सवाल यह है कि जब न्यायपालिका किसी खास आपराधिक घटना या फिर भ्रष्टाचारियों के खिलाफ स्वतः संज्ञान लेकर मुकदमा चलने में देरी नहीं करती है तो फिर देशद्रोही बयान देने वाले नेताओं उसमेे भी खासकर सांसद/विधायक के मामलों को स्वतःसंज्ञान लेने से क्यों हिचकिचाती है। क्या उचित नहीं होता कि जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा लोकसभा सांसद फारूख अब्दुल्ला ने हाल में बयान दिया था कि जम्मू कश्मीर से धारा 370 वापस हटाने में चीन मदद कर सकता हैं।
न्यायपालिका नेताओं के विवादित बयानों का स्वतः ले संज्ञान
न्यायपालिका से आमजन को काफी उम्मीद रहती है। एक आम आदमी के लिए जब इंसाफ के सभी दरवाजें बंद हो जाते हैं तब अदालत उसके लिए ‘आखिरी रास्ता’ साबित होता है। कई बार तो जब कोई पीड़ित इंसाफ के लिए अदालत की चैखट तक पहुंचने में असहाय-मजबूर नजर आता है तो अदालत स्वयं उसकी चैखट पर पहुंच जाती है। पीड़ित को इंसाफ दिलाती हैं। इसके लिए अगर जरूरी होता है तो अदालत अपनी निगरानी में जांच कमेटी तक गठित कर देती हैं। कई बार तो अदालत के फैसलों से सरकारें तक गिर और बन जाती हैं। यह सिलसिला आजादी के बाद से आज तक जारी है। तमाम ऐसे मामले हैं जिनको देश की विभिन्न अदालतों ने स्वतः संज्ञान (सुओ मोटो) लेकर सुलझाने और दोषियों को सजा दिलाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अगर कभी कोर्ट को लगता है कि कोई सरकार या महकमा किसी विषय पर निर्णय लेने में विलंब या मनमानी कर रहा हैं तो वह ऐसे मामलों में स्वयं हस्तक्षेप करने से चूकती नहीं हैं। इतना ही नहीं अदालतें, कोर्ट की अवमानना के मामलों को भी स्वतः संज्ञान लेने से गुरेज नहीें करती हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण इसकी सबसे बड़ी और ताजा मिसाल हैं, जिन्हें हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना का दोषी करार दिया था। प्रशांत भूषण ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ मानहानि संबंधी ट्वीट किया था। सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत को अवमानना को दोषी करार देते हुए कहा था कि यह माना जाता है कि भारतीय न्यायपालिका का प्रतीक होने के नाते, सर्वोच्च न्यायालय पर एक हमले से देश भर में उच्च न्यायालय के साधारण वादी और न्यायाधीशों का सर्वोच्च न्यायालय से विश्वास उठ सकता है। हालांकि न्यायालय ने स्वीकार किया कि उसकी अवमानना शक्तियों का उपयोग केवल कानून की महिमा को बनाए रखने के लिये किया जा सकता है, इसका उपयोग एक व्यक्तिगत न्यायाधीश के खिलाफ नहीं किया जाना चाहिये जिसके खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी की जाती है।
विभिन्न अदालतों द्वारा स्वतः संज्ञान लेने वाले मामलों की लिस्ट पर नजर दौड़ाई जाए तो जस्टिस सी.एस. कर्नन को नहीं जानता होगा। इस साल की शुरूआत से ही उन्होंने मीडिया की सुर्खियों में जगह बना ली थी. कर्नन ने 23 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखी थी। चिट्ठी में सुप्रीम कोर्ट एवं विभिन्न हाई कोर्टों के 20 जजों की सूची थी और उन्हें भ्रष्ट बताते हुए इनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की गई थी। इसके बाद इस मामले को स्वतः संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 8 फरवरी को कर्नन के खिलाफ नोटिस जारी किया था और उनसे पूछा था कि उनके इस पत्र को कोर्ट की अवमानना क्यों न माना जाए। माना जाता है कि किसी पदस्थ जज को अवमानना का नोटिस दिए जाने की ये देश में पहली घटना थी। इसी तरह से कोरोना काल में उच्चतम न्यायालय ने अचानक 26 मई को प्रवासी मजदूरों की परेशानी का स्वतः संज्ञान लेकर पूरे देश को हतप्रभ कर दिया। इसी तरह के और तमाम उदाहरण भी पेश किए जा सकते हैं।
गौरतलब हो, शीर्ष न्यायालय को स्वतः संज्ञान की अवमानना शक्तियाँ संविधान के अनुच्छेद 129 द्वारा प्रदान की गई हैं। न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971 के अनुसार, न्यायालय की अवमानना दो प्रकार की होती है। एक नागरिक अवमानना दूसरी अपराधिक अवमानना। नागरिक अवमानना में न्यायालय के किसी भी निर्णय, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट अथवा अन्य किसी प्रक्रिया या किसी न्यायालय को दिये गए उपकरण के उल्लंघन के प्रति अवज्ञा को नागरिक अवमानना कहते हैं। वहीं आपराधिक अवमानना के तहत किसी भी मामले का प्रकाशन है या किसी अन्य कार्य को करना है जो किसी भी न्यायालय के अधिकार का हनन या उसका न्यूनीकरण करता है, या किसी भी न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करता है, या किसी अन्य तरीके से न्याय के प्रशासन में बाधा डालता है। न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 में दोषी को दंडित किया जा सकता है। यह दंड छह महीने का साधारण कारावास या 2,000 रुपए तक का जुर्माना या दोनों एक साथ हो सकता है। इस कानून में वर्ष 2006 में एक रक्षा के रूप में ‘सच्चाई और सद्भावना’ को शामिल करने के लिये संशोधित किया गया था।
बहरहाल, स्वतः संज्ञान(सुओ मोटो) एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है किसी सरकारी एजेंसी, न्यायालय या अन्य केंद्रीय प्राधिकरण द्वारा अपने स्वयं के द्वारा की गई कार्रवाई। न्यायालय कानूनी मामले में स्वतः संज्ञान तब लेता है जब वह मीडिया के माध्यम से अधिकारों के उल्लंघन या ड्यूटी के उल्लंघन या किसी तीसरे पक्ष की अधिसूचना के बारे में जानकारी प्राप्त करता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में क्रमशः लोक हित याचिका दायर करने के प्रावधान है। इसने न्यायालय को किसी मामले के स्वतः संज्ञान पर कानूनी कार्रवाई शुरू करने की शक्ति दी है। उत्तर प्रदेश का हाथरस कांड इसकी सबसे ताजा मिसाल है, जिसका स्वतः संज्ञान लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच इस पर सुनवाई कर रही है।