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वीआईपी कल्चर खत्म करता है लोगों के बीच समानता का भाव

              संजय सक्सेना

मौनी अमवस्या पर महाकुंभ में भगदड़, जिसके चलते तीस लोगों की मौत ने ऐसे मौकों पर कुछ विशेष लोगों को मिलने वाले वीआईपी सम्मान पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। सवाल यह पूछा जा रहा है कि हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों और आयोजनों में क्यों भक्तों के बीच भेदभाव होता है ? महाकुंभ में 29 जनवरी को मौनी अमवस्या के स्नान के दिन भगदड़ के कारण जो दर्दनाक हादसा हुआ उसने वाईआईपी कल्चर पर एक बार फिर से नये सिरे से बहस छेड़ दी है। सवाल उठ रहा है कि जब गुरुद्वारे में वीआईपी दर्शन नहीं, मस्जिद में वाआईपी नमाज नहीं, चर्च में वीआईपी प्रार्थना नहीं होती है तो सिर्फ मंदिरों में कुछ प्रमुख लोगों के लिये वीआईपी दर्शन क्यों जरूरी हैं ? क्या इस पद्धति को खत्म नहीं किया जाना चाहिए, जो हिन्दुओं में दूरियों का कारण बनता है ? खैर, योगी सरकार ने मौनी अमावस्या के दिन हुए हादसे से सबक लेते हुए वीआईपी सिस्टम पर रोक लगा दी है। महाकुंभ के लिये सभी वीआईपी पास भी रद्द कर दिये गये। काश यह व्यवस्था पहले ही खत्म कर दी जाती। यह इस लिये भी जरूरी था क्यों भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ 07 जनवरी को ही धार्मिक स्थलों पर होने वाली वीआईपी व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े कर चुके थे।बब तो उन्हें ऐसे हादसे की उम्मीद भी नहीं रही होगी। उन्होंने कहा था कि कि वीआईपी व्यवस्था समानता के सिद्धांत के खिलाफ है और इसे धार्मिक जगहों से पूरी तरह समाप्त कर देना चाहिए। उपराष्ट्रपति ने आगे कहा कि धार्मिक स्थल समानता के प्रतीक हैं, जहां हर व्यक्ति ईश्वर के सामने बराबर होता है. वहीं उन्होंने जोर देकर ये भी कहा कि वीआईपी दर्शन की अवधारणा भक्ति के खिलाफ है। यह एक असमानता का उदाहरण है, जिसे तत्काल समाप्त किया जाना चाहिए। वहीं, उन्होंने धर्मस्थलों पर समानता को स्थापित करने की बात कही थी।

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धनखड़ ने अपने संबोधन कहा था कि धार्मिक स्थलों को समानता के प्रतीक के रूप में देखा जाना चाहिए। जब किसी को विशेषाधिकार दिया जाता है, या वीआईपी या वीवीआईपी का दर्जा दिया जाता है, तो यह समानता के विचार का अपमान है। इस दौरान उन्होंने कर्नाटक के एक धर्मस्थल का उदाहरण भी बताया, जो समानता का संदेश देता है।

 वीआईपी कल्चर खत्म करता है लोगों के बीच समानता का भाव

तब उपराष्ट्रपति ने कहा था कि पिछले कई सालों में धार्मिक स्थलों के बुनियादी ढांचे के विकास में एक सकारात्मक बदलाव आया. वहीं, उन्होंने कहा कि ये विकास केवल भौतिक सुधार नहीं हैं, बल्कि हमारी सभ्यता और सांस्कृतिक मूल्यों को सुदृढ़ करने का एक महत्वपूर्ण कदम भी हैं.हाल यह है कि कई मंदिरों के भीतर तो वहीं का स्टाफ और पुरोहित ही धन उगाही करके भक्तों को वीआईपी सुविधा प्रदान करने से नहीं चूकते हैं। ऐसे भक्तों को बिना लाइन के और मंदिर का प्रोटोकॉल तोड़कर गर्भगृह में प्रवेश कराकर भी दर्शन करा दिये जाते हैं। आम श्रद्धालु घंटों कतार में खड़े रहते हैं, जबकि वीआईपी को सीधे गर्भगृह में प्रवेश मिल जाता है। बड़े मंदिरों में वीआईपी पास या दान के बदले विशेष दर्शन की व्यवस्था होती है, जबकि साधारण भक्तों को धक्का-मुक्की झेलनी पड़ती है। वीआईपी भक्तों को विशेष प्रसाद, बैठने की जगह और पुजारियों का अलग से आशीर्वाद मिलता है, जबकि आम भक्त को कुछ ही सेकंड में दर्शन कर आगे बढ़ने को कहा जाता है।

