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तुलसी के “ढ़ोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी” के वाद-विवाद के बीच रविदास की दो टूक…”मन चंगा तो कठौती में गंगा”

      दया शंकर चौधरी

जब भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की हुंकार भरी जा रही हो, जब गोस्वामी तुलसी दास जी रचित श्रीरामचरित मानस को आग के हवाले करके पूर्ण प्रतिबंधित करने की मांग की जा रही हो, जब ढ़ोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी। पर वाद-विवाद और विमर्श चल रहा हो, तब संत रविदास की ये पंक्तियां प्रासंगिक हो उठती हैं जिसमे कहा गया है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा।

हालांकि सद्गुरू रविदास या रैदास ने ये पंक्तियां उस समय कही थीं जब उन्होंने कर्म को प्रधानता देते हुए गंगा स्नान पर जाने से इंकार कर दिया था। किन्तु ये सार्वकालिक सत्य है कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। यदि आपका मन शुद्ध है, पवित्र है, तो शब्दों की पवित्रता भी समझ आएगी, मन की कलुषता ही शब्दों की पवित्रता पर पर्दा डाल देती है। फिलहाल यही सब कुछ गोस्वामी तुलसी दास जी के साथ भी हो रहा है। मन की कलुषता उनके पवित्र शब्दों को समझने नहीं दे रही है। संत तुलसी दास की तरह संत रविदास भी कलुषित मन को पवित्र करने के लिए “कठौता” में माँ गंगा के दर्शन कर रहे थे। हो सकता है उस समय कुछ लोगों को उस कठौते में पवित्र गंगा की जगह अपवित्र जल का आभाष हो रहा हो।

संत रविदास

रैदास जन्म के कारने होत न कोई नीच, नर कूं नीच कर डारि है, ओछे करम की नीच

महान संत नाभादास द्वारा रचित ‘भक्तमाल’ में रविदास जी के स्वभाव और उनकी चारित्रिक दिव्यता का वर्णन मिलता है। इसी प्रकार दिव्य संत प्रियादास कृत ‘भक्तमाल’ की टीका के अनुसार चित्तौड़ की ‘झालारानी’ जो महाराणा सांगा की पत्नी थीं, रविदास जी की शिष्या थीं। मीराबाई ने स्वयं भी उनके प्रति अपने शिष्यत्व-भाव को व्यक्त किया है, ‘गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी, सतगुरु सैन दई जब आके जोत रली।’

बहरहाल, रविदास जी के संबंध में इतना तो सभी मानते हैं कि वे रविवार को पड़ी किसी माघ महीने की पूर्णिमा तिथि को काशी की धरती पर अवतरित हुए थे। रविवार को जन्म लेने के कारण उनका नाम ‘रविदास’ रखा गया।

सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करती जातिगत कट्टरता

रविदास जी को कई नामों से जाना जाता है। पंजाब में वे ‘रविदास’, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में ‘रैदास, गुजरात एवं महाराष्ट्र में ‘रोहिदास’ और बंगाल में ‘रुइदास’ के नाम से जाने गये। वहीं कई पुरानी पांडुलिपियों में उनका नाम रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास भी अंकित हैं। रविदास जी का जन्म काशी के मांडुर नामक गांव के एक चर्मकार परिवार में हुआ था, जिसकी पुष्टि उन्होंने स्वयं भी की है। मांडुर गांव आज मंडुवाडीह नाम से जाना जाता है, जो उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में स्थित मंडेसर तालाब के किनारे बसा हुआ है। यहीं पर मांडव ऋषि का आश्रम भी अवस्थित है। रविदास जी के जन्म के समय देश के कुछ क्षेत्रों में मुगलों का शासन कायम हो चुका था।

