21वीं सदी की राजनीति काफी बदल चुकी और परिपक्त हो गई है। वोटर अब न तो नेताओं की चिकनी-चुपड़ी बातों और बहकावे में आता है, न मीडिया (उसमें भी खास कर इलेक्ट्रानिक मीडिया) पर बहुत अधिक भरोसा करता है। वह तर्को की कसौटी पर नेताओं के वादों-दावों एवं सच-झूठ का आकलन करता है। वह जानता है कि कौन सियासी दल या मीडिया समूह किस एजेंडे के तहत काम कर रहा है,लेकिन इतनी सी बात न तो हमारे नेता समझ पा रहे हैं और न ही बड़ें-बड़े मीडिया घरानें। पता नहीं इन लोगों को क्यों लगता है कि वह जो बोलेंगे या टीवी पर दिखाएंगे, वही जनता देखे और समझेगी। नेताओं की बात छोड़ दी जाए, वह तो खुलकर सियासत करते हैं, परंतु सबसे अधिक चिंता तब होती है जब कोई मीडिया समूह पत्रकारिता की आड़ में खबरों के नाम पर अपने सियासी आकाओं के लिए राजनैतिक रोटियां सेंकने की कोशिश करता दिखता हैं। जब ऐसी प्लांटेड खबरें परोसी जाती हैं तो उसमें तथ्य कमजोर हो जाते हैं और खोखलापन बढ़ जाता है। इसी लिए सुप्रीम कोर्ट को बार-बार मीडिया समूह और पत्रकारों को आइना दिखाना पड़ जाता है। अब तो सोशल मीडिया भी नेताओं और मीडिया के गठजोड़ की पोल खोलने का बड़ा ‘प्लेटफार्म’ बन गया है। इतना सब होने के बाद भी हमारे नेता और मीडिया घराने वोटरों की मानसिकता को उसी पिछली सदी के ‘पुराने चश्मे’ से देखने-पढ़ने में लगे हैं, जिसमें सिर्फ और सिर्फ जातिवाद का जहर, वोट बैक की सियासत, धार्मिक और साम्प्रदायिक उन्माद,तोड़फोड़, आरोप-प्रत्यारोप, धनबल-बाहुबल का दबदबा दिखाई देता है।
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बहरहाल, समय के साथ नहीं चल पाने के कारण तमाम राजनैतिक दल हासिए पर खिसक गए हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि करीब 125 वर्ष पुरानी कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं रह गई है। क्योंकि कोंग्रेस के गांधी परिवार और उनके इर्दगिर्द घूमने वाले तमाम नेताओं ने यह गलतफहमी पाल ली है कि वह भीड़तंत्र के सहारे सच को झूठ और झूठ को सच का लबादा पहना सकते हैं। कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व बार-बार हर चुनाव में भीड़तंत्र को ही जनाक्रोश समझने की भूल कर रहत हैं। इसका खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ता है। यह सच है कि राजनीति की सफलता-असफलता को जन-समर्थन या जनाक्रोश का खेल कहा जाता है। जनधारण किसी भी दल या नेता को ‘अर्श से फर्श’ पर और ‘फर्श से अर्श’ पर पहुंचा देता है, लेकिन इतने मात्र से सब कुछ बदल या खत्म भी नहीं हो जाता है। अगर, कोंग्रेस यह गलतफहमी पाले हुए है कि वह उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के खिलाफ धरना-प्रदर्शन और आरोपों की झड़ी लगाकर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का विकल्प बन जाएगी,तो अभी तो ऐसा होता नहीं दिख रहा है, लेकिन यह बात कोंग्रेसियों को कौन समझाए जिनको यही लगता है कि उत्तर प्रदेश में राहुल-प्रियंका की चहलकदमी से बसपा-सपा को बड़ा नुकसान हो सकता है। उचित होता अगर कोंग्रेस ऐसी गलतफहमी पालने से पूर्व 2019 के लोकसभा चुनाव को याद कर लेती। उस समय भी राहुल गांधी और कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा ने इसी तरह हलचल बढ़ाई थी। राहुल गांधी और प्रियंका मंदिर-मंदिर घूमे थे।केवट समाज को लुभाने के लिए गंगा जी में लम्बे समय तक नौकायान किया था।दलितो के घर चक्कर लगाए थे।
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यह सच है कि हाथरस मामले में बसपा सुप्रीमों मायावती और समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने ऐसी तेजी नहीं दिखाई जैसी राहुल-प्रियंका ने दिखाई थी, परंतु अभी यही तेजी गांधी परिवार के लिए गले की फांस बनती जा रही है। फिर भी आज की तारीख में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि प्रियंका वाड्रा लगातार सड़कोें पर लड़ती नजर आ रही है। कांगे्रस में यह बदलाव प्रियंका गांधी के यूपी का प्रभारी बनने के बाद से आया है। कांगे्रस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू भी लगातार धरना-प्रदर्शन करके कांगे्रसियों के बीच अलख जगाए हुए हैं।
समाजवादी पार्टी कह सकती है कि कोई ऐसा मुद्दा नहीं, जिस पर उसके कार्यकर्ता सड़कों पर उतरे न हों और पुलिस की लाठियां न खाई हों। लेकिन कांग्रेस का संघर्ष लोगों को इसलिए दिखने लगा है कि उनके यहां प्रियंका और राहुल दोनों ही सड़क पर उतर चुके हैं,जबकि अखिलेश और मायावती अपने को ट्वीटर तक ही सीमित रखती हैं। अखिलेश तो फिर भी कभी-कभी बाहर दिख जाते हैं,लेकिन मायावती तो कोरोना काल में घर से बाहर ही नहीं निकल रही हैं। जब तक मायावती और अखिलेश खुलकर सड़क पर संघर्ष करते हुए नहीं दिखेंगे,तब तक कार्यकर्ताओं में जोश भरना मुश्किल है। कल्पना कीजिए प्रियंका और राहुल ने स्वयं के बजाय पार्टी के दूसरे नेताओं को हाथरस जाने को कह दिया होता तो क्या वह उतना ही चर्चा का विषय बनता जितना प्रियंका और राहुल की वजह से बना था। क्या योगी सरकार तब भी उतना दबाव में आती, जितना प्रियंका और राहुल की वजह से आई?
