झील की कोखों से जहां झांकते थे,धूप से सोना मढ़े भाप के छल्ले वहां अब मंडराता है घना नीला कुहरा…. ‘हेमंत का गीत गाते हुए अज्ञेय ने कभी इन्हीं पंक्तियों के साथ हेमंत ऋतु का स्वागत किया था, लेकिन अब कोहरा जैसा सौंदर्य इस समय शायद ही दिखता है। खूबसूरती ही नहीं, अब तो हेमंत ऋतु भी कहां महसूस कर पाते हम! वे दिन अब लद गए, जब सभी छह ऋतुएं हमें सुखद एहसास देती थीं। बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर या शीत का एक अलग ही आनंद और उत्साह लोगों में दिखा करता था। मगर अब तो सर्दी, गरमी और बरसात, यही तीन मौसम विशेषकर उत्तर भारत के लोग अनुभव करते हैं।
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ऋतुएं इसलिए खत्म हो रही हैं, क्योंकि वैश्विक गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग) व प्रदूषण ने हमारे वातावरण को करीब-करीब बीमार बना दिया है। हेमंत की बात करें, तो ग्लोबल वार्मिंग के कारण मानसून का विस्तार होने लगा है। पहले सितंबर तक सामान्यतः मानसून खत्म हो जाता था, जिसके बाद हल्की ठंड की दस्तक होती थी। मगर इस साल अक्तूबर अंत तक मानसूनी बारिश होती रही। इसके बाद तापमान अचानक नीचे गिरा और मानो हेमंत ऋतु को उसने जैसे लील ही लिया।
वैसे, इन दिनों तापमान 15-16 डिग्री सेल्सियस के आसपास बना रहा, लेकिन प्रदूषण के कारण ठंड का एहसास नहीं हो सका। कुछ यही हाल वसंत का भी है। बीते तीन-चार वर्षों से मार्च-अप्रैल से ही अब हीट वेब (अत्यधिक गरमी) शुरू हो जाती है। नतीजतन, वसंत की बयार नहीं बहती, गरमी का ताप हम झेलते हैं।
दरअसल, यह अनुमान लगाया गया था कि इंसानी गतिविधियों के कारण साल 2030 तक वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि होगी। मगर अभी जब तापमान 1.1 या 1.2 डिग्री सेल्सियस तक है, हम मौसम संबंधी उन तमाम मुश्किलों का सामना करने लगे हैं, जो 1.5 डिग्री सेल्सियस पर तापमान के पहुंचने के बाद होने की आशंका जताई गई थी। हालांकि, अजरबैजान के बाकू में चल रहे कॉप-29 जलवायु वार्ता सम्मेलन में कहा गया है कि साल 2024 के शुरुआती नौ महीनों में वैश्विक औसत तापमान पूर्व औद्योगिक औसत से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक था। इसी कारण, हम चरम मौसम की अवस्था देखने लगे हैं।
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दिक्कत यह है कि इस तरह की रिपोर्ट जब आती हैं, तब तो हम सजगता दिखाते हैं, लेकिन बाद में उसे ठंडे बस्ते में डाल देते हैं। जैसे कि साल 2017 में ही जलवायु परिवर्तन पर एक अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने अपनी रिपोर्ट में बता दिया था कि सर्दी में तापमान में तुलनात्मक रूप से वृद्धि देखी जा रही है, जिस कारण लोग पहले के मुकाबले कम ठंड महसूस करने लगे हैं। उसने इसकी वजह वैश्विक गर्मी बताई थी, जिसमें प्रदूषण का बड़ा योगदान होता है। मगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया।