संत रविदास

संत के रूप में रविदास जी की स्वीकृति एवं ख्याति संपूर्ण भारत में फैल चुकी थी। समाज में मानवतावादी मूल्यों की पुनर्स्थापना करने वाले रविदास जी ने लिखा, ‘रैदास जन्म के कारने होत न कोई नीच, नर कूं नीच कर डारि है, ओछे करम की नीच।’ अर्थात् व्यक्ति जन्म से नहीं, बल्कि अपने कर्म से ‘नीच’ होता है। महान संत, देशभक्त, समाज सुधारक, आध्यात्मिक गुरु, भक्ति आंदोलन के महत्वपूर्ण कवि रविदास जी आजीवन जातीय, लैंगिक, धार्मिक-सामाजिक एवं सांप्रदायिक विद्रूपताओं के विरुद्ध अपने दोहों और पदों के माध्यम से लोगों में जागृति लाने का प्रयास करते रहे, ताकि समाज में मौजूद विभाजनकारी शक्तियों को अशक्त कर देश को एकसूत्र में पिरोया जा सके। उन्होंने अपनी कविताएं मूलतः ब्रजभाषा में लिखीं, किंतु उनमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली एवं उर्दू-फारसी के शब्दों का भी उपयोग किया। उनके लगभग चालीस पद पवित्र धर्मग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहिब’ में भी संकलित किये गये हैं।

सांप्रदायिक सद्भाव एवं सामाजिक समरसता के आध्यात्मिक उपासक रविदास जी का संपूर्ण जीवन ही संघर्षों और चुनौतियों की महागाथा रहा है। उन्होंने जीवन और समाज के तमाम अंतर्विरोधों के समानांतर समाधानों की एक फुलवारी लगायी, जिसकी महक समाज में आज भी व्याप्त है और सांप्रदायिक सद्भाव तथा सामाजिक समरसता के उपासकों को रोमांचित करती है। रविदास जी के पिता का नाम रग्घु एवं माता का घुरविनिया था। वे वैष्णव भक्तिधारा के महान संत स्वामी रामानंद के शिष्य थे।

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इसीलिए संत कबीरदास जी उनके समकालीन और गुरुभाई माने जाते हैं। स्वयं कबीरदास जी ने ‘संतन में रविदास’ कहकर उन्हें मान्यता भी दी है। रविदास जी मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करने के साथ-साथ उन्हें भाव-विभोर होकर गाते भी थे। वे धार्मिक विवादों को सारहीन एवं निरर्थक मानते थे। उन्होंने अभिमान को भक्तिमार्ग में बाधक बताया था, ‘कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै, तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।’ माघ पूर्णिमा विक्रमी संवत 2079 तद्नुसार 5 फरवरी 2023 रविवार को संत रविदास जी की जयंती के अवसर पर आइये समझते हैं उनकी जीवनी और दर्शन को।

संत रविदास

“चौदह सौ तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास। दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।”

गुरू रविदास (रैदास) का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1398 को हुआ था। उनका एक दोहा प्रचलित है। “चौदह सौ तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास। दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।” उनके पिता संतोख दास तथा माता का नाम कलसांं देवी था। उनकी पत्नी का नाम लोना देवी बताया जाता है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। वे जूते बनाने का काम किया करते थे औऱ ये उनका व्यवसाय था और अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे। वे समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। ऐसा माना जाता है कि सद्गुरू रामानन्द के शिष्य बनकर उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित किया था। संत रविदास जी ने स्वामी रामानंद जी को कबीर साहेब जी के कहने पर गुरु बनाया था, जबकि उनके वास्तविक आध्यात्मिक गुरु कबीर साहेब जी ही थे।

उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे। प्रारम्भ से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे।

संत रविदास

कहा जाता है कि उनके स्वभाव के कारण ही उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रविदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से निकाल दिया। रविदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग आवास बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।

मन चंगा तो कठौती में गंगा

उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया, तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता। किन्तु गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि –मन चंगा तो कठौती में गंगा।

रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।
वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।

कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा। वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा। चारो वेद के करे खंडौती । जन रैदास करे दंडौती।

उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है-कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै। तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।

उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है। रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वतः उनके अनुयायी बन जाते थे।

संत रविदास

उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति आस्था रखने लगे। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं। जाति पाति के अभिमान पर चोट करते हुए उन्होंने कहा कि-वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की। सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।

आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। रैदास के 40 पद गुरु ग्रन्थ साहब में भी मिलते हैं जिसका सम्पादन गुरु अर्जुनदेव साहिब ने 16वीं सदी में किया था।

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