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प्रथम पूजिये गौरी पुत्र गणेश: गणपति के ऐसे 8 मंदिर, जहां स्वयं प्रकट हुई उनकी प्रतिमाएं

  दया शंकर चौधरी

सनातन धर्म में भगवान श्री गणेश को प्रथम पूज्य माना जाता है। वहीं श्री गणेश आदि सनातन धर्म के प्रमुख आदिपंच देवों में भी शामिल हैं। अन्य भगवानों की तरह ही श्री गणेश जी का भी हर साल एक प्रमुख त्योहार गणेश चतुर्थी भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को आता है, वहीं इस दौरान श्री गणेशजी का गणेश उत्सव 10 दिनों तक पूरे देश में जगह जगह मनाया जा रहा है।

ऐसे में आज हम आपको देश के प्रमुख गणेश मंदिरों में से एक अष्ठविनायक मंदिर के बारे में बता रहे हैं। दरअलस पुणे के विभिन्‍न इलाकों में श्री गणेशजी के आठ मंदिर हैं, इन्‍हें अष्‍टविनायक कहा जाता है। इन मंदिरों को स्‍वयंभू मंदिर भी कहा जाता है। स्‍वयंभू का अर्थ है कि यहां भगवान स्‍वयं प्रकट हुए थे, यानि किसी ने उनकी प्रतिमा बना कर स्‍थापित नहीं की थी। इन मंदिरों का जिक्र विभिन्‍न पुराणों जैसे गणेश और मुद्गल पुराण में भी किया गया है। ये मंदिर अत्‍यंत प्राचीन हैं और इनका ऐतिहासिक महत्‍व भी है। इन मंदिरों की दर्शन यात्रा को अष्‍टविनायक तीर्थ यात्रा भी कहा जाता है। अष्टविनायक मंदिर के संबंध में मान्यता है कि तीर्थगणेश के ये आठ पवित्र मंदिर स्वयं उत्पन्न और जागृत हैं। धार्मिक नियमों से तीर्थयात्रा शुरू की जानी चाहिए। यात्रा निकट मोरगांव से शुरू कर और वहीं समाप्त होनी चाहिए। पूरी यात्रा 654 किलोमीटर की होती है।

पुराणों व धर्म ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि भगवान श्रीब्रह्माजी ने भविष्यवाणी की थी कि हर युग में श्रीगणेश विभिन्न रूपों मे अवतरित होंगे। सतयुग में विनायक, त्रेता युग में मयूरेश्वर, द्वापर युग में गजानन व कलयुग में धूम्रकेतु नाम से अवतार लेंगे। भगवान श्रीगणेश के आठों शक्तिपीठ महाराष्ट्र में ही हैं। ऐसी मान्यता है कि दैत्य प्रवृतियों के उन्मूलन के लिए ये ईश्वरीय अवतार हैं।

ये हैं वो आठ मंदिर…मयूरेश्वर या मोरेश्वर मंदिर

मयूरेश्वर विनायक का मंदिर पुणे के मोरगांव क्षेत्र में है। पुणे से करीब 80 किलोमीटर दूर मयूरेश्वर मंदिर के चारों कोनों में मीनारें और लंबे पत्थरों की दीवारें हैं। यहां चार द्वार भी हैं जिन्‍हें सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग चारों युग का प्रतीक मानते हैं। यहां गणेश जी की मूर्ती बैठी मुद्रा में है और उसकी सूंड बाई है तथा उनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। यहां नंदी की भी मूर्ती है। कहते हैं कि इसी स्‍थान पर गणेश जी ने सिंधुरासुर नाम के राक्षस का वध मोर पर सवार होकर उससे युद्ध करते हुए किया था। इसी कारण उनको मयूरेश्वर कहा जाता है।

