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पूजा के बाद फूलों का प्रबंधन: कानपुर में पुष्प कचरे से कमाई की अनोखी पहल

               दया शंकर चौधरी

सनातन संस्कृति में पूजा के फूलों को भी सम्मान देने की परंपरा है। इसी लिए फूलों को किसी नदी में प्रवाहित किया जाता है। लेकिन इन्हीं फूलों से पवित्र नदी कितनी अशुद्ध हो जाती है इस पर विचार नहीं किया जाता। “जब कोई व्यक्ति फूलों को नदी में फेंकता है, तो वो सोचता है, ‘कुछ फूलों से क्या फर्क पड़ता है?’ लेकिन हम एक अरब से ज्यादा लोगों का देश हैं, तो सोचिए इसका असर कितना बड़ा हो सकता है।”

Phool.co स्टार्टअप के रिसर्च और डेवलपमेंट प्रमुख नचिकेत कुंतला अपने स्टार्टअप जरिये फूलों के कचरे को रिसाइकल करके नए-नए उत्पाद बना रहे हैं और नदियों की पवित्रता का संदेश दे रहे हैं। अक्सर पूजा स्थलों से इकट्ठा किए गए फूल, जो बायोडिग्रेडेबल (जीवाणु, कवक या अन्य जीवों के द्वारा पदार्थों का रासायनिक विघटन, जैवनिम्नन (Biodegradation) कहलाता हैं) होते हैं, या तो कचरे में या फिर नदियों में बहा दिए जाते हैं। इससे पानी और पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है।

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एक रिपोर्ट के मुताबिक, गंगा नदी अकेले हर साल 80 लाख टन से ज्यादा फूलों का कचरा अपने में समेट लेती है। लेकिन स्वच्छ भारत मिशन-शहरी 2.0 के तहत, कई भारतीय शहर इस समस्या का समाधान ढूंढ रहे हैं। स्टार्टअप्स और सामाजिक उद्यमी मिलकर इन फूलों को रिसाइकल कर रहे हैं और इनसे जैविक खाद, साबुन, मोमबत्तियाँ और धूपबत्ती जैसे उपयोगी उत्पाद बना रहे हैं।

पूजा के बाद फूलों का प्रबंधन: कानपुर में पुष्प कचरे से कमाई की अनोखी पहल

स्वच्छ भारत मिशन का लक्ष्य है कचरे से धन (वेस्ट टू वेल्थ) बनाने का और इस सफर में फूलों का कचरा भी एक बड़ा हिस्सा है। कानपुर का Phool.co इसी काम में लगा हुआ है। यह स्टार्टअप रोज़ मंदिरों से करीब 21 टन फूलों का कचरा इकट्ठा करता है, जिसमें अयोध्या, वाराणसी, बोधगया, कानपुर और बद्रीनाथ जैसे शहर शामिल हैं। ये फूल फिर धूपबत्ती, धूप कोन, और हवन कप जैसे प्रोडक्ट्स में बदल दिए जाते हैं। इस काम में लगी महिलाएं सुरक्षित माहौल में काम करती हैं और उन्हें वेतन, भविष्य निधि, और स्वास्थ्य सेवाओं जैसी सुविधाएं मिलती हैं।

इस स्टार्टअप ने एक खास रिसर्च के जरिए ‘फ्लेदर’ नामक उत्पाद भी बनाया है, जो जानवरों के चमड़े का एक टिकाऊ विकल्प है। इसे PETA ने ‘विगन वर्ल्ड का बेस्ट इनोवेशन’ का अवॉर्ड दिया है।

