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महामना और स्वदेशी आंदोलन की वर्तमान में प्रासंगिकता

 सलिल सरोज

व्यक्ति अगर किसी कार्य का संकल्प कर ले और उसके लिए पूरी शक्ति से जुट जाए तो उसका वह कार्य पूरा होने से कोई नहीं रोक सकता है। इस वाक्य को यथार्थ के धरातल पर उतारने वाले किसी व्यक्ति का स्मरण करे तो पंडित मदन मोहन मालवीय का नाम प्रमुखता से सामने आता है।

एक ऐसा व्यक्ति जिसकी इच्छाशक्ति इतनी प्रबल कि बगैर किसी संसाधन के ही एक ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना कर दी, जो कालांतर में पूरे देश में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

महात्मा गांधी ने पंडित मदन मोहन मालवीय को अपना बड़ा भाई कहा और “भारत निर्माता” की संज्ञा दी। जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें एक ऐसी महान आत्मा कहा, जिन्होंने आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता की नींव रखी। मदन मोहन मालवीय को महात्मना (एक सम्मान) के नाम से भी जाना जाता है। वह एक महान राजनेता और शिक्षाविद थे। वह एक ऐसे देशभक्त थे जिन्होंने देश की आजादी के लिए हरसंभव कोशिश की और आज वह युवाओं के प्रेरणा स्रोत हैं।

मदन मोहन मालवीय का जन्म इलाहाबाद के एक ब्राह्मण परिवार में 25 दिसंबर 1861 को हुआ था। वह अपने पिता पंडित बैजनाथ और माता मीना देवी के आठ बच्चों में से एक थे। पांच वर्ष की उम्र में उनकी शिक्षा प्रारंभ हुई और उन्हें महाजनी स्कूल भेज दिया गया। इसके बाद वह धार्मिक विद्यालय चले गए जहां उनकी शिक्षा-दीक्षा हरादेव जी के मार्गदर्शन में हुई। यहीं से उनकी सोच पर हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति का प्रभाव पड़ा। वर्ष 1868 में उन्होंने तब हाल ही में स्थापित हुए शासकीय हाईस्कूल में दाखिला लिया। 1879 में उन्होंने मूइर सेंट्रल कॉलेज (अब इलाहाबाद विश्वविद्यालय) से मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी की। वर्ष 1884 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बीए की शिक्षा पूरी की और 40 रुपये मासिक वेतन पर इलाहाबाद जिले में शिक्षक बन गए। वह आगे एम.ए. की पढ़ाई करना चाहते थे लेकिन आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण ऐसा नहीं कर पाए।

मदन मोहन मालवीय 1902 ई. में ही उत्तर प्रदेश विधान परिषद् के सदस्य निर्वाचित हुए थे। बजट, उत्पाद कर और अन्य सरकारी विधेयकों पर उन्होंने महत्त्वपूर्ण भाषण दिया था। 1910 ई. से 1920 ई. तक मालवीयजी केन्द्रीय विधानसभा के सदस्य रहे। मालवीयजी ने केन्द्रीय विधान सभा में गोखले द्वारा प्रस्तावित प्राथमिक शिक्षा विधेयक का समर्थन किया था। उन्होंने 1919 ई. में रौलेट एक्ट का विरोध किया। 1924 ई. में स्वतंत्र कांग्रेसी के रूप में उनका निर्वाचन केन्द्रीय विधान सभा में हुआ और वे विधान सभा के प्रधान बने। 1931 ई. में द्वितीय गोलमेज सम्मलेन में भाग लेने के लिए वे लन्दन गए थे। गोलमेज सम्मेलन की असफलता के बाद 1932 ई. में इलाहबाद में राष्ट्रीय एकता सम्मलेन हुआ। इस सम्मलेन की अध्यक्षता पंडित मदनमोहन मालवीय ने की थी। 1934 ई. में एम.एस.अणे के साथ मिलकर मालवीयजी ने मैकडोनाल्ड के साम्प्रदायिक पंचाट का विरोध किया था।

