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जब चम्बल के बाग़ियों ने लड़ा था अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ गुरिल्ला युद्ध

  • आजादी कि जंग के लिए महात्मा गांधी के नारों से चम्बल के खूंखार डकैतों के ज़ेहन में भी उमड़ पड़ा था देश भक्ति का जज़्बा

  • अंग्रेजी हुक्मरानों पर भारी पड़ गए थे औरैया के छात्र

  • देश के बड़े नेता जब जेल में डाले गए तो आजादी के आन्दोलन को अपने हाथ में ले लिया था औरैया के छात्रों ने

  • 12 अगस्त 1942 को अंग्रेजी हुकूमत पर आफत बनकर टूटे थे औरैया, बलिया, जबलपुर, पटना के छात्र

  • औरैया के 6 छात्रों ने अपनी शहादत देकर फहरा दिया था तिरंगा

  • जेल में कैद भारतीय नेताओं के कानों ने जब औरैया के छात्रो कि हुंकार सुनीं तो उनके मुंह से निकल पड़ा इन्कलाब जिंदाबाद

  • Published by- @MrAnshulGaurav
  • Tuesday, August 09, 2022
एडवोकेट सुरेश मिश्रा

वैसे तो साल का हर दिन और हर माह आजादी की जंग के गवाह हैं, लेकिन अगस्त के महीने की 8, 9 और 12 तारीख़ों ने क्रांतिवीरों की इच्छाशक्ति, आज़ादी के जुनून और शहादत की गाथा को इतिहास के पन्नों में लिखे अक्षरों को कुछ ज्यादा ही चमकदार बना दिया है। फरवरी 1942 में जब महात्मा गांधी ने आजादी की अंतिम लड़ाई के लिए हुंकार भरी तो क्रांतिवीरों का ख़ून अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ ख़ौल उठा।

फरवरी 1942 से जुलाई 1942 तक इन 5 महीनों में जंग-ए-आज़ादी की धार को तेज करने की रणनीति बनायी गयी। अंग्रेज़ी हुक्मरानों को जब गांधी जी की इस योजना कि जानकारी हुयी, तो गोरी सेना ने आन्दोलन को नष्ट करने के लिए देश के हर हिस्से से छोटे-बड़े नेताओं को गिरफ़्तार करना शुरू कर दिया। नेताओं की गिरफ़्तारी ने हिन्दुस्तान के युवाओं कि रगो में बह रहे ख़ून की गति बढ़ा दी।

देशभक्तों ने अंग्रेज़ी सरकार से लिया दो-दो हाथ करने का फैसला

आख़िरकार वह दिन भी आ गया जब देश भक्तों ने अंग्रेज़ी सेना से दो-दो हाथ करने का कठोर फैसला कर ही लिया। 12 अगस्त 1942 के दिन युवाओं के निशाने पर आ गए सरकारी भवनों पर फ़हर रहे अंग्रेज़ी यूनियन जैक। यूनियन जैक को उतार फेंकने और हिन्दुस्तानी इमारतों पर तिरंगा फ़हराने को बेताब युवाओं और छात्रों के कदम सड़क पर आ गए। पढ़ने के लिए बस्तों में रखीं किताबे घर के कमरों में कैद हो गयीं और हाथ में आ गया तिरंगा।

देश के बलिया, पटना, जबलपुर और अन्य शहरों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के औरैया के छात्रों ने अंग्रेज़ी सेना के ख़िलाफ़ ऐसा कोहराम मचाया कि अंग्रेज़ी शासकों कि नीदें ही उड़ गयीं। यूनियन जैक को उतारकर कुचलने और तिरंगा फहराने कि जद्दोजहद में औरैया के 6 छात्र अंग्रेज़ी पुलिस की गोलियाँ खाकर शहीद हो गए थे जबकि, जमीन पर घायल पड़े दर्जनों छात्र भारत माता कि जय बोलते हुए अपनी बहादुरी का लोहा मनवा रहे थे। औरैया के छात्र अपने मक़्सद में कामयाब हो गए थे। 12 अगस्त 1942 को घटी यह घटना उत्तर भारत की सबसे बड़ी घटना थी। जेल में कैद भारतीय क्रांतिकारी नेताओं के कानों ने जब औरैया के छात्रों की हुंकार सुनीं तो उनके मुंह से निकल पड़ा इन्कलाब जिंदाबाद।