सिद्धिविनायक मंदिर

सिद्धिविनायक मंदिर करजत तहसील, अहमदनगर में है। ये मंदिर पुणे से करीब 200 किमी दूर भीम नदी पर स्‍थित है। यह मंदिर करीब 200 साल पुराना बताया जाता है। सिद्धटेक में भगवान विष्णु ने सिद्धियां हासिल की थी, वहीं एक पहाड़ की चोटी पर सिद्धिविनायक मंदिर बना हुआ है। इसका मुख्य द्वार उत्तर दिशा की ओर है। इस मंदिर की परिक्रमा करने के लिए पहाड़ की यात्रा करनी होती है। सिद्धिविनायक मंदिर में गणेशजी की मूर्ति 3 फीट ऊंची और ढाई फीट चौड़ी है। यहां गणेश जी की सूंड दाहिने हाथ की ओर है।

बल्लालेश्वर मंदिर

पाली गांव, रायगढ़ में इस मंदिर का नाम गणेश जी के भक्‍त बल्‍लाल के नाम पर रखा गया है। बल्‍लाल की कथा के बारे में कहते हैं कि इस परम भक्‍त को उसके परिवार ने गणेश जी की भक्‍ति के चलते उनकी मूर्ती सहित जंगल में फेंक दिया था। जहां उसने केवल गणपति का स्‍मरण करते हुए समय बिता दिया था। इससे प्रसन्‍न होकर गणेश जी ने उसे इस स्‍थान पर दर्शन दिया और कालांतर में बललाल के नाम पर उनका ये मंदिर बना। ये मंदिर मुंबई-पुणे हाइवे पर पाली से टोयन और गोवा राजमार्ग पर नागोथाने से पहले 11 किलोमीटर दूर स्थित है।

वरद विनायक मंदिर

रायगढ़ के कोल्हापुर में वरदविनायक मंदिर है। एक मान्यता के अनुसार वरदविनायक भक्तों की सभी कामनाओं को पूरा होने का वरदान देते हैं। एक कथा ये भी है कि इस मंदिर में नंददीप नाम का दीपक है जो कई वर्षों से लगातार प्रज्वलित हो रहा है।

चिंतामणी मंदिर

तीन नदियों ‘भीम, मुला और मुथा’ के संगम पर स्‍थित थेऊर गांव में स्थित है चिंतामणी मंदिर। ऐसी मान्‍यता है कि विचलित मन के साथ इस मंदिर में जाने वालों की सारी उलझन दूर हो कर उन्‍हें शांति मिल जाती है। इस मंदिर से भी जुड़ी एक कथा है कि स्वयं भगवान ब्रह्मा ने अपने विचलित मन को शांत करने के लिए इसी स्थान पर तपस्या की थी।

गिरिजात्मज अष्टविनायक मंदिर

लेण्याद्री गांव में गिरिजात्मज अष्टविनायक मंदिर स्थित है। जिसका अर्थ है गिरिजा के आत्‍मज यानी माता पार्वती के पुत्र अर्थात गणेश। यह मंदिर पुणे-नासिक राजमार्ग पर पुणे से करीब 90 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। इसे लेण्याद्री पहाड़ पर बौद्ध गुफाओं के स्थान पर बनाया गया है। इस पहाड़ पर 18 बौद्ध गुफाएं हैं जिसमें से 8वीं गुफा में गिरिजात्मज विनायक मंदिर है। इन गुफाओं को गणेश गुफा भी कहा जाता है। मंदिर तक पहुंचने के लिए करीब 300 सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। एक अौर विशेषता ये है कि यह पूरा मंदिर एक ही बड़े पत्थर को काटकर बनाया गया है।

विघ्नेश्वर अष्टविनायक मंदिर

पुणे के ओझर जिले के जूनर क्षेत्र में यह मंदिर स्थित है। पुणे-नासिक रोड पर करीब 85 किलोमीटर दूरी पर ये मंदिर बना है। एक किंवदंती के अनुसार विघनासुर नाम का असुर जब संतों को प्रताणित कर रहा था, तब भगवान गणेशजी ने इसी स्‍थान पर उसका वध किया था। तभी से यह मंदिर विघ्नेश्वर, विघ्नहर्ता और विघ्नहार के रूप में जाना जाता है।