30 मई 1932 को मदन मोहन ने घोषणा पत्र जारी कर “भारतीय  खरीदो/ स्वदेशी खरीदो” आंदोलन पर ध्यान केंद्रित करने की सिफारिश की। जब स्वतंत्रता लगभग मिलने ही वाली थी तब उन्होंने महात्मा गांधी को देश के विभाजन की कीमत पर स्वतंत्रता स्वीकार न करने की राय दी। वह ‘लखनऊ पैक्ट’ के तहत मुस्लिमों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल के पक्ष में नहीं थे और 1920 के दशक में खिलाफत आंदोलन में कांग्रेस की भागीदारी के भी विरोध में थे। वर्ष 1931 में उन्होंने पहले गोलमेज सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्हें ‘‘ सत्य की ही जीत होगी‘‘ नारे को प्रसिद्ध करने वाले के तौर पर भी जाना जाता है। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्‍होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जमकर लोहा लिया। अंग्रेजी सामान का बहिष्‍कार कर उन्‍होंने स्‍वदेशी आंदोलन को बढ़ावा दिया। मदन मोहन मालवीय ने कांग्रेस के कई अधिवेशनों की अध्यक्षता की. उन्होंने 1909, 1913, 1919 और 1932 के कांग्रेस अधिवेशनों की अध्यक्षता की. मदन मोहन मालवीय ने सविनय अवज्ञा और असहयोग आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई। इन आंदोलनों का नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया था। दलितों के अधिकार और जातिवाद का बंधन तोड़ने के लिए उन्‍होंने लंबा संघर्ष किया। मालवीय की पहल के बाद ही कई हिंदू मंदिरों में दलितों को प्रवेश मिल पाया।

मालवीय 1924 से 1946 तक ‘हिंदुस्‍तान टाइम्‍स’ के अध्‍यक्ष रहे. इस अंग्रेजी अखबार के हिंदी संस्‍करण हिंदुस्‍तान को लॉन्‍च कराने में उनकी अहम भूमिका रही।  ‘द लीडर’ के अलावा उन्‍होंने हिंदी मासिक ‘मर्यादा’ और हिंदी साप्‍ताहिक ‘अभ्‍युदय’ समाचार पत्र का संपादन किया। मदन मोहन मोहन मालवीय ने ही सत्यमेव जयते को लोकप्रिय बनाया, जो बाद में चलकर राष्ट्रीय आदर्श वाक्य बना और इसे राष्ट्रीय प्रतीक के नीच अंकित किया गया। हालांकि इस वाक्य को हजारों साल पहले उपनिषद में लिखा गया था, लेकिन इसे लोकप्रिय बनाने के पीछे मदन मोहन मालवीय का हाथ है। 1918 के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने इस वाक्य का प्रयोग किया था, उस वक्त वो कांग्रेस के अध्यक्ष थे। असहयोग और सविनय अवज्ञा आन्दोलन के पक्ष में नहीं रहते हुए भी मालवीयजी ने सरकारी आज्ञाओं और कानूनों को तोड़ने में साहस दिखाया।

अंग्रेजी शासन के दौर में देश में एक स्वदेशी विश्वविद्यालय का निर्माण मदन मोहन मालवीय की बड़ी उपलब्धि थी। मालवीय ने विश्वविद्यालय निर्माण में चंदे के लिए पेशावर से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्रा की थी। उन्होंने 1 करोड़ 64 लाख की रकम जमा कर ली थी। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय बनाने के लिए मदन मोहन मालवीय को 1360 एकड़ जमीन दान में मिली थी। इसमें 11 गांव, 70 हजार पेड़, 100 पक्के कुएं, 20 कच्चे कुएं, 40 पक्के मकान, 860 कच्चे मकान, एक मंदिर और एक धर्मशाला शामिल था। बताया जाता है कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की पहली कल्पना दरभंगा नरेश कामेश्वर सिंह ने की थी। 1896 में एनी बेसेंट ने सेंट्रल हिन्दू स्कूल खोला। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी का सपना महामना के साथ इन दोनों लोगों का भी था। 1905 में कुंभ मेले के दौरान विश्वविद्यालय का प्रस्ताव लोगों के सामने लाया गया। उस समय निर्माण के लिए एक करोड़ रुपए जमा करने थे। 1915 में पूरा पैसा जमा कर लिया गया। पांच लाख गायत्री मंत्रों के जाप के साथ भूमि पूजन हुआ। इसके साथ ही यूनिवर्सिटी निर्माण का काम प्रारंभ हुआ। मदन मोहन मालवीय का सपना था कि बनारस की तरह शिमला में एक यूनिवर्सिटी खोली जाए।

हालांकि उनका ये सपना पूरा नहीं हो सका। 2014 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया। डॉ. राधा कृष्णन ने मालवीय के संघर्ष और परिश्रम के कारण उन्हें कर्मयोगी कहा था। 1898 में सर एंटोनी मैकडोनेल के सम्मुख हिंदी भाषा की प्रमुखता को बताते हुए, कचहरियों में इस भाषा को प्रवेश दिलाया। मदन मोहन मालवीय भारत के आर्थिक विकास में दिलचस्पी रखते थे। उनके प्रयास से 1905 ई. में भारतीय औद्योगिक सम्मलेन का आयोजन बनारस में किया गया था। 1907 ई. में उत्तर प्रदेश औद्योगिक सम्मलेन का आयोजन इलाहाबाद में मालवीयजी के प्रयत्न से ही हुआ था।