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मायावती ने मौका गंवाया,तो दलितों की सियासत करने वाली भीम आर्मी के प्रमुख चन्द्रशेखर रावण ने हाथरस में डेरा डाल लिया। खैर, इससे इत्तर कुछ राजनैतिक पंडित इस बात से इतिफाक नहीं रखते हैं मायावती के सड़क पर आकर आंदोलन नहीं करने से बसपा को बहुत बड़ा नुकसान होगा। क्योंकि बात आज ही नहीं है। बहुजन समाज पार्टी में कांशीराम रहे हों या अब दलित नेत्री मायावती किसी ने कभी सड़क पर उतर कर किसी खास मुद्दे पर आंदोलन चलाए जाने को महत्व नहीं दिया है। मायावती का सारा ध्यान अपने बयानों और व्यवहार से अपने काॅडर को जागरूक बनाए रखने में रहता है। लेकिन इसके उलट सच्चाई यह भह है कि दलित उत्पीड़न सेे जुड़े मामलों में पहले कांशीराम और बाद के दिनों मे मायावती घटनास्थल पर जाकर पीड़ित परिवार के साथ खड़ी जरूर नजर आ जाती थीं।अब ऐसा बिल्कुल भी नहीं होता है। न माया जाती हैं,न अपने किसी नुमांइदे को भेजती हैं। विरोधियों पर दबाव बनाने के लिए मायावती आंदोलन से अधिक बड़ी रैलियों पर विश्वास करती हैं। एक समय था जब जिला मुख्यालयों पर बसपा कार्यकर्ता के धरना प्रदर्शन के आयोजन होते रहते थे। लेकिन इधर कुछ समय से बसपा की यह पहचान भी खत्म हो गई है।
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बात अखिलेश यादव की कि जाए तो हाथरस कांड के समय अखिलेश विदेश में थे, इसलिए उनकी अनुपस्थिति में समाजवादी पार्टी के दूसरे नंबर के नेता और कार्यकर्ता जो कर सकते थे,उन्होंने वह किया,लेकिन इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि अखिलेश सड़क पर आकर आंदोलन कने से कतराते हैं। अखिलेश को हमेशा याद रखना चाहिए कि उन्हें जो पार्टी विरासत में मिली है, वह इतने बड़े जनाधार वाली पार्टी घर में बैठकर कार्यकर्ताओं को आगे कर देने से नहीं बनी है। मुलायम सिंह यादव को यूं ही ‘जन नेता‘ नहीं कहा गया, वह एक दिन में जननेता बने भी नहीं, बल्कि हर मुद्दे पर सड़क पर उतरकर जूझने के जोश ने ही उन्हें जननेता बनाया। वह हर आंदोलन को खुद लीड करते थे, इसी वजह से उनका नाम ‘नेताजी‘ या धरती पुत्र मुलायम पड़ा। जब नेता खुद लीड कर रहा होता है तो पार्टी का सेकेंड लाइन है लीडरशिप का सक्रिया होना लाजिमी हो जाता है लेकिन अखिलेश के मैदान में न उतरने का असर यह कहा जाता है कि सेकेंड लाइन की लीडरशिप भी सीन से गायब है। यहां तक कि राज्य के दोनों सदनों-विधानसभा और विधानसभा और विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष समाजवादी पार्टी के ही है। और दोनोें को आखिरी बार कब कहां देखा गया, यह भी राज्य में पहेली बना हुआ है। खैर,उम्मीद की जानी चाहिए की कोरोना का प्रकोप कुछ कम होने और चुनाव की तारीख नजदीक आने के समय अखिलेश फिर से तेजी से सक्रिय हो जाए। इससे पूर्व उन्हें इसी माह 07 विधान सभा सीटों के लिए होने वाले उप-चुनाव के लिए भी पार्टी को तैयार करना होगा। फिलहाल, राहुल-प्रियंका की सक्रियता ने माया-अखिलेश की धड़कने तो तेज कर ही रखी हैं।
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