तीर्थ स्थलों और गंगा स्नान में वीआईपी संस्कृति की बात कि जाये तो महाकुंभ मेले प्रयागराज, हरिद्वार या वाराणसी जैसे तीर्थ स्थलों पर आम श्रद्धालुओं को अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है, लेकिन वीआईपी के लिए अलग घाट बना दिए जाते हैं।जहां आम लोग भीड़ में संघर्ष करते हैं, वहीं खास लोगों के लिए विशेष स्नान व्यवस्था, सुरक्षा घेरा और सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं।कई बार वीआईपी के स्नान के लिए आम श्रद्धालुओं को घंटों रोका जाता है, जिससे भीड़ में अफरा-तफरी तक मच जाती है। महाकुंभ हादसे की असली वजह क्या थी, ये तो न्यायिक जांच के बाद ही पता चलेगा लेकिन सवाल ये है कि जहां करोड़ों लोग जुट रहे हों, वहां आम श्रद्धालुओं की असुविधा को बढ़ाकर वीआईपी स्नान जैसी व्यवस्था क्यों? वीआईपी स्नान के नग्न प्रदर्शन की टीस महाराज प्रेमानंद गिरि के शब्दों में भी दिखी जब उन्होंने कहा कि प्रशासन का पूरा ध्यान वीआईपी पर था। आम श्रद्धालुओं को उनके हाल पर छोड़ दिया गया था। उनका आरोप है कि पूरा प्रशासन वीवीआईपी की जी-हुजूरी में लगा रहा, तुष्टीकरण में लगा रहा।

वीआईपी की भी आस्था होती है, इससे कहां कोई इनकार कर सकता है लेकिन आम लोगों की कीमत पर वीआईपी ट्रीटमेंट क्यों? अगर हजारों करोड़ रुपये खर्च किए गए तो वीआईपी लोगों के लिए कुछ ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं की गई कि उनके मूवमेंट की वजह से आम श्रद्धालुओं को दिक्कत न हो? आम श्रद्धालु 15-15, 20-20 किलोमीटर पैदल चलकर स्नान करने पहुंचे और कथित वीआईपी गाड़ियों के रेले के साथ सीधे तट तक पहुंचे, ये तो आम श्रद्धालुओं में रोष, खींझ और असंतोष पैदा करने वाला ही होगा। भगदड़ से एक दिन-दो दिन पहले तक ऐसी खबरें आ रही थीं कि पीपे के तमाम पुलों को आम श्रद्धालुओं के लिए बंद कर दिया गया ताकि कथित वीआईपी अपने वीआईपीपने का प्रदर्शन कर सकें।

वैसे वीआईपी कल्चर का दायरा काफी बड़ा है। वीआईपी कल्चर धार्मिक स्थलों तक ही नहीं सीमित है। लोकतंत्र से आस्था तक, हर जगह कुछ लोगों को कई मौकों पर विशेषाधिकार मिल ही जाता है। लोकतंत्र के मूल सिद्धांत कहते हैं कि सभी नागरिक समान हैं, लेकिन व्यवहार में कुछ लोग ‘विशेष’ हो जाते हैं, फिर चाहे वह सड़क पर हों, सरकारी दफ्तर में, अस्पताल में, या फिर मंदिर में!

 

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इसी प्रकार से अक्सर बड़े नेताओं और अधिकारियों की सुरक्षा के नाम पर ट्रैफिक रोका जाता है, जबकि आम जनता घंटों जाम में फंसी रहती है। अस्पतालों में वीआईपी वार्ड अलग से बनाए जाते हैं, जबकि आम मरीजों को बिस्तर तक नहीं मिलता। एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशनों पर वीआईपी यात्रियों के लिए विशेष सुविधाएं होती हैं, जबकि आम जनता लंबी कतारों में खड़ी रहती है। वीआईपी कल्चर एक नासूर की तरह है।इसी लिये हर सरकार वीआईपी कल्चर खत्म करने के वादे और बात करती है, लेकिन असल में इसे बनाए रखने के नए तरीके ढूंढे जाते हैं। मंदिरों और तीर्थ स्थलों में भी यह भेदभाव खत्म होना चाहिए, क्योंकि भगवान के दरबार में वीआईपी और आम आदमी का भेद न्यायसंगत नहीं हो सकता।

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सबसे बड़ी बात यह है कि जब तक जनता खुद इस संस्कृति को स्वीकार करती रहेगी, तब तक वीआईपी कल्चर खत्म नहीं होगा। बदलाव तभी आएगा जब लोग अपने अधिकारों को समझेंगे और भक्ति से लेकर लोकतंत्र तक समानता की मांग करेंगे।अनेक धर्मस्थलों में 400-500 रुपए तक का अतिरिक्त शुल्क लेकर मंदिरों में देवताओं के विग्रह के अधिकतम निकटता तक जल्दी पहुंचा जा सकता है। यह व्यवस्था शारीरिक और आर्थिक बाधाओं का सामना करने वाले वी.आई.पी. प्रवेश शुल्क देने में असमर्थ साधारण भक्तों के प्रति असंवेदनशील है। इससे शुल्क देने में असमर्थ भक्तों से भेदभाव होता है। विशेष रूप से इन वंचित भक्तों में महिलाएं तथा बुजुर्ग अधिक बाधाओं का सामना करने वाले शामिल हैं।

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