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अपनी पीड़ा खत्म होने के लंबे इंतजार में जी रहे फलस्तीनी शरणार्थियों की एक झलक

अल बिद्दावी शिविर 1955 में फलस्तीनी नकबा के दौरान उन लोगों को आश्रय देने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था, जिन्हें इस्राइली सेना ने ऊपरी गेलीली और उत्तरी तटीय शहरों से जबरन बेदखल किया गया था। नकबा को अरबी भाषा में प्रलय जैसे हालात भी कहा जाता है। उसके बाद से इस शरणार्थी शिविर में आने वाले शरणार्थियों की संख्या कई गुना बढ़ गई है, क्योंकि हिंसा ने, इन देशविहीन फलस्तीनी शरणार्थियों का पीछा नहीं छोड़ा है। ये लोग लेबनान में गृहयुद्ध सेलेकर सीरिया में युद्ध तक से भी प्रभावित हुए हैं। इस कारण भारी संख्या में सीरियाई और फलस्तीनी शरणार्थी इस छोटे से देश लेबनान में पहुंचे हैं। संकीर्ण और बदहाल सड़कें यहां जीवित रहने के संघर्ष की प्रतीक हैं।

फलस्तीनी शरणार्थियों के लिए यूएन सहायता एजेंसी UNRWA का कहना है कि इस एक वर्ग किलोमीटर के दायरे में, 21 हजार से अधिक फलस्तीनी लोग, बहुत से निर्धन लेबनानी नागरिकों और सीरियाई शरणार्थियों के साथ गुजारा करते हैं। वर्ष 2019 के अंत से लेबनान में आर्थिक संकट की जकड़ बढ़ने के कारण इस इलाके में अन्य वंचित इलाकों की ही तरह रोजगारपरक काम की कमी हो गई है और जो लोग काम कर भी रहे हैं वे भी बमुश्किल गुजारा कर पा रहे हैं।

अहमद की आपबीती
अहमद (परिवर्तित नाम) आठ बच्चों के बेरोजगार पिता हैं और कई पुरानी बीमारियों से पीड़ित हैं। अहमद उनका असली नाम नहीं है। उन्होंने अपना असली नाम बताने में कतराते हुए यूएन न्यूज को बताया कि अक्सर चूहे, सड़क से लेकर चौथी मंजिल तक बिजली के तारों के सहारे उनके घर तक पहुंच जाते हैं। आसपास की अन्य इमारतों से जगह की तंगी के कारण उनके घर की खिड़कियां बंद रहने के बावजूद वो, चिलचिलाती गर्मी से राहत पाने के लिए अपने घर की खिड़कियां खुली रखने की कोशिश करते हैं।

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