आज़ादी की जंग के हर पल की गवाह है तिलक इंटर कॉलेज की हर एक ईंट 

ईंट और गारे से बनी उत्तर प्रदेश के औरैया जिले की सदर तहसील का पुराना भवन अब हमारी आने वाली पीढ़ी कभी नहीं देख पाएगी। सरकार ने जर्जर हो चुके तहसील के भवन को गिराकर अब वहां नई बिल्डिंग बनवा दी है। गुलामी के दिनों में एबी हाईस्कूल के नाम से विख्यात यहीं के तिलक इंटर कालेज का भवन आज भी शहर की शान बढ़ा रहा है। यह इमारत कोई आम इमारतों में से नहीं है। इन इमारतों में लगी एक-एक ईंट गांधी की आंधी से शुरू हुयी आज़ादी की जंग के हर पल की गवाह हैं।

सुनहरे भविष्य के लिए गुरुओं से किताबी शिक्षा प्राप्त करने के बाद, छात्र विद्यालय के परिसर में खड़े पेड़ों की छाँव में बैठ कर अंग्रेजों से लोहा लेने की रणनीति भी बनाते थे। गांधी जी भी इस परिसर में आकर यहां की मिट्टी का तिलक अपने माथे पर लगा चुके हैं। उनके द्वारा रोपित पौधा अब बृक्ष बन कर शीतलता प्रदान कर रहा है।

 

क़िताबें हो गयीं घरों में क़ैद और छात्रों ने उठा लिया तिरंगा 

अपने सर पर गड़े अंग्रेज़ी यूनियन जैक से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति पाने के लिए औरैया सदर तहसील की पुरानी इमारत कुछ दूरी पर स्थित अपने छात्रों को वतन पर मर मिटने कि शिक्षा दे रहे तिलक इंटर कालेज की इमारत को निहार रही थी। तहसील की इमारत के दर्द को समझकर कालेज कि बिल्डिंग मचल उठी। कालेज ने अपने छात्रों को ऐसा झकझोरा कि देश भक्ति के जुनून के साथ उनके पैर सड़क पर क़दमताल करने लगे। बस्तों में सिमट कर रहने वाली क़िताबें जब घरों में कैद हो गयीं और छात्रों के हाथ में तिरंगा आ गया, तब आज़ादी कि आग ने छात्रों को इतना गरम कर दिया कि उनके सामने अंग्रेज़ पुलिस बौनी नजर आने लगी।

अंग्रेजों की कोई भी कोशिश औरैया के छात्रों के पैरों को रोक नहीं सकी। छात्र तहसील कि इमारत पर चढ़ गए और गुलामी के प्रतीक के रूप में लगे यूनियन जैक को उतारकर रौदते हुए तिरंगा फ़हरा दिया। छात्रों की इस हरकत से बौखलाई अंग्रेजी पुलिस ने छात्रों पर 20 राउण्ड गोलि दाग दीं। इस फ़ायरिंग से 6 छात्र भारत माता कि जय बोलते हुए वहीं शहीद हो गए, जबकि कई दर्जन छात्र घायल होने के बावजूद अंग्रेज़ पुलिस से लोहा लेते रहे।

जब बीहड़ के बाग़ियों ने संभाला था अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ मोर्चा-

अब बात करते हैं उनकी, जिन्हें समाज ख़ूंख़्वार डाकूओं के रूप में तो जानता है, मगर शायद ही कोई ये नहीं जानता हो कि आज़ादी की जंग में व्यवस्था के ख़िलाफ़ बग़ावत कर बीहड़ के ये बाग़ी भी कूदे पड़े थे। चम्बल घाटी का नाम आते ही हमारे ज़ेहन में भय समा जाता है, लेकिन देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले लोगों में से कम ही ऐसे लोग हैं, जिन्हें उस काल के डाकुओं की देश के लिए दी गई कुर्बानी का ज्ञान हो।

आज़ादी की जंग के लिए नेताओं के नारों ने यहाँ के ख़ूंख़्वार डकैतों के ज़ेहन में भी देश भक्ति का जज़्बा पैदा कर दिया था। चम्बल के डाकू अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ने लगे। शहर में छात्र अंग्रेज़ पुलिस से दो-दो हाथ करने को तैयार थे, तो यमुना और चम्बल नदी के किनारे जंगलों में छिपे डाकू भी शहर की सीमा में घुसने को बेताब हो रहे थे। दूसरे जिलों से आने वाली अंग्रेज़ी पुलिस को खदेड़ने में लगे थे। ब्रह्मचारी डकैत का नाम और उसके द्वारा जंग-ए-आज़ादी में दिया गया योगदान भी यहाँ के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज़ है।

औरैया के इतिहास की बारीक़ी से जानकारी रखने वाले औरैया शहीद स्मारक समिति के सदस्य प्रवीण गुप्ता बताते हैं कि

“औरैया के क्रांतिकारियों का अगस्त क्रांति यानी 9 अगस्त, दूसरा सबसे बड़ा आन्दोलन था। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में अगस्त क्रांति के नाम से मशहूर भारत छोड़ो आंदोलन का करीब तीन-चार साल का दौर, अत्यंत महत्त्वपूर्ण होने के साथ पेचीदा भी था। यह आंदोलन देशव्यापी था, जिसमें बड़े पैमाने पर भारत की जनता ने हिस्सेदारी की और अभूतपूर्व साहस और सहनशीलता का परिचय दिया।”