महागणपति मंदिर

महागणपति मंदिर राजणगांव में स्‍थित है । इस मंदिर को 9-10वीं सदी के बीच का माना जाता है। पूर्व दिशा की ओर मंदिर का बहुत विशाल और सुन्दर प्रवेश द्वार है। यहां गणपति की मूर्ति को माहोतक नाम से भी जाना जाता है। एक मान्यता के अनुसार विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षा करने के लिए इस मंदिर की मूल मूर्ति को तहखाने में छिपा दिया गया है।

इन आठ पवित्र तीर्थ में 6 पुणे में हैं और 2 रायगढ़ जिले में हैं। सबसे पहले मोरेगांव के मोरेश्वर की यात्रा करनी चाहिए और उसके बाद क्रम में सिद्धटेक, पाली, महाड, थियूर, लेनानडरी, ओजर, रांजणगांव और उसके बाद फिर से मोरेगांव अष्टविनायक मंदिर में यात्रा समाप्त करनी चाहिए।

प्रथम पूजिये गौरी पुत्र गणेश

गणेश जी, लक्ष्मी जी व सरस्वती जी के साथ पूजे जाते हैं। उन्होंने दोनों को आदर्श रूप में समन्वित कर रखा है। अपने बुद्धि चातुर्य के कारण वे प्रथम पूज्य हुए और ऋद्धि-सिद्धि के कारण संपत्ति के अधिष्ठाता भी हुए। इस प्रकार विद्या, बुद्धि और सम्पत्ति के एकसाथ दाता श्री गणेशजी माने जाते हैं। ऐसा अद्भुत समन्वय श्रीगणेश जी में ही दृष्टिगोचर होता है।

भारतीय संस्कृति में गणेशजी को प्रथम पूज्य देवता का स्थान प्राप्त है। उन्हें विघ्नहर्ता व ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी माना गया है। वे प्रत्येक शुभ कार्य को सफल बनाते हैं, इसलिए हर मंगल कार्य के आरंभ में श्रीगणेशजी की वंदना अनिवार्य समझी गई है। कहा भी गया है ‘वंदे शैल सुतासुतं गणपति सिद्धिप्रदम कामदाम।’ दैनिक जीवन के प्रत्येक शुभ अवसर पर गणेशजी का शुभ स्मरण प्रत्येक भारतीय के मन में अनायास ही हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी मानस में ‘प्रथम पूजिये गौरी पुत्र गणेश…’ कह कर श्री गणेशजी की प्रथम स्तुति के साथ उनकी महत्ता प्रतिपादित की है। स्वयं महर्षि व्यासजी ने ‘महाभारत’ जैसे महाकाव्य की रचना गणेशजी के सहयोग से की। व्यासजी के कथनानुसार ही गणेशजी ने लेखन किया। गणेशजी के प्रथम पूज्य होने के संबंध में अनेक कथाएं लोकजीवन में प्रचलित हैं। वे रुद्रगणों के अधिपति हैं अतः कार्यारम्भ में उनकी प्रथम पूजा करने से उस कार्य के संपादन में रुद्रगण कोई विघ्न उत्पन्न नहीं करते और कार्य निर्विघ्न सम्पन्न होता है। पद्मपुराण के अनुसार सृष्टि के आरंभ में जब यह प्रश्न उठा कि प्रथम पूज्य किसे माना जाए, तब देवतागण ब्रह्माजी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी ने कहा कि जो कोई सम्पूर्ण पृथ्वी की प्रदक्षिणा सबसे पहले करेगा, वह प्रथम पूज्य होगा। सब देवता अपने-अपने वाहनों- रथ, अश्व, हाथी आदि पर सवार होकर परिक्रमा हेतु चल पड़े। गणेशजी का शरीर स्थूल है और उनका वाहन मूषक (चूहा) माना गया है। सब देवताओं के साथ भला गणेशजी कैसे दौड़ सकते थे। देवर्षि नारद की सम्मति से गणेशजी ने भगवान शंकर एवं माता पार्वतीजी की प्रदक्षिणा की, क्योंकि ‘माता साक्षात‍् क्षितेस्तनु’ अर्थात‍् माता साक्षात‍् वसुंधरा हैं और पिता प्रजापति के स्वरूप हैं। इस प्रकार गणेशजी ने माता-पिता की भक्ति का आदर्श भी स्थापित किया।

