खिलाफ ‘राजनीति से प्रेरित’ मामले वापस लिए जा सकें. कौन-से मामले ‘राजनीति से प्रेरित’ माने जाएंगे ये तय करने का अधिकार सरकार ने अपने पास रख लिया।
हिंदू युवा वाहिनी से सांसद आदित्यनाथ को बल मिला और नेता के तौर पर उनकी साख गोरखपुर से आगे फैली। पूर्वी उत्तर प्रदेश में वो वाहिनी के लोगों को विधायक का टिकट दिलवाने के लिए अक्सर अड़ जाते और बीजेपी नहीं मानती तो उनके प्रत्याशी के सामने वाहिनी के उम्मीदवार खड़ा करने तक का क़दम उठा लेते थे।
मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद भी वो पार्टी के सामने अपनी बात मनवाने से नहीं चूकते. सबा नक़वी मानती हैं कि इसकी वजह हिंदुत्व की विचारधारा पर फली-फूली उनकी लोकप्रियता और समर्थकों की ताक़त है. वो कहती हैं, “ऐसी पार्टी जो मोदी-शाह के पूरे नियंत्रण में है, वहां आदित्यनाथ अपनी बात कह सकते हैं, वो किसी नेता के रहमो-करम पर नहीं हैं।”
सबा आगे कहती हैं- “कई राज्यों के मुख्यमंत्री आसानी से हटाए गए हैं पर उनके साथ पार्टी ऐसा नहीं कर पा रही क्योंकि इतने अहम राज्य में इन्हें हटाकर किसे खड़ा करेंगे?”
मुख्यमंत्री बनने के साथ ही कई बड़े फ़ैसले लेने से उनकी छवि एक कड़े प्रशासक की बन गई. सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, “उन्हें हार्ड टास्क मास्टर माना जाने लगा, ब्यूरोक्रेसी को समझ में आ गया कि इनके हिसाब से काम करना होगा, वर्ना चलेगा नहीं।”
विजय त्रिवेदी के मुताबिक, “फ़ैसले लेना ही नहीं, अगली मीटिंग में उसके फ़ॉलो-अप की जानकारी लेना और काम ना होने पर क़दम उठाना मुख्यमंत्री की कार्यशैली है।”