संयुक्त राष्ट्र टिकाऊ विकास समाधान नेटवर्क की हाल में जारी विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट की खासी चर्चा है। प्रसन्नता रिपोर्ट हर साल 20 मार्च के आसपास जारी की जाती है।
वर्ष 2023 की रिपोर्ट में 136 देशों को शामिल किया गया है। प्रसन्नता को मापने के लिए छह प्रमुख आधार बताए गए हैं। पहला सामाजिक सहयोग है। आय, स्वास्थ्य, स्वतंत्रता, उदारता और भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति भी आधार हैं। ताजा रिपोर्ट में फिनलैंड प्रथम है, डेनमार्क दूसरा है और तीसरा आइसलैंड है। रिपोर्ट में अफगानिस्तान को सबसे बुरा प्रदर्शनकर्ता बताया गया है। 136 देशों की सूची में भारत को 125वां स्थान दिया गया है। वर्ष 2022 में 146 देशों में भारत 136वें स्थान पर था। रिपोर्ट की मानें तो भारत नेपाल, चीन, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे पडोसी देशों से भी पीछे है।
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राष्ट्रीय प्रसन्नता सूचकांक की धारणा 1972 में भूटान से प्रारम्भ हुई थी। वैश्विक प्रसन्नता के यह आंकड़े भारतीय परिस्थितियों में उचित नहीं जान पड़ते। भारत सभी क्षेत्रों में प्रतिष्ठित है। प्रसन्नता एक भाव है। निस्संदेह आय आदि उपलब्धियां प्रसन्न होने का अवसर देती हैं। लेकिन सामान्य जरूरतों के आधार पर पूरे देश को प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं कहा जा सकता। प्रसन्नता वस्तुतः आंतरिक सुखानुभूति है। यह कार-बंगला जैसी उपलब्धि नहीं है। प्रसन्नता अस्तित्व की प्रीति का परिणाम होती है। ऋग्वेद में सोम देवता से की गई एक स्तुति में ‘मुद मोद प्रमोद’ एक साथ मांगे गए हैं। ऋषि कहते हैं कि, ”उन्हें ऐसे क्षेत्र में रहने का अवसर दें जहाँ मुद मोद प्रमोद एक साथ हों।” इसी स्तुति में वे जल भरी नदियों की भी प्रार्थना करते हैं और सुन्दर राजव्यवस्था की भी। फिर अन्न और दूध की भी स्तुति करते हैं। वे सारी दुनिया की प्रसन्नता चाहते हैं।
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आवश्यक वस्तुओं का अभाव दुखी करता है। वैसे अभाव भी भाव है। प्रत्यक्ष जगत में अभाव कोई वस्तु या पदार्थ नहीं है। किसी वस्तु या पदार्थ का न होना अभाव कहा जाता है। वैशेषिक दर्शन में अभाव को भी एक पदार्थ माना गया है और उसके प्रभाव की चर्चा भी की गई है। सब प्रसन्न रहना चाहते हैं। अभाव दुखी करता है। लेकिन दुख का अभाव प्रसन्नता कहा जाता है। सुख का कारण दुख का अभाव भी हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट माने तो भारत अतिक्षुब्ध अप्रसन्न देश है। प्रसन्नता के अवसर भारत में हैं ही नहीं। प्रसन्नता माप के मानकों में दीर्घ जीवन की सम्भावना भी है। ऋग्वेद के ऋषि 100 वर्ष की स्वस्थ आयु चाहते थे। उन्होंने ‘जीवेम शरदं शतं’ की स्तुतियां की थीं। वे 100 वर्ष तक स्वस्थ रहने और प्रसन्न रहने की स्तुतियां भी करते थे।
यजुर्वेद के अंतिम अध्याय को ईशावास्योपनिषद कहते हैं। इसके पहले मंत्र में ही सतत् कर्म करते हुए 100 वर्ष के जीवन की प्रार्थना की गई है। प्रसन्नता के मानकों में स्वतंत्रता भी है। स्वतंत्रता आनंद के अवसर देती है। यहां के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और अंतःकरण व आस्था की भी। भारतीय संस्कृति दर्शन में प्रसन्न होना आध्यात्मिक भाव है। गीता में इच्छा शून्य चित्त दशा को महत्वपूर्ण बताया गया है। तैत्तिरीय उपनिषद में सुख और आनंद की गहन मीमांसा है। यहां आनंद के अनेक भौतिक स्रोत बताए गए हैं। गीत संगीत और कला भी आनंद के स्रोत हैं। ऐसे स्रोतों का उल्लेख करते हुए ऋषि कहते हैं कि, ”कामना शून्य ज्ञानी प्रसन्नता के वाह्य उपकरणों की तुलना में इच्छाशून्यता में सहस्त्रों गुना आनंद पाते हैं।
