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आधुनिक जीवन का पथ-प्रदर्शक है पर्यूषण पर्व…

पर्यूषण पर्व जैन-संस्कृति का एक अनादि पर्व है। यह पर्व न केवल सामाजिक या आध्यात्मिक है, बल्कि आत्म-जागरण का पर्व है, मनुष्य के अंतरमन में व्याप्त ईर्ष्या-द्वेष और परस्पर मनोमालिन्य के प्रक्षालन का पर्व है, काम-क्रोध-मोह-लोभ जैसे शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का पर्व है। आधुनिक समय में जबकि हम बहुत सारी व्यर्थ की चिंताओं, इच्छाओं, विचार, कुंठा, निराशा के साथ रह रहे हैं, हमें मनोवैज्ञानिक की जरूरत होती है। हमें अपने जीवन को व्यवस्थित करने और अपनी इच्छाओं को मैनेज करने और ऊर्जा को व्यवस्थित करने की जरूरत है। पर्यूषण पर्व हमें इसमें मदद करता है।

महावीर की शिक्षाएं हमें बताती हैं कि इस भौतिकवादी दुनिया में हम किस तरह से अपनी इच्छाओं को सीमित करें, कुंठाओं से निबटें और चिंताओं का शमन करें ताकि हम सुखी, शांत और आध्यात्मिक जीवन जी सकें।

भगवान महावीर स्वामी ने अपने अंतिम समय में संदेश दिया था –

‘एगे जिए जिया पंच, पंच जिये जिया दस।”

दसहा उ जिणित्ताणं, सव्वसत्तू जिणामहम्।।

अर्थात ‘एक आत्म/मन को जीतने से पांचों इंद्रियों को जीता जा सकता है। मन को जीतने पर क्रोध, मोह, लोभ आदि कषायों को जीत सकते हैं। ऐसा यह पुनीत पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार माघ, चैत्र और भाद्रपद माह में मनाया जाता है। किंतु श्वेताम्बर शाखा के जैन जन भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी से आठ दिन तक तत्पश्चात दिगंबर जैन भाद्रपद शुक्ल पंचमी से दस दिन तक मनाते हैं। इस पुष्य काल में सभी जैन धर्मावलंबी धर्म-आराधना, तप-ध्यान, दान-त्याग आदि धार्मिक क्रियाएं अतिश्रद्धा से करते हैं। जिससे कि संचित पाप कर्मों का क्षय होता है और मोक्ष प्राप्ति का पथ प्रशस्त बन सकें।

यह आस्था इसलिए है कि जैन धर्म की मान्यता है कि यहां भगवान अवतरित नहीं होते हैं, साधक अपने कर्मों और पुरुषार्थ से, तप-त्याग ध्यान आदि की निरंतर साधना से एक दिन स्वयं ही भगवान बन जाता है। जैन मत में भाग्य विधाता का कोई अस्तित्व नहीं है, मनुष्य अपने ही कर्मों से अपना भाग्य गढ़ना है, अत: यहां कर्म की प्रधानता है और कर्मों से ही उसके जीवन में सुख-दुख शासित होते हैं। इस प्रोफेशनल दुनिया में यही तो एकमात्र सत्य है कि आप स्वयं ही अपने भाग्य निर्माता है। इसलिए श्रम करें, ईमानदार रहें। इस मान्यता से पर्यूषण पर्व में सत्कर्म करते हुए आत्म-साधना की जाती है जिससे व्यक्ति अपनी आत्मा के स्वभाव की ओर लौट आए और सत्कर्म में प्रवृत्त हो।

इसके लिए जैन धर्माचार्यों ने आत्मा के दश स्वभाव, गुण या लक्षण प्रतिपादित किए हैं। ये गुण जीवन में व्याप्त सभी कषायों और विकारों को समूल नष्ट कर उसके जीवन को प्रसन्नाता और धन्यता से परिपूर्ण कर देते हैं। ये दस गुण-लक्षण हैं-

1. उत्तम क्षमा – क्षमा का तात्पर्य है सच्चे मन से अपनी की हुई गलती का प्रायश्चित करना अर्थात अपने अपराधों की क्षमा मांगना। क्रोध का जब पूर्णतया शमन होगा तभी क्षमा का जन्म संभव है, क्षमा का गुण ऐसा विश्राम स्थल है, जहां मन पूर्ण शांत हो जाता है। इसलिए जाने-अनजाने यदि किसी को तकलीफ दी हो तो उससे माफी मांग ले, अपराध बोध कम होगा और सामने वाले का मन भी निर्मल हो जाएगा।

