पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को सत्ता में आने के बाद से पहली बड़ी राजनीतिक चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. जमीयत उलेमा ए इस्लाम फज़ल (जेयूआई-एफ) के प्रमुख मौलाना फजलुर रहमान के नेतृत्व में पूरा विपक्ष पांच दिनों से सरकार के खिलाफ इस्लामाबाद में प्रदर्शन कर रहा है. उसका कहना है कि 2018 में हुए आम चुनाव में धांधली हुई थी और पाकिस्तान की शक्तिशाली सेना ने इमरान खान को समर्थन दिया था. प्रदर्शनकारियों की मांग है कि इसलिए अब इमरान खान अपने पद से इस्तीफ़ा दें और देश में फिर से निष्पक्ष चुनाव करवाया जाए.
मौलाना फजलुर रहमान और सरकार के बीच तीन दौर की बातचीत हो चुकी है, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला है. हालांकि, इमरान खान के इस्तीफे की उम्मीद न के बराबर ही है. वे कह भी चुके हैं कि इस्तीफे के अलावा वे सारी जायज मांगों पर विचार के लिए तैयार हैं. लेकिन कुछ राजनीतिक जानकारों का कहना है कि जिस तरह से विपक्ष एकजुट है और इस्लामाबाद में मौलाना के लाखों समर्थक जिस तरह से डटे हैं, उसे देखते हुए अगर जल्द कोई हल नहीं निकला तो स्थिति बेहद गंभीर हो सकती है. वैसे भी पाकिस्तान की राजनीति में कुछ भी होना संभव है.
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या आने वाले दिनों में मौलाना फजलुर रहमान का यह आंदोलन इमरान खान की कुर्सी हिला सकता है और क्या इसके चलते जल्द ही पाकिस्तान में बड़ा राजनीतिक उलटफेर देखने को मिल सकता है.
मौलाना फजलुर रहमान की धार्मिक और राजनैतिक ताकत
पाकिस्तान में पिछले एक-डेढ़ दशक में पहली बार ऐसा देखने को मिला है कि मौलाना फजलुर रहमान की वहां की सरकार में हिस्सेदारी नहीं है. उनके लिए कहा जाता है कि पाकिस्तान में सरकार किसी की भी बने, उसमें मौलाना की भूमिका जरूर होती है. पिछले एक दशक में बनी दोनों सरकारों में उनकी हिस्सेदारी थी. दरअसल उनकी धार्मिक जमातों के बीच बहुत अच्छी पकड़ है, और हर बार चुनाव से पहले वे सभी प्रमुख धार्मिक पार्टियों का गठबंधन करवाने में कामयाब हो जाते हैं. बीते साल भी चुनाव से ठीक पहले वे पाकिस्तान के पांच सबसे बड़े धार्मिक समूहों को एक छतरी के नीचे लाने में कामयाब रहे थे. चुनाव नतीजों में उनके गठबंधन ने काफी अच्छा प्रदर्शन किया था और सीटों के लिहाज से वह चौथे नंबर पर रहा था.
वैसे तो 66 वर्षीय मौलाना फजलुर रहमान का उत्तर-पश्चिमी खैबर पख्तूनख्वा और दक्षिण-पश्चिम बलूचिस्तान में खासा रसूख माना जाता है. लेकिन, पूरे देश में उनके मदरसे होने के चलते पाकिस्तान में उनके समर्थकों की बड़ी तादाद है. उनके अफगान तालिबान जैसे गुटों के साथ भी अच्छे संबंध रहे हैं. कुल मिलाकर देखें तो पाकिस्तान में मौलाना न केवल राजनीतिक बल्कि धार्मिक रूप से भी काफी ताकतवर हैं.
मौलाना ने 27 अक्टूबर को कराची से आजादी मार्च की शुरुआत की थी जो 31 अक्टूबर को इस्लामाबाद पहुंचा. सर्दी के मौसम में भी 27 अक्टूबर से उनके हजारों समर्थक खुले आसमान के नीचे उनके साथ हैं. पाकिस्तानी जानकारों की मानें तो चिंता की सबसे बड़ी बात यह है कि मौलाना फजलुर रहमान के समर्थक बेहद अनुशासित हैं और उनके एक इशारे पर वे कुछ भी करने को तैयार हो सकते हैं.
