मिरगी की दवाएं आमतौर पर सिर्फ एक ही औषधीय तत्व पर आधारित होती हैं, जिसके कारण वे बीमारी के लिए जिम्मेदार सभी कारकों को पूरी तरह नष्ट नहीं कर पाती हैं। एक नए अध्ययन में भारतीय शोधकर्ताओं ने जड़ी-बूटियों में पाए जाने वाले 74 तत्वों की पहचान की है, जो मिरगी के कारकों को नष्ट कर सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि इन तत्वों के उपयोग से मिरगी के उपचार के लिए अधिक कारगर नई दवाएं विकसित की जा सकती है।
अध्ययन में आयुर्वेदिक उपचार में उपयोग होने वाली 63 आयुर्वेदिक औषधियों और उनमें पाए जाने वाले 349 फाइटोकेमिकल्स को सूचीबद्ध किया गया है। फाइटोकेमिल्स पौधों में पाए जाने वाले जैविक रूप से सक्रिय रसायन होते हैं, जिनका उपयोग दवाओं के विकास में किया जाता है। इन फाइटोकेमिकल्स के विश्लेषण से कई औषधीय गुणों के बारे में पता चला है। इसके बाद, फाइटोकेमिकल्स द्वारा लक्षित प्रोटीन अणुओं की जानकारी एकत्र की गई और उनका आकलन किया गया। शोधकर्ताओं ने यह समझने का प्रयास किया है कि कोई एक फाइटोकेमिकल मिरगी के लिए जिम्मेदार कितने रोगजनक प्रोटीन अणुओं को अपना लक्ष्य बना सकता है। फाइटोकेमिल्स की तुलना 40 मिरगी-रोधी दवाओं से की गई है, जो वर्तमान में प्रचलित हैं या फिर उनका परीक्षण किया जा रहा है। ऐसा करने पर 349 में से 74 फाइटोकेमिकल्स में मिरगी-रोधी दवाओं के समान गुण पाए गए हैं। इसके अलावा, 11 ऐसे फाइटोकेमिकल्स के बारे में भी पता चला है, जिनकी भूमिका तंत्रिका तंत्र संबंधी बीमारियों से लड़ने में महत्वपूर्ण हो सकती है। जिन जड़ी-बूटियों के रसायनिक गुणों का विश्लेषण किया गया है, उनमें शिरिष, बच, ग्वारपाठा, अकरकरा, सोआ, सतावर, ब्राह्मी, लटकन, पुनर्नवा, पथरचट्टा, पलाश, पत्रंग, मदार, अजवायन, देवदार, मण्डूकपर्णी, हड़जोड़, हल्दी, मोथा, हरीतकी, पिप्पली, अदरक, अश्वगंधा, निर्गुन्डी, खस, मकोय, अगस्ति या गाछ मूंगा, मजीठ, अरंडी और अपराजिता जैसे औषधीय पौधे शामिल हैं।
धर्मशाला स्थित हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डॉ विक्रम सिंह ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “हमने मिरगी के उपचार के लिए जड़ी-बूटियों की क्षमता का मूल्यांकन करने के लिए नेटवर्क फार्माकोलॉजी पद्धति का उपयोग किया है। नई दवाओं के विकास और पहचान की यह ऐसी पद्धति है, जिसमें रोगों के लिए जिम्मेदार विभिन्न कारकों को लक्ष्य बनाने के लिए एक से अधिक दवाओं के संयोजन का उपयोग किया जाता है।”
डॉ. सिंह के साथ इस शोध में शामिल उनकी शोधार्थी नेहा चौधरी ने कहा कि “मिरगी तंत्रिका तंत्र से संबंधित एक ऐसा विकार है, जो रोगी की संज्ञानात्मक और मनोवैज्ञानिक क्षमता को प्रभावित करता है। आयुर्वेद में मिरगी को अप्स्मार के रूप में परिभाषित किया गया है; जहां अप “उपेक्षा” और स्मर “चेतना” को दर्शाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोणों पर आधारित नई चिकित्सकीय खोजों में भारत की इस पारंपरिक औषधीय विरासत का उपयोग करके नई दवाओं के विकास में मदद मिल सकती है।”
भारत में 1.20 करोड़ से अधिक लोग मिरगी से पीड़ित हैं। लेकिन, इस रोग से पीड़ित अधिकतर मरीजों को उचित उपचार नहीं मिल पाता। पूर्व अध्ययनों में पाया गया है कि मिरगी के उपचार में उपयोग होने वाली दवाओं के बारे में जागरूकता की कमी, गरीबी, परंपरागत मान्यताएं, स्वास्थ्य सेवाओं का खराब बुनियादी ढांचा और प्रशिक्षित पेशेवरों का अभाव इस रोग से लड़ने से जुड़ी प्रमुख बाधाएं हैं। यह अध्ययन शोध पत्रिका साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित किया गया है।