कांग्रेस में राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की मांग करना सामान्य बात नहीं है। पिछले दिनों तेईस वरिष्ठ नेताओं ने इस संबन्ध में पत्र लिखा था। यह एक भूचाल की तरह था। कांग्रेस ने अपने को गांधी परिवार के आश्रित कर लिया था। सोनिया गांधी के अंतरिम अध्यक्ष बने रहने से कोई देश वर्ष तक कोई प्रश्न नहीं उठाया गया। वह अंतरिम अध्यक्ष रहें,राहुल गांधी के पास कोई पद ना रहे, प्रियंका गांधी महासचिव रहें,या जिस प्रकार मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे,उसी प्रकार गांधी परिवार के बाहर के व्यक्ति को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया जाए,इन बातों से कांग्रेस की आंतरिक संरचना में कोई फर्क नहीं पड़ता। राहुल गांधी अध्यक्ष पद छोड़ चुके है। इसके बाबजूद वह जो बयान देते है,वही पार्टी लाईन बन जाती है। सभी नेता प्रवक्ता उसी स्वर में बोलने लगते है। ऐसे में कोई अध्यक्ष हो क्या अंतर पड़ेगा। चीन से विवाद का प्रकरण अभी ताजा है।
राहुल गांधी ने संकट काल में भी भारत सरकार पर हमला बोलना शुरू कर दिया था,फिर सबने देखा कि कांग्रेस उसी रास्ते पर चलने लगी। इनमें से कोई भी चीन को गुनाहगार नहीं बता रहा था। सर्वदलीय बैठक में सोनिया गांधी का भी यही रुख था। राहुल पद विहीन होने के बाद भी शीर्ष पर थे। किसी ने यह भी विचार नहीं किया कि जब शत्रु देश आक्रमण की धमकी दे रहा है,तब भारत की सभी पार्टियों को अपनी सरकार का समर्थन करना चाहिए। वह चाहे जैसी और चाहे जिसकी सरकार हो, संकट के बाद अपनी सरकार से हिसाब किताब पूरा किया जा सकता है।
लेकिन राहुल ने धैर्य नही दिखाया,तो कांग्रेस भी अधीर हो गई। उसे एक सौ पैतीस वर्ष की होने का गुमान है,लेकिन इस मसले पर उसने नए क्षेत्रीय दलों से भी सबक नहीं लिया। अस्थाई अनुच्छेद तीन सौ सत्तर की समाप्ति नागरिकता संसोधन विधेयक की समाप्ति आदि भी राष्ट्रीय हित से जुड़े विषय थे। इस पर भी कांग्रेस ने जनभावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया। कुछ महिलाएं शाहीन बाग,घण्टाघर में धरने पर बैठी,राहुल व प्रियंका उनको समर्थन देने दौड़ गए। पूरी कांग्रेस इसी रास्ते पर चल पड़ी,इसका क्या महत्व रहा कि राहुल गांधी के पास कोई पद नहीं है, प्रियंका मात्र महासचिव है।
लोक सभा चुनाव से पहले राहुल ने ही बिना किसी प्रमाण के राफेल को मुद्दा बनाया था। वह अपनी सभा ने अमर्यादित नारे लगवाते थे। वैसे तब वह अध्यक्ष थे। लेकिन कांग्रेस को क्या मिला। जाहिर है कि राहुल गांधी के बयान निराश करने वाले थे। तब यह उम्मीद की गई कि प्रियंका गांधी को सक्रिय किया जाए। कांग्रेस में प्रियंका लाओ देश बचाओ के नारे भी लगते थे। प्रियंका ने पिछले लोकसभा चुनाव में पूरी सक्रियता दिखाई। लेकिन कांग्रेस की सीटें पहले से कम हो गई। इसका कारण था कि प्रियंका बदलाव की उम्मीद नहीं दिखा सकी। उनके बयान भी राहुल गांधी से ज्यादा अलग नहीं थे। इस पूरे प्रकरण को पत्र से जोड़ कर देखा जा सकता है। वस्तुतः यह वर्तमान नेतृत्व के प्रति निराशा की उपज है।
इसी कारण पूर्णकालिक अध्यक्ष की बात उठाई गई है। लेकिन वर्तमान स्थिति में बदलाव की गुंजाइश बहुत नहीं है। कांग्रेस में इस समय तीन विचार है। सोनिया गांधी अपने पुत्र राहुल की ही पुनः ताजपोशी चाहती है। दूसरा खेमा प्रियंका को कमान देने का समर्थन कर रहा है, तीसरे वर्ग में वह लोग है जो गांधी परिवार के बाहर के व्यक्ति को अध्यक्ष बनाना चाहते है। राहुल गांधी ने भी यही विचार व्यक्त किया था। लेकिन नए अध्यक्ष का फैसला भी शायद सोनिया गांधी की ही मर्जी से होगा। ऐसे में नाम चाहे जो हो,वह मनमोहन सिंह के ही अनुरूप होगा। इस समय कांग्रेस की यही कठिनाई है। तेईस नेताओं की मुहिम कितनी आगे बढ़ती है,यह देखना होगा। लेकिन कांग्रेस की बिडम्बना यह है कि ये सभी नेता अभी तक परम्परावादी ही रहे है। कांग्रेस को एक परिवार के आश्रित करने में इनका भी योगदान कम नहीं रहा है।
इस हंगामेदार पत्र के बाद भी कांग्रेस की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। इस पर कांग्रेस कार्यसमिति की सात घंटे तक बैठक हुई थी। फिर वह ढाक के तीन पात। इसमें सोनिया गांधी से पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष बने रहने का आग्रह किया गया। उन्हें जरूरी संगठनात्मक बदलाव के लिए अधिकृत किया। उनके जरूरी बदलाव किस सीमा तक जाते है,यह जगजाहिर है। बैठक में प्रायः सभी नेताओं ने सोनिया गांधी के नेतृत्व में विश्वास जताया। प्रश्न उठाने वाले नेताओं को कांग्रेस का अनुशासन एवं गरिमा बनाए रखने के लिए नसीहत दी गई। चेतावनी दी गई कि किसी को भी पार्टी एवं इसके नेतृत्व को कमजोर करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
तेईस नेताओं में शामिल कई ने मंगलवार को कहा कि उन्हें विरोधी नहीं समझा जाए। उन्होंने कभी भी पार्टी नेतृत्व को चुनौती नहीं दी है। पत्र लिखने का उद्देश्य कभी भी सोनिया गांधी या राहुल गांधी के नेतृत्व पर अविश्वास जताना नहीं था। वह लोग सोनिया के अंतरिम अध्यक्ष बने रहने के फैसले का स्वागत करते हैं। जाहिर है कि कांग्रेस के अंदर निराशा का भाव तो है, लेकिन उससे उबरने के रास्ता फिलहाल दिखाई नहीं दे रहा है।