आज के दौर में अभिभावकों के अंदर अपने टहनी से नाजुक बच्चों को जल्दी से परिपक्व बनाने की ललक देखी जा रही है। मासूम मन के बच्चें डेढ़ दो साल के हुए नहीं की, डे केयर और नर्सरी में डालने की जल्दी होती है। खासकर कामकाजी महिलाओं के बच्चों से उनका बचपन ही छीन जाता है। माँ की गोद और पिता के प्यार के अधिकारी बच्चों से उनका हक छीन कर “टीचर, आया और मैडम के हाथों सौंप दिया जाता है”। बचपन बच्चों को माँ-बाप के साथ भावनाओं से जुड़ने का समय होता है।
माँ का स्पर्श, माँ की बोली, माँ की नज़दीकीयाँ बच्चों में सुरक्षा का भाव उत्पन्न करता है। पहले के ज़माने में बच्चों को छह साल तक आज़ादी से खाने-खेलने का समय दिया जाता था। छठ्ठे साल में पहली कक्षा में दाखिला देकर आराम से स्कूल के हल्के-फुल्के वातावरण में पढ़ने के लिए भेजते थे। न बच्चों को पढ़ाई का टेशन होता था, न माँ-बाप के दिमाग में बच्चों के प्रतिशत लाने की कोई चिंता थी। पास हो जाए उतना काफ़ी था। आजकल के बच्चें के जी कक्षा से ही प्रतियोगिता का भोग बन जाते है। खाने खेलने की उम्र में एक जंग लड़ने की तैयारी में जुट जाते है।
बच्चों को डे केयर या स्कूल में भेजने से पहले माँ बाप को ये देखना चाहिए कि ज़्यादा समय के लिए एक जगह पर बैठ सकता है या नहीं और आपके बिना ज्यादा समय बिता पाता है या नहीं। साथ ही बच्चा अपनी जरूरतों के बारे में बता सकता है और दूसरों की बात सुनने समझने में सक्षम है या नहीं इन बातों पर भी ध्यान देना चाहिए।
यह बात सच है कि आज प्रतियोगिता का जमाना है। हर किसी को एक दूसरे से आगे निकलने की, अव्वल आने की चाह है। इस मानसिकता का दबाव बच्चों पर भी पड़ रहा है। वे भी इस भेड़चाल में या तो शामिल हो रहे है या फिर बड़ों द्वारा कराए जा रहे है। आज के दौर के बच्चें रेस के घोड़े बनते जा रहे है।
दूसरे छात्रों को अपने से एक-दो अंक अधिक मिलना भी ये बच्चे सहन नहीं कर पाते। जिनके अंक अच्छे नहीं उनका मानसिक संतुलन खोना तो समझ में आता है, परंतु जिनके अंक बहुत अच्छे है उनके साथ ऐसा होना एक ही बात दर्शाता है कि वे अत्यंत दबाव में है। इस दबाव के चलते कुछ बच्चें अवसाद का भोग भी बन जाते है। बच्चे अपने अंदर के गुणों को निखारने की बजाय जब परीक्षा में अच्छे अंक लाने के पीछे भागते है तब इन बच्चों को देखकर थ्री इडियट्स फिल्म का डायलॉग याद आता है कि “कामयाब नहीं काबिल बनो, कामयाबी साली झक मार के पीछे आएगी” और ये बात शत प्रतिशत सही है।
हर बच्चे को उपर वाले ने कोई न कोई हुनर देकर भेजा होता है, “बस उसे पहचान कर तराशने की जरूरत होती है”। भेड़चाल का हिस्सा मत बनाईये बच्चों को आज़ाद गगन में उड़ने दीजिए के जी से लेकर बारहवीं तक की पढ़ाई शांति से करने दीजिए। बच्चों की करियर के लिए उसके आगे की पढ़ाई ही महत्वपूर्ण है। बारहवीं कक्षा के बाद एक लक्ष्य तय करके बच्चों के सामने उस लक्ष्य को पाने के हर दरवाज़े खोल दीजिए। ज़िंदगी ढ़ोने के लिए नहीं जीने के लिए होती है, बच्चों से उनका बचपन मत छीनिए कच्ची कोंपलों को पनपने दीजिए।