गणेश पुराण में भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेशजी का जन्म होना बताया गया है। कुछ ग्रंथों में भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मध्याह्न में गणेशजी का प्रकट होना बताया गया है। वैसे भविष्य पुराण की मान्यता के अनुसार प्रत्येक चतुर्थी गणपति जयंती के समकक्ष ही मानी गई है और चतुर्थी व्रत का महत्व बताया गया है। संकष्ट चतुर्थी को संकट हरने के लिए गणेशजी की पूजा-अर्चना व व्रत का विशेष महत्व प्रतिपादित किया गया है। गणेशजी की शारीरिक आकृति अत्यंत सारगर्भित है। उनका प्रत्येक अंग किसी न किसी रहस्य को लिए है।

गणेशजी शूपकर्ण कहलाते हैं। उनके सूप के आकार की भांति बड़े-बड़े कान इस बात के परिचायक हैं कि वे सबकी प्रार्थना सुनते हैं। वे इस बात की प्रेरणा भी देते हैं कि हमें हमेशा अपनी बात दूसरों पर न थोपते हुए सभी की बात सुनने का अभ्यस्त होना चाहिए। गजेंद्र बदन गणेशजी का गज मस्तक रूपी विशाल सिर दूरदृष्टि लिए विशाल दृष्टिकोण व गंभीरता का प्रतीक है।

गणेशजी वक्रतुंड हैं। उनकी लम्बी नाक या सूंड स्वाभिमान को दर्शाती है। यह “वाचा तपस्या या वाणी नियंत्रण” का संदेश भी देती है। उनकी छोटी-छोटी आंखें उनके सूक्ष्मदर्शी होने के गुण को प्रदर्शित करती हैं। वे इस बात की भी प्रतीक हैं कि समस्याओं के प्रति सूक्ष्मदृष्टि से चिंतन करने वाला वंदनीय होता है। एकदंत गणेशजी का बायां दांत खंडित है, जो यह दर्शाता है कि वे राग-द्वेष से परे हैं, क्योंकि हाथी के दो दांत राग-द्वेष के प्रतीक माने गए हैं। उनकी चार भुजाएं अथक श्रम की परिचायक हैं। विशालकाय गणेशजी का वाहन (मूषक) चूहा माना गया है। यह छोटे प्राणियों के महत्व को परिलक्षित करता है। श्रीगणेश का शाब्दिक अर्थ है जो समस्त जीव जाति के ईश हों। वे शिवजी के गणों के अधिपति हैं। इसी कारण उन्हें गणपति भी कहा गया है। जगद‍्गुरु शंकराचार्य ने अपने भाष्य में गणेशजी को ज्ञान और मोक्ष का अधिपति बताया है।

श्री गणेशजी अनेक पौराणिक आख्यानों, किंवदंतियों और लोक कथाओं के नायक हैं। इनमें उनकी मातृभक्ति, कर्तव्यनिष्ठा और बुद्धिचातुर्य का बखान है। वे शौर्य, साहस तथा नेतृत्व के परिचायक हैं। गणेशजी, लक्ष्मीजी व सरस्वतीजी के साथ पूजे जाते हैं। उन्होंने दोनों को आदर्श रूप में समन्वित कर रखा है। अपने बुद्धि चातुर्य के कारण वे प्रथम पूज्य हुए और ऋद्धि-सिद्धि के कारण संपत्ति के अधिष्ठाता भी हुए। इस प्रकार विद्या, बुद्धि और सम्पत्ति के एक साथ दाता श्री गणेशजी माने जाते हैं। ऐसा अद्भुत समन्वय श्री गणेशजी में ही दृष्टिगोचर होता है।

