लखनऊ। राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय सचिव अनिल दुबे ने नागरिकों की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए सत्ताधारी सरकारों द्वारा राजद्रोह कानून के अत्यधिक दुरुपयोग पर माननीय सुप्रीम कोर्ट की अभूतपूर्व न्यायिक आलोचना का स्वागत किया है। साथ ही सरकार से तत्काल प्रभाव से राजद्रोह कानून को निरस्त कर सिर्फ राजनेताओं और सरकारों की आलोचना करने के लिए दर्ज केसों को वापस लेने की मांग की है।
श्री दुबे ने आज जारी बयान मे कहा कि भारतीय दंड संहिता में मौजूद धारा 124-ए को पहली बार 1870 में भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं और क्रांतिकारियों के दमन के लिए ब्रिटिश शासन ने लागू किया था। इसी कानून के तहत गांधी जी को औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के लिए एवं बाल गंगाधर तिलक को उनके द्वारा लिखे गए लेखों की वजह से जेल जाना पड़ा। श्री दुबे ने कहा कि पिछले सात सालों में तो इस कानून का काफी दुरुपयोग किया गया । सत्ता के विरुद्ध आवाज उठाने वालों या सरकार की आलोचना करने वालों के खिलाफ इसी राजद्रोह कानून का दुरुपयोग कर पिछले 7 वर्षों में 7000 से अधिक व्यक्तियों के विरुद्ध 519 देशद्रोह के मामले दर्ज किए गए। जिन पर मुकदमे कायम किए गए उनमें ज्यादातर छात्र, पत्रकार, लेखक, शिक्षाविद और विपक्षी राजनेता है।यह इस कानून के दुरुपयोग की भयानक स्थिति को दर्शाती है।
उन्होंने कहा की उत्तर प्रदेश में भी पिछले 4 वर्षों में ताबड़तोड़ तरीके से कुछ 89-90 देशद्रोह के मामले दर्ज कराये गये हैं, जो काफी चिंतनीय है। उन्होंने केदार नाथ सिंह मामले (1962) के ऐतिहासिक फैसले में दी गई राजद्रोह की व्याख्या का हवाला देते हुए कहा कि अदालत के फैसले के अनुसार भी जब तक सरकार के खिलाफ व्यक्त किया गया असंतोष, हिंसा को भड़काने की प्रवृत्ति नहीं रखता है, तब तक राजद्रोह के आरोप को बरकरार नहीं रखा जा सकता है।
आज जारी बयान में श्री दुबे ने राजद्रोह कानून को सत्तारूढ़ दलों के द्वारा सबसे अधिक दुरुपयोग होने वाले कानूनों में से एक बताते हुए कहा है कि दिलचस्प बात तो यह है कि अंग्रेजों ने अपने घरेलू कानूनों से 1967 में इस राजद्रोह कानून को निरस्त कर दिया लेकिन हमारी सरकारें आज भी संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गये अभिव्यक्ति और सरकारों की आलोचना की स्वतंत्रता के अधिकार की अनदेखी कर विपक्ष की सत्ता विरोधी आवाजों व आलोचनाओं के दमन के लिए आज भी इस औपनिवेशिक कानून का दुरुपयोग कर रही हैं।