2. दूसरा गुण है मान के मर्दन, हनन का। जब अहंकार के भार से मुक्त होंगे तब मृदुता, नम्रता का विस्फोट होगा।

3. तीसरा लक्षण आर्जव है, इसमें सरल, सहज, निष्कपट भाव हों। यदि बुद्धि को प्रज्ञान बनाना है तो सरल बनो और आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ो, यह आचार्यों का प्रवचन है।

4. चौथा लक्षण शौच है ‘शुचे भवि: शौचम्।”संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है उस सुख की प्राप्ति के लिए वह कई पाप-कर्म करता है, लेकिन सुख सर्वदा पुण्य कर्मों से ही प्राप्त होते हैं, अत: अपने मन में शुद्ध भावों को जागृत करो, जिससे सत्कर्म करते रहने की ओजस्विता प्राप्त होती रहे।

5. पांचवा लक्षण है सत्य धर्म पालन करने की प्रेरणा। सत्य का अर्थ है ऐसे वचन बोलने चाहिए जिससे दूसरे जीवों का हित हो। कठोर, क्लेशकारी, अहंकारी वचन कभी भी हितकर नहीं है। अपने विचारों और व्यवहार में सत्य हो क्योंकि सत्य की ही सदा जय होती है। धर्म ग्रंथों में भी आप्त वाक्य है ‘सत्यमेव जयते।”

6. संयम अगला धर्म लक्षण है जिसे आत्म-नियंत्रण कहते हैं, मन में अनेक उफनती हुई वासनाओं के प्रति तीव्र आसक्ति पर नियंत्रण केवल संयम से ही संभव है और अपने मन को केवल संयम से ही वश में किया जा सकता है। अन्यथा विषय वासनाएं तो जीवन को नरक बना देंगी।

7. सातवां लक्षण तप है। जैन धर्म में कर्मों को नष्ट करने के लिए तप एक सशक्त योद्धा की तरह है जो उद्दाम वासनाओं का शमन करने का प्रबल साधन है। तपोबल के प्रभाव से तपस्वियों ने अहमिंद्र पद, इंद्र पद, उत्कृष्ट गणधर पद तक प्राप्त किए हैं। घने जंगलों में लूटपाट करने वाला खूंखार डाकू तप के फल से आदि कवि वाल्मीकि महर्षि बन जाता है। तप से नर नारायण बन जाते हैं।

8. त्याग एक धर्म-कर्म है। त्याग का अर्थ यहां छोड़ना नहीं है, महावीर कहते हैं त्याग में छोड़ना नहीं पाना ही पाना है। उपनिषद् का वाक्य है ‘तने त्यक्तेन भंजीथा:”। जो छोड़ते हैं, वे ही भोगते हैं। यह त्याग है कषायों का त्याग, विकारों का त्याग। ऐसे त्याग से साधक जीवन्मुक्त हो जाता है। जीवन्मुक्त स्थिति को प्राप्त कर लेता है।

9. अत्तम आकिंचन धर्म दशधर्म का नौंवा सोपान है। इसमें पदार्थों के प्रति ममत्व (मेरापन) का त्याग किया जाता है। वही आकिंचन धर्म है। अंतरंग और बहिरंग परिग्रहों से विरत रहने से ही आकिंचन धर्म प्रकट होता है। परिग्रह से रहित होने पर शुद्ध आत्मा की रसानुभूति का पूर्ण आनंद प्राप्त होता है और तत्काल बाद मोक्ष सुख की अनुभूति होने लगती है।

10. दसवां ब्रह्मचर्य धर्म है जिसमें आत्मा अशुद्धि को हटाकर शुद्धता की ओर बढ़ती है।

संक्षेप में पर्यूषण पर्व में इन दस धर्मों के पालन से जिनका काम-क्रोध-मान-मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप शत्रु पर विजय प्राप्त कर ली है, जिनकी कामनाएं पूर्ण रूप से शमित हो चुकी हैं वे ज्ञानीजन सुख-दु:ख के द्वंद्वों से मुक्त होते हुे उस अविनाशी परमपद को प्राप्त कर लेते हैं और लौटकर इस संसार में नहीं आते हैं।

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