सनातन धर्म के अनुसार गाय में 33 कोटि (प्रकार) देवी-देवता निवास करते हैं। इसका मतलब गाय में 33 प्रकार के देवता निवास करते हैं। ये देवता हैं- 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और 2 अश्‍विन कुमार। ये मिलकर कुल 33 होते हैं। इस लिए किसी भी शुभ कार्य के बाद गौपूजन के लिए गायों को भोजन अवश्य कराना चाहिए। शास्त्रों और विद्वानों के अनुसार कुछ पशु-पक्षी ऐसे हैं, जो आत्मा की विकास यात्रा के अंतिम पड़ाव पर होते हैं। उनमें से गाय भी एक है। इसके बाद उस आत्मा को मनुष्य योनि में आना ही होता है। पौराणिक मान्यताओं व श्रुतियों के अनुसार, गौएं साक्षात विष्णु स्वरूप है, गौएं सर्व वेदमयी और वेद गौमय है। भगवान श्रीकृष्ण को सारा ज्ञानकोष गोचरण से ही प्राप्त हुआ। ऐसी मान्यता है कि गणेश भगवान का सिर कटने पर शिवजी पर एक गाय दान करने का दंड रखा गया था और वहीं पार्वती को देनी पड़ी। गुरु गोविंदसिंहजी ने भी गायों के लिए कहा था कि, ‘यही देहु आज्ञा तुरुक को खापाऊं, गौ माता का दुःख सदा मैं मिटाऊं।’

गणेश भगवान को “गोबर गणेश” क्यों कहा जाता है

भगवान गणेश को लोक देवता भी कहा जाता है। सनातन धर्म में पाँच देवताओं की मुख्य रूप से पूजा की जाती है। हिरण्यगर्भ या सूर्य से सृष्टि ( सृष्टि का अर्थ ही उत्पत्ति होता है) की, विष्णु से पालन की, शिव से महाप्रलय की, शक्ति से निग्रह की और गणेश एक सुपर मेमोरी के रूप में अनुग्रह के रूप में पूजे जाते हैं ।

गणेश का दूसरा स्वरूप ( अनुग्रह के अतिरिक्त) बुद्धि और विवेक का भी है । क्योंकि बुद्धि और विवेक ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है। भगवान गणेश के लिए ‘विनायक’ शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। संस्कृत भाषा में विनायक का अर्थ वास्तव में विघ्न देने वाला होता है । घबराइए मत, विनायक का अर्थ संस्कृत भाषा में यही होता है। ऐसा क्यों होता है? हमारी शरीर में इंद्रियाँ यदि वश में न रहें तो वह विघ्न डालने लगती है । जैसे आपकी आँख सुन्दर रूप देखने को बेचैन हो जाए तो वह आपके पैरों को भी प्रेरित करेगी चलने के लिए।पर यदि इन इंद्रिय गण का कोई नायक बन जाए (गणेश) तो वह विघ्न को हर लेता है ।
अत: अनुग्रह, बुद्धि विवेक और इंद्रिय गण को नियंत्रण में रखने वाले और विघ्नहरण करने वाले गणेश जी लोक देवता भी कहे जाते हैं।

आम जन मानस में ‘गोबर गणेश’ का मुहावरा भी प्रचलन में है। आइए इसे भी समझने का प्रयास करें

