आखिर उस दिन देवव्रत को अपने पिता शांतनु के चिंतित रहने का कारण पता चल ही गया। उसने आजीवन अविवाहित रहने व ब्रम्हचर्य व्रत का पालन करने की प्रतिज्ञा कर ली। फलतः शांतनु को दूसरी पत्नी के रूप में सत्यवती मिली। नई-नवेली बहू पाकर हस्तिनापुर नगरी भी खुश थी।
एक दिन शांतनु ने देवव्रत से पूछा- ‘पुत्र ! तुमने यह भीष्म प्रतिज्ञा क्यों ली ‘ देवव्रत का प्रत्युत्तर था- ‘पिताजी ! यदि इस संसार में एक पिता अपने पुत्रहित के लिए कुछ भी कर सकता है, तो एक पुत्र अपने पिता के लिए कुछ तो कर सकता है?’ अपराधबोध में डूबे शांतनु निरुत्तर हो गये।
आज यह बात गंगा तक पहुँची। गंगा देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा से प्रसन्न नहीं थी। वह कदाचित् इस अपराधबोध से घिर गयी कि पुत्र की प्रतिज्ञा के लिए स्वयं जिम्मेदार है।