“हमें कुछ लोगों के जहरीले और नफरत वाले भाषणों से चुनाव में काफी कुछ नुकसान हुआ है। अन्यथा, परिणाम इस तरह के हतोत्साहित करने वाले नहीं होते बल्कि, परिणाम इसके उलट होते।”
दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद, केंद्रीय सरकार में शामिल एक बहुत ही महत्वपूर्ण नेता के दिए गए उपरोक्त बयान का, उन नेता जी का इकबालिया कबूलनामा मानते हुए, मैं आज भी संपूर्ण देश वासियों की तरफ से स्वागत करता हूँ। देश को उम्मीद थी कि आगे वे और उनकी पार्टी इस तरह के जहरीले भाषणबाजी से दूर रहेगी। पर अफसोस, न तो वे अपनी बात पर कायम रहे और न उनकी पार्टी के नेताओं ने उनकी कही बातों को तवज्जो दी। यही नहीं, अन्य राजनीतिक दल और उनके नेता जहरीले नफरती भाषणों से दूरी बनाकर रख सके।
चुनावी मंचों से लगातार देश और समाज को बाँटने वाली भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है। जाति-धर्म की खाई को और चौड़ी करने का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रयास तमाम राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की तरफ़ से धड़ल्ले से किया जा रहा है। प्रत्येक राजनीतिक दल के मेनिफेस्टो में कुछ और लिखा होता है और उनके नेता मंचों से कुछ और ही राग अलापने में व्यस्त रहते हैं। उनका मेनिफेस्टो लोकलुभावन वादों का पिटारा होता है। जिसके चलते, जनता उस पार्टी और नेता के लिए विचार कर सकती है। लेकिन, जैसे ही उनके नेता चुनावी मंच पर पहुँचते हैं, उनकी ज़ुबान आग उगलने लगती है और उस आग में देश की जनता झुलसने को अभिशप्त हो जाती है।
सभी राजनीतिक दलों का चुनावी घोषणा पत्र सिर्फ एक कागज का टुकड़ा बन कर रह जाता है। उस चुनावी घोषणा पत्र पर एक भी नेता और कार्यकर्ता बात करने को तैयार नहीं रहता। सब के सब जाति धर्म संप्रदाय के आधार पर अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए जुगत भिड़ाने में लगे रहते हैं। उनके इस कुकृत्य से देश और समाज का कितना नुकसान हो रहा है, इसकी चिंता वे कतई नहीं करते। सबसे बड़ी दुर्भाग्य की बात है कि खुलेआम सार्वजनिक मंचों से इस तरह के विखंडन वादी बातें की जाती हैं, पर देश की सारी संवैधानिक और कानूनी संस्थाएँ मूकदर्शक बनी रहती हैं।
“आज से एक दशक पहले तक जाने-अनजाने अगर किसी नेता के मुँह से अमर्यादित और असंसदीय बातें (unparliamentory language) किसी नेता के ज़ुबान से निकल जाती थी तो वे उसपर अफसोस व्यक्त करते थे। खुले मंचों से देशवासियों से माफी मांगने से नहीं चूकते थे। लेकिन, आज धड़ल्ले से अमर्यादित और गैर संसदीय बातें सार्वजनिक मंचों से की जा रही हैं। इसके लिए उस नेता की ओर से, न उसके संगठन और न ही उस संगठन के किसी ज़िम्मेदार पदाधिकारी नेता की ओर से, उस बयान का खंडन किया जाता है। उल्टे सब के सब इस पर चुप्पी साध लेते हैं। इससे किनारा करना भी मुनासिब नहीं समझते। उनकी यह चुप्पी कितनी खतरनाक है, यह उन्हें समझ में नहीं आ रहा है। उनकी इसी चुप्पी के कारण, आज भीड़-हिंसा (mob lynching) जैसी घृणित परिपाटी निकल पड़ी है। अगर ऐसा ही रहा तो इसके भयंकर परिणाम देश और देशवासियों को आने वाले समय में भुगतने पड़ेंगे।”