लोहिया ने ट्राटस्की के हवाले से लिखा है कि

“रूस की क्रांति में वहां की सिर्फ एक प्रतिशत जनता ने हिस्सा लिया था, जबकि भारत की अगस्त क्रांति में देश के बीस प्रतिशत लोगों ने हिस्सेदारी की थी। 8 अगस्त 1942 को ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित हुआ और 9 अगस्त की रात को कांग्रेस के बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए। इस वजह से आंदोलन की सुनिश्चित कार्ययोजना नहीं बन पाई थी। कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी का अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व सक्रिय था, लेकिन उसे भूमिगत रह कर काम करना पड़ रहा था। इसी दौरान जेपी ने क्रांतिकारियों का मार्गदर्शन करने, उनका हौसला अफजाई करने और आंदोलन का चरित्र और तरीक़ा स्पष्ट करने वाले ‘आजादी के सैनिकों के नाम’ दो लंबे पत्र अज्ञात स्थानों से लिखे। भारत छोड़ो आंदोलन के महत्त्व का एक पक्ष यह भी है कि आंदोलन के दौरान जनता खुद अपनी नेता थी।”

भारत छोड़ो आंदोलन देश की आजादी के लिए एक निर्णायक मोड़ था। विभिन्न स्रोतों से आज़ादी की इच्छा और उसे हासिल करने की जो ताक़त भारत में बनी थी, उसका अंतिम प्रदर्शन भारत छोड़ो आंदोलन में हुआ। आंदोलन ने इस बात पर निर्णय किया गया कि आजादी की इच्छा में भले ही नेताओं का भी साथ था, लेकिन उसे हासिल करने की ताकत निर्णायक रूप से जनता की थी।

‘करो या मरो’ गांधी जी का 25 सालों के संघर्ष का अनुभव

यह ध्यान देने की बात है कि गांधीजी ने आंदोलन को समावेशी बनाने के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में दिए अपने भाषण में समाज के सभी तबकों को संबोधित किया था। जनता, पत्रकार, नरेश, सरकारी अमला, सैनिक, विद्यार्थी आदि। यहां तक कि उन्होंने अंग्रेज़ों, यूरोपीय देशों और मित्र राष्ट्रों को भी अपने उस भाषण के जरिए संबोधित किया था। सभी तबकों और समूहों से देश की आज़ादी के लिए ‘करो या मरो’ के उनके व्यापक आह्वान का आधार उनका पिछले पच्चीस सालों के संघर्ष का अनुभव था।

भारत छोड़ो आंदोलन के जो भी घटनाक्रम, प्रभाव और विवाद रहे हों, मूल बात थी भारत की जनता में लंबे समय से पल रही आज़ादी की इच्छा का विस्फोट। इस आंदोलन के दबाव में भारत के आधुनिकतावादी मध्यमवर्ग से लेकर सामंती नरेशों तक को यह लग गया था कि अंग्रेज़ों को अब भारत छोड़ना होगा। इसलिए अपने वर्ग-स्वार्थ को बचाने और मजबूत करने की फ़िक्र उन्हें लगी।

औरैया के भारतवीर मुकुंदीलाल ने 9 अगस्त 1925 को अपने साथियों के साथ काकोरी में सरकारी खजाना ले जा रही ट्रेन को लूट कर अंग्रेज़ी हुक़्मरानों को भारतीय क्रांतिवीरों कि ताक़त का अहसास करा दिया था। काकोरी काण्ड के इस महान नायक भारतवीर मुकुंदीलाल द्वारा अपने जिले के युवाओं में भरा गया जोश आज़ादी मिलने तक जारी रहा।

आज़ाद भारत की सरकारों का देश के इन क्रांतिकारियों के प्रति ये है कर्तव्य-

अपने निजी हितों को त्याग कर गुलामी में जकड़े भारत माता की आज़ादी के लिए अपना सब कुछ लुटा चुके देश के अमर सपूतों की चौराहों पर प्रतिमाएं लगाकर सरकारें अपने कर्तव्य को पूरा मान बैठी हैं। देश के कई शहरों के चौराहों पर लगीं महापुरुषों कि प्रतिमाएं किस हालत में हैं यह किसी से छिपा नहीं है। आजाद भारत के नेताओं ने आज़ादी के इन नायकों की जो दशा कर दी है, उसे देख स्वर्ग में बैठे हमारे अमर सपूत देश की दिशा और दशा पर चिंतित जरूर होंगे। जंग-ए-आज़ादी के अमर सपूतों को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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