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गरीबी और अभाव बेशक कष्ट देते हैं। लेकिन इच्छाशून्यता उच्च कोटि की प्रसन्नता होती है। सामूहिक जीवन की महत्ता वैदिक काल से ही है। सामूहिकता में प्रसन्नता का प्रसाद होता है। यहां प्रतिपल उत्सव हैं। तमाम पर्व और त्यौहार हैं। सुन्दर तीर्थाटन हैं। उत्सव आनंदधर्म हैं। होली, दीपावली, विजयदशमी, बुद्धपूर्णिमा, नागपंचमी, रक्षाबंधन जैसे सहस्त्रों उत्सव प्रसन्नता देते हैं। भारत स्वाभाविक रूप में प्रसन्न राष्ट्रीयता है। यूरोपीय, अमेरिकी सरोकारों के चलते यहां भौतिक उपकरणों से प्रसन्न होने की आदत बढ़ रही है। कुछ लोग इसे आधुनिकता कहते हैं। विदेशी सभ्यता का अनुसरण आधुनिकता नहीं है। भारत की आधुनिकता प्राचीनता का ही विस्तार है। उधर की आधुनिकता प्रसन्न नहीं रहने देती। प्रसन्न राष्ट्रीयता ने ही धरती से लेकर आकाश तक प्रसन्न होने के आलम्बन खोजे हैं। प्रसन्नता भारतीय राष्ट्रभाव का अंग है। हम नदियां देखते हैं। चित्त प्रसन्न हो जाता है। अथर्ववेद के ऋषि को नदियां नाद करते दिखाई सुनाई पड़ती हैं। ऋषि नदी से कहते हैं कि, ”हे सरिता आप नाद करते हुए बहती हैं। इसलिए आप का नाम नदी पड़ा है। आकाश में मेघ आते हैं। वे सुन्दर लगते हैं। प्रसन्न करते हैं। वर्षा आती है। प्रसन्न रस से भिगो देती है। पेड़ पौधे भी वर्षा से प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं।
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प्रकृति के सभी अंग आनंद से भरे पूरे हैं। जीवन का प्रत्येक क्षण प्रसन्नता का नाद है। अविरल और निर्मल प्रसन्नता हम सब का जन्म जात अधिकार है। दुनिया की किसी भी सभ्यता में प्रसन्न देवता नहीं दिखाई पड़ते। भारत में श्रीकृष्ण नाचते गाते देवता हैं। शिव स्वयं नाचते हैं और अपने गणों को नचाते हैं। वे गणों के साथ नाचते भी हैं। सोम भी नाचते हुए प्रवाहमान होते हैं। नाचते हुए शिव या श्रीकृष्ण जैसे देवता अन्य संस्कृतियों में नहीं है। वरुण, वायु, मरुद्गण आदि वैदिक देवता प्रसन्न ही दिखाई पड़ते हैं। प्रकृति प्रतिपल नई है। हम सब भी प्रत्येक क्षण नए हैं। वर्तमान नूतन है।
हमारी आस्तिकता में प्रसन्नता अन्तर्निहित है। प्रकृति स्वयं प्रसन्न है और हम सबको प्रसन्न रखना चाहती है। प्रसन्नता हम सबको भीतर और बाहर से आच्छादित करती है। भारतीय धर्म दर्शन की आस्तिकता आश्चर्यजनक है। इस आस्तिकता में प्रसन्नता के सूत्र हैं। यहां फल की इच्छा से रहित सतत् कर्म प्रसन्नता का मूलाधार है। परिणाम की इच्छा से रहित व्यक्तिगत और राष्ट्रीय कर्तव्यों का निर्वहन प्रसन्नता पैदा करता है। आशा प्रसन्न करती है। धैर्य प्रसन्न करता है। आस्तिकता प्रसन्न करती है। यह भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था के मानक भारत में लागू नहीं होते।
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भारत स्वाभाविक रूप में प्रसन्न राष्ट्र है। ज्ञान प्रसन्न करता है। धर्म प्रसन्न करता है। ऋग्वेद के अनुसार राष्ट्र भी प्रसन्न करता है। कर्तव्य पालन में प्रसन्नता है। सारी दुनिया का लोकमंगल भारत का ध्येय है। दुनिया को एक परिवार जानने का राष्ट्रभाव प्रसन्न करता है। इतिहासबोध में राष्ट्रीय गौरव के तमाम अमृत कथानक हैं। वे प्रसन्न करते हैं। जीवन के लिए मूलभूत आवश्यकताएं भीं अनिवार्य होती हैं। वे कभी कभी दुख देती हैं।
लेकिन इनका अर्जन भी प्रसन्न राष्ट्रीयता के द्वारा ही होता है। परिवार प्रसन्न करता है। सुयोग्य पुत्र प्रसन्न करते हैं। विवाह प्रसन्न करता है। विवाह का अनुष्ठान बारात है। बारात प्रसन्न करती है। पिता का संरक्षण प्रसन्न करता है। पुत्र की प्रसन्नता प्रसन्न करती है। मां का आशीष प्रसन्न करता है। शुद्ध अंतःकरण प्रसन्न करता है। सांस्कृतिक संस्थाएं प्रसन्न करती हैं। वेद प्रसन्न करते हैं। उपनिषद प्रसन्न करते हैं। संविधान प्रसन्न करता है। संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक संगठनों की रिपोर्ट के निष्कर्ष यहां लागू नहीं किए जा सकते हैं।