असल में, सर्दियों में गंगा के मैदानी इलाकों में वातावरण काफी स्थिर हो जाता है। यह स्थिति पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान जैसे देशों में भी दिखती है। इस ठहरे वातावरण में हलचल तभी होती है, जब पश्चिमी विक्षोभ जैसी कोई मौसमी परिघटना होती है। मगर ऐसा कभी-कभार ही होता है, जिस कारण यहां प्रदूषण भी ठहर जाता है। देखा जाए, तो भारत के उत्तरी हिस्से में प्रदूषण 365 दिनों की समस्या है। गर्मी में हवा गर्म हो जाने से ऊपर उठ जाती है, जिससे प्रदूषकों का बिखराव हो जाता है और वायु गुणवत्ता उतनी खराब नहीं होती।
मगर सर्दियों में मौसम में ठहराव से प्रदूषण की सघनता बढ़ती जाती है। रही-सही कसर पराली और पटाखे पूरी कर देते हैं। कोहरा और प्रदूषक मिलकर स्मॉग, यानी सघन धुंध का निर्माण करते हैं, जिससे आबोहवा दम घोंटने वाली बन जाती है। कल्पना कीजिए, यदि दिल्ली का वायु गुणवत्ता सूचकांक यूं ही महीना भर 400-500 के पार बना रहे, तो लोग किस कदर जानलेवा रोग के शिकार बन जाएंगे।
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आखिर इस समस्या का समाधान क्या है ? इसका समाधान वहीं करना होगा, जहां से प्रदूषण पैदा हो रहा है। सबसे पहले, सूखे पत्तों या गोबर के उपलों का ईंधन के रूप में इस्तेमाल तत्काल बंद होना चाहिए। यह सही है कि अब गांव-गांव में घरेलू एलपीजी पहुंच चुकी है, लेकिन गैस आज भी गरीब ग्रामीणों के लिए तुलनात्मक रूप से महंगी है।
इसी तरह, कूड़े को पहाड़ों को भी हमें हटाना होगा। राजधानी दिल्ली में ही कई ऐसे पहाड़ खड़े हो गए हैं, जहां से मिथेन और ओजोन जैसी हानिकारिक गैस उत्सर्जित होती रहती हैं। इनको हटाने साथ-साथ हमें सभी कॉलोनियों और सोसायटियों में स्थानीय तौर पर कचरा के निस्तारण के लिए कैप्टिव सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट और कैप्टिव वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट भी लगाने होंगे, ताकि घरों का कचरा आसपास ही निस्तारित हो सके।
गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण को भी हमें रोकना होगा। सार्वजनिक परिवहन पर तो हमारे देश में काम हुआ है, लेकिन अब वक्त निजी परिवहन में सुधार का है। इसके लिए सड़कों पर से डीजल वाहन ह आवश्यक हैं। परिवहन से होने वाले प्रदूषण में बड़ा योगदान डीजल वाली गाड़ियों का ही है और शहरों में ऐसी गाड़ियां बहुतायत में दिखती हैं। कार पुलिंग भी की जा सकती है। इन सबसे परिवहन प्रदूषण तकरीबन 30 फीसदी हिस्सा हम कम कर सकेंगे। जरूरी यह भी है कि सर्दियों में हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वी राजस्थान, उत्तरी मध्य प्रदेश आदि हिस्सों में स्थापित कोयले से बिजली पैदा करने वाली इकाइयों को बंद किया जाए। ऐसा कम से कम 1 नवंबर से 15 दिसंबर तक किया जाना आवश्यक है। इससे हमारी बिजली आपूर्ति पर कोई असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि इस समय बिजली की मांग काफी कम हो जाती है, जिसकी पूर्ति नजदीकी इकाइयों से की जा सकती है। इससे भी हम दिल्ली की आबोहवा में बाहर से आने वाले प्रदूषण का करीब 30 प्रतिशत हिस्सा कम कर सकते हैं। फिर, पराली व पटाखों पर काम चल ही रहा है। यानी, हम प्रदूषण को काफी हद तक थाम सकेंगे। बड़ा सवाल यही है कि ऐसा होगा कैसे ? वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) बनाया तो गया, पर जब तक राज्य सहयोग नहीं करेंगे, तब तक यह आयोग भी कुछ नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट की आपत्ति भी तो इन्हीं सब बातों पर है।