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कृष्ण की कुंडली में छिपे सारे राज…

श्रीकृष्ण का जन्म जिस घड़ी में हुआ उसी क्षण स्पष्ट हो गया था कि अब मथुरा नरेश कंस का पतन सुनिश्चित है. श्री हरि विष्णु के सर्वकलामयि आठवें अवतार की जन्मकुंडली अध्ययन से इसे समझा जा सकता है. वासुदेव-देवकी के पुत्र यशोदानंदन का जन्म द्वापर युग में कृष्ण भाद्रपद अष्टमी को मध्य रात्रि हुआ. इस समय उच्च राशि का चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में विद्यमान होकर आशीष स्वरूप पृथ्वी पर बिखर रहा था. चंद्र किरणें धरा पर यूं बरस रही थीं मानों धरा का समस्त पाप और भार हर ले रही हों.

इसी प्रहर मथुरा में घनघोर बारिश हो रही थी जैसे धरती सर्वश्रेष्ठ समय के आगमन की खुशी में भावविह्वल हो रही हो और कंस को अपनी भयंकर गर्जना से चेता रही हो कि ‘तेरा काल आ रहा है… तेरा काल आ गया है.’ श्रीकृष्ण के जन्मचक्र वृष लग्न का है. उच्च चंद्रमा लग्न में ही विराजमान है. स्वराशिस्थ सिंह के सूर्य माता के भाव में हैं. यहां मां और पिता के कारक ग्रह चंद्र-सूर्य पूर्ण प्रबलता से उपस्थित हैं. यह स्पष्ट संकेत है कि कृष्ण के माता-पिता के कष्ट उनके जन्म से नष्ट होने वाले हैं.

मातुल अर्थात् मामा की जानकारी जन्मचक्र के छठे भाव से मिलती है. यहां तुला राशि में उच्च के शनिदेव विराजमान हैं जो न्यायदाता हैं. अभिप्राय कृष्ण से स्पष्ट हो गया कि अब अन्याय का अंत होगा और न्याय का परचम फहरेगा. साथ में स्वराशिस्थ शुक्र का योग इशारा करता है कि कंस वध की घटना तीनों लोकों तक गुंजायमान होगी. यहां छठे भाव में केतु भी है. यह जताता है न्यायपूर्व विभिन्न षड्यंत्र भी रचे जाएंगे.

कृष्ण-कंस की नामराशि राम-रावण के समान
श्रीकृष्ण और कंस की नामराशि भी राम-रावण के ही समान है. यह घोर शत्रुता या मित्रता को दर्शाती है. दोनों ही स्थिति में न्याय की अन्याय पर जीत और घनघोर शत्रुता का स्पष्ट वर्णन मिलता है. साथ ही राम और कृष्ण दोनों को ही अंतिम विजय से पूर्व मायावी राक्षसराजों के भयंकर षड्यंत्रों को झेलना पड़ा.

कृष्ण की कुंडली में गुरु उच्च के हैं. पराक्रम भाव में विराजित हैं. गुरुदेव संवैधानिक नीतिगत शास्त्रसम्मत के पक्षधर हैं. महापराक्रमी होकर भी युद्ध में पहल न करने वाले हैं. कृष्ण ने भी कंस की अति के बावजूद उसके बुलावे पर ही मथुरा पहुंचकर उकसाने और ललकारने पर उसका वध किया था. मंगलदेव भाग्य में उच्चस्थ हैं. यह अवस्था परम भाग्यशाली बनाती है. लेकिन ऐसा व्यक्ति स्वयं कर्मठता और भाग्य की अपेक्षा कर्म को प्रधानता देने वाला होता है. भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीतोपदेश में निष्काम कर्म की प्रधानता रखी.

बुध का पंचम में उच्च का होना बाल्यकाल में आनंद का अनुभव कराता है. मित्रों का साथ नटखट शरारतें कराता है. चातुर्यता श्रेष्ठता प्रतिस्पर्धा में आगे रखता है. विशुद्ध प्रेम का प्रतीक बनाता है. श्रीकृष्ण वृंदावन बरसाने की बाल लीलाएं इसका प्रमाण हैं. कृष्ण-सुदामा मैत्री भी इस योग से अतुलनीय अनुकरणीय है. चंद्रमा की उच्चता उन्हें सर्वश्रेष्ठ देने को प्रेरित करती है. कृष्ण को लोगों ने भगोड़ा, झूठा, धूर्त, अचरित्रवान इत्यदि न जाने कितने नाम दिए, परंतु स्वयं कृष्ण ने समस्त चराचर को हर्ष आनंद न्याय और समृद्धि प्रदान की.

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