इस तरह के भाषण और बात करने वाले लोग सिर्फ सामान्य नेता नहीं हैं। देश और राज्य के सर्वोच्च पदों पर आसीन ज़िम्मेदार लोग भी शायद, यह भूल चुके हैं कि शब्द ही ब्रह्म है। यह सभी अपनी जुबानों से ज़हर उगलते देखे और सुने गए हैं। देशवासियों को उनसे उम्मीद थी कि वे अपने कनिष्ठ लोगों के गलत बयानी का खंडन कर उन्हें चेतावनी देने और दंडित करने का कार्य करेंगे। लेकिन, ऐसा दिखाई दे रहा है कि आज हमाम में सब के सब नंगे हैं। आजकल राजनीतिक शुचिता की बातें करना बेईमानी-सा लगने लगा है।
“देश और समाज को बाँटने वाले बयान देने वाले लोगों और उनके संगठनों का हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए। अब उम्मीद की किरण सिर्फ देश के बुद्धिजीवियों और युवा-नौजवान पीढ़ी से है कि वह इस तरह के लोगों को अपने संवैधानिक मताधिकार का प्रयोग कर सबक सिखाने का काम करेंगे। ताकि, देश और उनके खुद का भविष्य सुरक्षित रह सके।”
ऐसे लोगों का साथ किसी भी हालत में रोकना पड़ेगा। ताकि, वे खुद अलग-थलग होकर अपनी गलती का एहसास कर सकें। देशवासियों को सत्ता के शीर्षस्तर से उम्मीद है कि अब आने वाले दिनों में देश और समाज में नफरत के दीवार खड़ा करने वाले बयान बाजी नहीं होगी। पक्ष और विपक्ष सभी को मान सम्मान दिया जाएगा। देश के डूबती अर्थव्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य और आम लोगों की बुनियादी जरूरतों पर बात होगी। देश के नवरत्न कंपनियों को बेचने पर रोक लगेगी। रेलवे, बीएसएनएल, एलआईसी में किया जा रहा विनिवेश तत्काल रोका जाए ताकि देश में राष्ट्रीय पूंजी का सृजन हो। ना कि राष्ट्रीयपूंजी मुट्ठी भर लोगों के हाथ में सौंप दी जाए।
राष्ट्रीयता की बात सिर्फ चुनावी मंचों से शोभा नहीं देती। हक़ीक़त में उसे जमीन पर उतारना होगा। जल, जंगल और ज़मीन को उसके असली हक़दार को देना होगा। साथ ही उनका संरक्षण करना होगा। मूल निवासियों के अधिकार लौटाने होंगे। सामाजिक समरसता, भाईचारा, विश्व बंधुत्व, धार्मिक सहनशीलता आदि विचारधारा पर ही देश आगे बढ़ेगा। गांधी, नेहरू, पटेल, नेताजी, भगत सिंह की विरासत को सर्वोच्चता प्रदान करने के लिए काम किया जाना चाहिए। देश के तमाम गरीब और वंचित समूह के बच्चों को मूल्य वर्धित शिक्षा और युवाओं को सरकारी क्षेत्र में रोज़गार दिया जाना चाहिए। स्वास्थ्य के क्षेत्र में हर जिला में सुविधा युक्त सरकारी अस्पताल बनना चाहिए। ताकि, किसी भी जिले वासियों को सामान्य बीमारियों के इलाज के लिए, देश और राज्य की राजधानी में दौड़ न लगानी पड़े।
राजनीति, न्यायपालिका, पत्रकारिता, ब्यूरोक्रेसी, टेक्नोक्रेसी में समाज के सभी लोगों को समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रदान करने की पुख्ता व्यवस्था किया जाना अतिआवश्यक है। जब तक देश के सभी लोग आगे नहीं बढ़ेंगे, तब तक भारत विकसित देशों के समक्ष सदियों तक खड़ा नहीं हो सकता। देश के प्रत्येक बच्चों को शिक्षा और युवाओं को योग्यता के अनुसार रोजगार दिए जाने की आवश्यकता है। देशवासियों की भी जिम्मेदारी है कि अगर समाज और राजनीति से जुड़े लोग देश में वैमनस्य फैलाने का कार्य कर रहे हैं, तो उनके साथ हरगिज़ खड़े न हों।