भक्त गाय को माता और गोबर को पवित्र मानते हैं। गोबर गणेश की पूजा भी करते हैं। पर ‘गोबर का छोत, गुड़ गोबर होना, गोबर गणेश, ‘गोबर पाथना’ इत्यादि प्रचलित हिंदी मुहावरे ये इशारा करते हैं कि गोबर पवित्र नहीं वल्कि फालतू गंदा चीज है। क्या ये हिन्दू धर्म पर प्रहार तो नहीं? क्या शब्दकोश में इनके अर्थ बदलने की आवश्यकता है? भक्त भी तो ‘गोबर’ शब्द सुनकर खुश नहीं होते होंगे। बल्कि चिढ़ते होंगे।
इसी कड़ी से जुड़े कुछ अन्य शब्द और मुहावरे भी हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे गोबरगणेश। मूर्ख, भोंदू, भद्दा या नालायक के अर्थ में गोबरगणेश मुहावरा हिन्दी में खूब प्रयोग होता है।

गौरतलब है कि गोबरगणेश का संदर्भ पुराणों से जुड़ा है। देवों-दानवों में हुए ‘अमृतमंथन’ के दौरान ‘नंदा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला और बहुला’ नामक पांच कामधेनुएं भी निकली थीं। ऐसा माना जाता है कि देवों को दानवों के संत्रास से मुक्ति दिलाने के लिए आदिशक्ति देवी दुर्गा ने सुरभि गाय के गोबर से गणेश की रचना की और उन्हें विभिन्न शक्तियां प्रदान कर अपना वाहन सिंह प्रदान किया। गणेश ने दानवों का संहार किया और इस तरह गणनायक या गणपति की उपाधि प्राप्त की। गोबरगणेश मुहावरे में दरअसल यह संदर्भ छिपा रह जाता है पर अर्थवत्ता पूरी तरह उभर रही है। ऐसा लगता है कि गोबर से गणेश की रचना एक महान उद्धेश्य के निमित हुई। देवी दुर्गा ने अपनी शक्तियों का संचार कर उसे समर्थ बनाया। लौकिक अर्थों में किसी व्यक्ति को गोबरगणेश कहने के पीछे का आशय है कि वह मूर्ख है और पौराणिक गोबरगणेश की तरह उसमें अलौकिक क्षमताएं नहीं हैं। वह निरा मिट्टी का माधौ है। कुछ लोग देसी गाय के गोबर में उभरी रेखाओं में नजर आती विभिन्न आकृतियों में भी गणेश का रूपाकार देखते हुए गोबरगणेश को इससे जोड़ते हैं। गुड़गोबर करना मुहावरा भी इसी मूलभावना से आ रहा है। यहां भी गोबर के प्रति नकारात्मक भाव सामने आ रहा है। “बना बनाया काम बिगड़ना” के अर्थ में इसका प्रयोग होता है। बता दें कि गन्ने से गुड़ के निर्माण की प्रक्रिया बड़ी जटिल होती है। निर्माण के विभिन्न चरणों में अगर सावधानी न बरती जाए तो गुड़ ठोस आकार नहीं ले पाता है और पतला रह जाता है। इसीलिए कहा जाता था कि सब गुड़, गोबर कर दिया। बाद में गुड़ से विराम हट गया और गुड़गोबर एक शब्द बन गया। लोक प्रचलन में ‘गोबर गणेश’ का अर्थ या भाव चाहे जो भी हो, किन्तु लौकिक परिवेश में गाय गोबर और गोमूत्र का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है।

गाय के गोबर से जुड़े वैज्ञानिक तथ्य…

बायोगैस, गोबर गैस : गैस और बिजली संकट के दौर में गांवों में आजकल गोबर गैस प्लांट लगाए जाने का प्रचलन चल पड़ा है। पेट्रोल, डीजल, कोयला व गैस तो सब प्राकृतिक स्रोत हैं, किंतु यह बायोगैस तो कभी न समाप्त होने वाला स्रोत है। जब तक गौवंश है, तब तक हमें यह ऊर्जा मिलती रहेगी।