मदन मोहन मालवीय कोई एक इंसान नहीं बल्कि खुद में एक संस्थान और इस देश की धरोहर को समेटे उपजाऊ ज़मीन थे।  देश के सर्वांगीण विकास की अभिरचना और ज़मीन पर उसकी रचनात्मकता के दोहक थे पंडित मदन मोहन मालवीय। सामजिक सरोकार और राजनीति की टेढ़ी मेढ़ी चालों के सुलझे योद्धा थे मालवीय।  देश की आज़ादी के लगभद अस्सी दसक बाद भी जब किसी अखबार में यह पढ़ने को मिलता है कि किसी नीची जाति के लोगों के खिलाफ आज भी बर्बरता जारी है तो यकायक मालवीय के समूल समाज की अवधारणा परिकल्पित होने लगती है। उनके द्वारा गरीबों और अछूतों को भी समाज के अभिन्न रूप में देखने की दृष्टि की जरूरत शायद पहले से कहीं ज्यादा महसूस की जाती है। देश विभिन्न दौर से गुज़र कर आज इस मुकाम पर पहुंचा है जहां पूरा विश्व भारत को आदर और सम्मान के साथ देखता  ऐसी परिस्थिति में यदि देश के नागरिकों के बीच जाति , धर्म , क्षेत्रवाद और भाषा को लेकर अगर विवाद उत्पन्न होता है तो यह अत्यंत कष्टकर है और हमें महामना के आदर्श जीवन की तरफ फिर से देखने की अत्यधिक जरूरत है। मालवीय को स्वदेशी की परम सीमा तक पहुँचने के लिए निज़ाम तक से मदद मांगने में नहीं चुके तो क्या आम नागरिक भाईचारे और एकता के लिए एक-दुसरे का सहयोग नहीं मांग सकते।

आज जब शिक्षा की बात होती है जहाँ महँगाई इसे किसी ख़ास वर्ग का गुलाम बनाती दिखती है और जिस शिक्षा में सांस्कृतिक और अपनी पृष्ट्भूमि की महक नदारद दिखती है तो हमें मालवीय द्वारा स्थापित काशी हिन्दू विश्विद्यालय की याद आती है जिसने ना केवल देश की धरोहर और सांस्कृतिक इतिहास को सम्बल प्रदान किया बल्कि राष्ट्रभाषा के नाम पर हिंदी का मार्ग प्रशस्त किया। स्वदेशी आंदोलन ना केवल स्वदेशी उत्पाद से प्रेरित था बल्कि स्वदेशी स्वाभिमान और अपनी पहचान बचाने की भी कवायद का द्योतक था। आज जब भूमंडलीकरण के दौर में पूरी दुनिया एक गाँव के रूप में दिखने लगी और और अपनी असली पहचान धूमिल होने लगी है तो महामना के द्वारा प्रतिपादित स्वदेशी बिलकुल रामबाण की तरह सटीक दिखती है।

मदन मोहन मालवीय ना केवल स्वतंत्र सेनानी और समाज सुधारक थे बल्कि प्रख्यात विद्वान् और सम्पादक भी थे। आज पूरा विश्व जब झूठी ख़बरों के मायाजाल और अखबारों और टेलीविजन के द्वारा फैलाए जहर का शिकार हो रहा है तो मालवीय द्वारा निकाले जा रहे खालिस अखबारों से की जाने वाली  साधक पत्रकारिता की याद दिलाता है। मीडिया क्यों लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है, यह उन्होनें अपनी निष्पक्ष पत्रकारिता से बताया और पत्रकारों को लेखकों को जिम्मेदारी से लिखने और बोलने को भी सिखाया। सच को हर हाल में बाहर आना चाहिए क्योंकि उन्होनें ही बताया कि सत्यमेव जयते से बड़ा कोई सिद्धांत नहीं और जीवन जीने का इससे बेहतर कोई दूसरा तरीका नहीं।

पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे व्यक्तित्व और उनकी शख्सियत कभी मरती नहीं बल्कि लोगों के दिलों और दिमाग में प्रवेश कर के अमर हो जाती है। यह हमारी और आने वाली अगली पीढ़ी की जिम्मेदारी है कि उनके द्वारा सुझाए गए जीवन मूल्यों को बेहतर ढंग से समझे और जीवन में उसका पालन भी करे ताकि देश और समाज का सर्वांगीण विकास हो सके।

 

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