जिले के नक्सली इलाके में घोर जंगल और पहाड़ों के बीच स्थित ये मंदिर 137 सालों से 32 मोटे खंभों पर टिका है। ऐसा कहा जाता है कि राजा की एक गलती के चलते ये मंदिर बनाया गया। इस मंदिर में सिले हुए वस्त्रों को पहनकर जाने की मनाही है। यहां पुरुषों को धोती या लुंगी लगाकर ही प्रवेश करने दिया जाता है।
इतिहास-
कहते हैं यहां देवी सती का दांत गिरा था, इसलिए इन्हें दंतेश्वरी माता कहा गया। राजधानी से करीब 380 किमी दूर दंतेवाड़ा में शंखिनी और डंकिनी नदियों के संगम पर स्थित इस मंदिर के बनने की कहानी बहुत रोचक है। कहते हैं इस मंदिर का निर्माण महाराजा अन्नमदेव ने चौदहवीं शताब्दी में किया था। वारंगल राज्य के प्रतापी राजा अन्नमदेव ने यहां आराध्य देवी मां दंतेश्वरी और मां भुवनेश्वरी देवी की स्थापना की।
एक दंतकथा के मुताबिक अन्नमदेव जब मुगलों से पराजित होकर जंगल में भटक रहे थे तो कुलदेवी ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि माघ पूर्णिमा के मौके पर वे घोड़े पर सवार होकर विजय यात्रा प्रारंभ करें। वे जहां तक जाएंगे, वहां तक उनका राज्य होगा और स्वयं देवी उनके पीछे चलेंगी, लेकिन पीछे मुड़कर मत देखना।
वरदान के अनुसार राजा ने वारंगल के गोदावरी के तट से उत्तर की ओर अपनी यात्रा प्रारंभ की। राजा अपने पीछे चली आ रही माता का अनुमान उनके पायल की घुंघरुओं से कर रहे थे। शंखिनी और डंकिनी की त्रिवेणी पर नदी की रेत में देवी के पैरों की घुंघरुओं की आवाज रेत में दब जाने के कारण बंद हो गई तो राजा ने पीछे मुड़कर देख लिया। इसके बाद देवी वहीं ठहर गईं। कुछ समय पश्चात मां दंतेश्वरी ने राजा के स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि मैं शंखिनी-डंकिनी नदी के संगम पर स्थापित हूं। कहा जाता है कि मां दंतेश्वरी की प्रतिमा प्राकट्य मूर्ति है और गर्भगृह विश्वकर्मा द्वारा निर्मित है। शेष मंदिर का निर्माण कालांतर में राजा ने किया।
ऐसे पहुंचें-
यहां तक पहुंचने के लिए सड़क मार्ग का साधन सुगम है। रायपुर से बस से जगदलपुर पहुंचकर दंतेवाड़ा पहुंचा जा सकता है। मंदिर प्रसिद्ध होने के कारण साधनों की कमी नहीं पड़ती।