पाकिस्तान मामलों के विशेषज्ञ और वरिष्ठ पत्रकार अशफाक अहमद अपने एक लेख में कहते हैं, ‘मौलाना के समर्थकों ने अब तक बहुत धैर्य दिखाया है, उन्होंने किसी भी तरह की हिंसा नहीं की है. लेकिन उनकी इस शांति को सरकार उनकी कमजोरी न समझ बैठे, क्योंकि हर कोई जानता है कि मौलाना के कट्टर अनुयायी उनके लिए अपनी कुर्बानी देने से भी नहीं हिचकेंगे. अगर मौलाना उन्हें आगे बढ़ने और संसद पर हमला करने या सेना के साथ टकराव करने का आदेश भी देंगे तो समर्थक पीछे नहीं हटेंगे.’ कुछ जानकार कहते हैं कि इसीलिए इमरान सरकार को मौलाना को आखिर तक मनाने की कोशिश करनी चाहिए.
इमरान खान सरकार का रुख
पिछले महीने जब मौलाना फजलुर रहमान ने आंदोलन की आधिकारिक घोषणा की थी, उस समय इमरान खान और उनके मंत्री मौलाना को हल्के में ले रहे थे. लेकिन, आंदोलन के शुरूआती चार दिनों में ही मौलाना के समर्थकों का रुख देखकर उन्हें इस आंदोलन की गंभीरता समझ में आने लगी.
पाकिस्तान की सरकार और सेना नहीं चाहती कि जब देश बड़े आर्थिक संकट में है और आईएमएफ के अधिकारी फंड देने से पहले बार-बार पाकिस्तान की स्थिति की समीक्षा कर रहे हैं, तब वहां कोई बड़ा राजनीतिक संकट खड़ा हो. इमरान खान यह भी जानते हैं कि पाकिस्तान में सरकार चलाने के लिए धार्मिक नेताओं का हाथ उनके सिर पर होना बेहद जरूरी है. इन धार्मिक नेताओं पर मौलाना फजलुर रहमान की बेहद अच्छी पकड़ है, ऐसे में अगर आंदोलन हिंसक हुआ और फिर पुलिस या सैन्य कार्रवाई की गयी तो इसका दोषी प्रधानमंत्री को ही ठहराया जाएगा. इसके बाद पूरे देश में परस्थितियां इमरान खान के खिलाफ होने में देर नहीं लगेगी.
जानकारों की मानें तो यही सब सोचकर प्रधानमंत्री इमरान खान ने मौलाना फजलुर रहमान से बातचीत के सभी दरवाजे खोल दिए. उन्होंने मौलाना से बातचीत करने के लिए एक वार्ता समिति भी बनाई, जो लगातार उनके और विपक्षी नेताओं के संपर्क में है. लेकिन वे इमरान खान के इस्तीफे से कम पर मानने को तैयार ही नहीं है.
क्या पाकिस्तान में इससे पहले इस तरह के आंदोलन कभी सफल हुए?
अगर पाकिस्तान के इतिहास पर नजर डालें तो इससे पहले कभी भी प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग को लेकर हुए इस तरह के आंदोलन सफल नहीं हुए हैं. पिछले कुछ सालों में ऐसा ही एक आंदोलन 2014 में इमरान खान के नेतृत्व में ही हुआ था. उस समय इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ ने नवाज शरीफ पर आम चुनाव में धांधली करने का आरोप लगाया था. उसकी मांग थी कि नवाज शरीफ प्रधानमंत्री का पद छोड़ें और देश में दोबारा चुनाव करवाए जाएं. कई महीनों तक इस्लामाबाद में चले धरना-प्रदर्शन के बाद भी इमरान खान की कोई मांग नहीं मानी गयी और उन्हें बिना कुछ हासिल किये अपना आंदोलन खत्म करना पड़ा.
अगर देखा जाए तो मौलाना फजलुर रहमान का आंदोलन बिलकुल वैसा ही है और इसीलिए पहली नजर में ज्यादातर जानकार इसका भी वैसा ही हश्र होने की बात कहते हैं. लेकिन, जानकारों का एक तबका यह भी कहता है कि इस आंदोलन में एक बात बिलकुल अलग है और वह है, मौलाना फजलुर रहमान का एक बड़ा धार्मिक नेता होना. क्योंकि अब अगर सरकार आंदोलनकारियों को हटाने के लिए उन पर कोई कार्रवाई करती है तो पाकिस्तान एक बहुत बड़े संकट में फंस सकता है.