गोबर गैस प्लांट के पर्यावरणीय फायदे: एक प्लांट से करीब 7 करोड़ टन लकड़ी बचाई जा सकती है, जिससे करीब साढ़े 3 करोड़ पेड़ों को जीवनदान दिया जा सकता है। साथ ही करीब 3 करोड़ टन उत्सर्जित कार्बन डाई ऑक्साइड को भी रोका जा सकता है।

  • गोबर गैस संयंत्र में गैस प्राप्ति के बाद बचे पदार्थ का उपयोग खेती के लिए जैविक खाद बनाने में किया जाता है?
  • खेती के लिए भारतीय गाय का गोबर अमृत समान माना जाता था। इसी अमृत के कारण भारत भूमि सहस्रों वर्षों से सोना उगलती आ रही है।
  • वैज्ञानिक कहते हैं कि गाय के गोबर में विटामिन बी-12 प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह रेडियोधर्मिता को भी सोख लेता है। आम मान्यता है कि गाय के गोबर के कंडे से धुआं करने पर कीटाणु, मच्छर आदि भाग जाते हैं तथा दुर्गंध का नाश हो जाता है।
  • गाय के सींग गाय के रक्षा कवच होते हैं। गाय को इसके द्वारा सीधे तौर पर प्राकृतिक ऊर्जा मिलती है। यह एक प्रकार से गाय को ईश्वर द्वारा प्रदत्त एंटीना उपकरण है। गाय की मृत्यु के 45 साल बाद तक भी ये सुरक्षित बने रहते हैं। गाय की मृत्यु के बाद उसके सींग का उपयोग श्रेष्ठ गुणवत्ता की खाद बनाने के लिए प्राचीन समय से होता आ रहा है।
  • गौमूत्र और गोबर फसलों के लिए बहुत उपयोगी कीटनाशक सिद्ध हुए हैं। कीटनाशक के रूप में गोबर और गौमूत्र के इस्तेमाल के लिए अनुसंधान केंद्र खोले जा सकते हैं, क्योंकि इनमें रासायनिक उर्वरकों के दुष्प्रभावों के बिना खेतिहर उत्पादन बढ़ाने की अपार क्षमता है। इसके बैक्टीरिया अन्य कई जटिल रोगों में भी फायदेमंद होते हैं। गौमूत्र अपने आस-पास के वातावरण को भी शुद्ध रखता है।
  • कृषि में रासायनिक खाद और कीटनाशक पदार्थ की जगह गाय का गोबर इस्तेमाल करने से जहां भूमि की उर्वरता बनी रहती है, वहीं उत्पादन भी अधिक होता है। दूसरी ओर पैदा की जा रही सब्जी, फल या अनाज की फसल की गुणवत्ता भी बनी रहती है। जुताई करते समय गिरने वाले गोबर और गौमूत्र से भूमि में स्वतः खाद डलती जाती है।
  • प्रकृति के 99% कीट प्रणाली के लिए लाभदायक हैं। गौमूत्र या खमीर हुए छाछ से बने कीटनाशक इन सहायक कीटों को प्रभावित नहीं करते। एक गाय का गोबर 7 एकड़ भूमि को खाद और मूत्र 100 एकड़ भूमि की फसल को कीटों से बचा सकता है। केवल 40 करोड़ गौवंश के गोबर व मूत्र से भारत में 84 लाख एकड़ भूमि को उपजाऊ बनाया जा सकता है।
  • गाय के गोबर का चर्म रोगों में उपचारीय महत्व सर्वविदित है। प्राचीनकाल में मकानों की दीवारों और भूमि को गाय के गोबर से लीपा-पोता जाता था। यह गोबर जहां दीवारों को मजबूत बनाता था वहीं यह घरों पर परजीवियों, मच्छर और कीटाणुओं के हमले भी रोकता था। आज भी गांवों में गाय के गोबर का प्रयोग चूल्हे बनाने, आंगन लीपने एवं मंगल कार्यों में लिया जाता है।

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