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संघर्ष को सहर्ष स्वीकार करना सीखिए

    सलिल सरोज

“हारा वही जो लड़ा नहीं, जीता वही जो डरा नहीं।” मानव विकास की श्रृंखला के हर एक डग पर अगर कोई एक चीज़ निरन्तर साथ चलती आई है तो वह है – संघर्ष। संघर्ष एक ऐसी अनिवार्यता है जिससे इस संसार का कोई जीव नहीं बच सकता और फिर वही खुश रह सकता है जिसने संघर्ष को सहर्ष स्वीकार कर लिया हो और उसे अपने जीवन में आत्म-सात कर लिया हो। संघर्ष संसार के हर एक कण में इस तरह से विद्यमान है जिस तरह से हवा में बू और पानी में तरलता।

संघर्ष कोई अलौकिक अवयव नहीं है जिससे मानव को घबराकर कर जीने की हर आस छोड़ देनी चाहिए या अपने हथियार डाल देने चाहिए। अगर संघर्ष है तो आस-पास ही उसका समाधान भी है। जरूरत है उस निगाह और उस जज्बे की जो उस समाधान तक आपको पहुंचा सके और आपको उससे लड़ने के लिए उद्वेलित और प्रेरित कर सके- ‘शौके-दीदार है तो नज़र पैदा कर।’

दुनिया ऐसे अनगिनत उदाहरणों से बेतरतीब है जहाँ मानव की कोशिशों ने संघर्ष करके उन ऊचाइओं को छुआ है और मिशालें पैदा की है जिसे कभी एक दिवास्वप्न मान कर छोड़ दिया गया था या जिस पर प्रयत्न करने वालों को उपहास का पात्र बनाया गया था। अगर इस क्रम में सबसे अग्रणी जिनका नाम आता है वो हैं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का। केवल सत्य और अहिंसा की डोर थामे हुए एक आतातायी और सशक्त साम्राज्य को, देशवासियों को प्रेरित करके, जड़ से उखाड़ फेंकने की हिम्मत आई टी सिर्फ इसी वजह से आ पाई क्योंकि उन्होंने चुनौती को स्वीकार किया और आगे आने वाले संघर्ष से डरे नहीं और उसके लिए स्वयं को तैयार किया।

एक आदमी अपनी ज़िंदगी में हज़ार तरह के उतार-चढाव से गुजरता है और कई बार उसे अहसास होता है कि उसकी ज़िंदगी व्यर्थ है और वह गलत कदम उठाने को मज़बूर हो जाता है। लेकिन जो व्यक्ति उसका सामना डट कर करता है वह कुंदन की तरह निखर कर सामने आता है और पूरे समाज के लिए एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करता है। एक संघर्षरत आदमी को प्रेरित रहने के लिए कई जगहों से सीख लेनी पड़ती है और स्वयं को आत्म-विश्वास से परिपूर्ण रखना पड़ता है। संघर्ष से जूझ रहे व्यक्ति को किताबों या प्रेरणा दायी फिल्मों अथवा सकारात्मक ऊर्जा से लबालब आदमियों से मिलते रहना चाहिए, उनकी सफलता से सीखना चाहिए, अपनी गलतियों का आँकलन करते रहना चाहिए और प्रयास की इष्टम छोर तक पहुंचना चाहिए। जो ऊर्जा नकारात्मक हो, उससे बिलकुल बचना चाहिए, उनसे दूर रहना चाहिए और ऐसे किसी वाद-विवाद में नहीं उलझना चाहिए जो दिनचर्या को खराब करे और मानसिक विसंगति पैदा करे।

उदहारण के तौर पर आप हेलेन केलर की आत्म-कथा पढ़ें। जो लेखिका आँखों और कानों से लाचार हो फिर भी पूरी दुनिया में “साइन लेंगुएज ” को प्रतिपादित किया और सफलतम वक्ताओं में अपनी ख्याति करवाती हो, वो प्रेरणा की खान ही है। आप जब भी निराशा के अन्धकार में डूबने लगते हो और आपका संघर्ष आप पर हावी  होने लगता हो तो आप ” स्वशेंक रिडेम्पशन” नामक फिल्म को बार बार देंखें और सीखे कि ज़िंदगी जीने की चाह में फिल्म का अभिनेता क्या नहीं कर गुजरता और उस संघर्ष के बाद उसकी ज़िंदगी कितनी शानदार हो जाती है। या फिर ” इन पुरसुईट ऑफ़ हैप्पीनेस ” नामक फिल्म देखे और आप संघर्ष के हद को तब समझ पाएँगे।

कई बार आपको ऐसा लगता है कि आपक संघर्ष सबसे कठिन है लेकिन आप अपने पड़ोसी से पूछिए। तब आप जानेंगे हर व्यक्ति किसी न किसी संघर्ष से गुजर रहा होता है और और उसी संघर्ष के बीच में एक हंसी-ख़ुशी की ज़िंदगी तलाश करनी पड़ती है। और कई बार यह भी लगता है कि इस संघर्ष का भागीदार मैं ही क्यों ? तो इसका एक मात्र उत्तर यही है कि आप उस काबिल हैं इसलिए आपको संघर्ष में डाला गया है और आप से अपना बेहतर देने के उम्मीद की जा रही है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप टूट जाते हैं या फिर कुछ बन जाते हैं। नहीं तो इस संसार में संघर्ष के बिना जंगल के राजा को भी खाना नसीब नहीं होता।

“उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः
 न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः”

मतलब कि सभी कार्य परिश्रम से सिद्ध होते हैं न कि सोचते रहने से। जिस प्रकार सोते हुए शेर के मुख में हिरण आदि जानवर स्वयं प्रवेश नहीं करते, अपितु शेर को स्वंय शिकार करना पड़ता है ठीक उसी प्रकार हमें भी वांछित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए लगनशील होकर परिश्रम करना चाहिए।

 

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