भारत अब सस्टेनेबिलिटी यानी स्थायी विकास और कचरे से धन बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। अगर मंदिरों में कंपोस्टिंग (खाद बनाने) के गड्ढे लगाए जाएं और मंदिरों के ट्रस्ट या स्वयं सहायता समूहों को इस काम में शामिल किया जाए, तो इससे कई रोजगार के मौके बन सकते हैं। *पंडितों और भक्तों को यह समझाना भी जरूरी है कि फूलों को नदी में न फेंकें।* इसके अलावा, “ग्रीन टेम्पल” जैसे कॉन्सेप्ट से मंदिरों को इको-फ्रेंडली बनाया जा सकता है। पारंपरिक फूलों की बजाय डिजिटल या जैविक विकल्पों को बढ़ावा देना भी एक अच्छा उपाय है।

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भारत में पुष्प कचरे के प्रबंधन में तेजी से बदलाव हो रहा है। यह न सिर्फ महिलाओं को रोजगार दे रहा है, बल्कि पर्यावरण की भी सुरक्षा कर रहा है। सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स को फॉलो कर वेस्ट मैनेजमेंट में योगदान दे रहे बल्क वेस्ट जनरेटर्स वेस्ट मैनेजमेंट आज भी अगर दुनिया के सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में खड़ा हुआ है, तो उसके पीछे एक बड़ा कारण ऐसी इकाइयां हैं, जो सबसे ज्यादा तादाद में कचरा उत्पन्न करती हैं।

इन इकाइयों में ऐसे संस्थान होते हैं जो संयुक्त रूप से काम करते हुए बड़ी तादाद में वेस्ट जनरेट करते हैं। ऐसी इकाइयों की वजह से ही किसी भी शहर पर हर दिन उत्पन्न होने वाले कचरे का बोझ तेजी से बढ़ता है। यही वजह है कि ऐसी इकाइयां जो बल्क वेस्ट जनरेटर (बीडब्ल्यूजी) कहलाती हैं, वह देशभर के शहरों पर कचरे के बोझ की चुनौती बढ़ा रही हैं।

आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय के स्वच्छ भारत मिशन-शहरी 2.0 के अंतर्गत वर्तमान में देशभर के शहरों से प्रतिदिन निकलने वाले डेढ़ लाख टन कचरे में 76 प्रतिशत की हर दिन प्रोसेसिंग की जा रही है, जिसमें से एक अनुमान के अनुसार 45 से 60 हजार टन कचरा यानी 30 से 40 प्रतिशत योगदान बल्क वेस्ट जनरेटर्स का होता है। वहीं कुछ ऐसे शहर भी हैं जो इन कठिन चुनौतियों का डटकर सामना कर रहे हैं और दूसरे शहरों को भी इस बड़ी मुश्किल का हल सुझा रहे हैं।

पूजा के बाद फूलों का प्रबंधन: कानपुर में पुष्प कचरे से कमाई की अनोखी पहल

बल्क वेस्ट जेनरेटर (बीडब्ल्यूजी) और नियम

म्यूनिसिपिल सॉलिड वेस्ट (एमएसडब्ल्यू) मैनेजमेंट रूल्स 2016 के अनुसार बल्क वेस्ट जेनरेटर (बीडब्ल्यूजी) एक ऐसी इकाई को कहा जाता है, जो प्रतिदिन 100 किलोग्राम से अधिक कचरा उत्पन्न करती है। बल्क वेस्ट जनरेटर गाइडलाइंस 2017 के मुताबिक अनुमान है कि किसी भी शहर के कुल कचरे में बीडब्ल्यूजी का योगदान 30 से 40% होता है, जिसमें से 50-70% कचरा बायोडिग्रेडेबल होता है।

शहरों के शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) को अपने म्यूनिसिपल बाइ-लॉ में दिए गए जरूरी प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए बीडब्ल्यूजी के वेस्ट मैनेजमेंट एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए लीगल मैंडेट का भी पालन करना होता है। क्षेत्र के बल्क वेस्ट जनरेटर्स की पहचान करना शहरी स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी है, अगर कोई खुद को बीडब्ल्यूजी कैटेगरी में सेल्फ डिक्लेयर नहीं करता है और नियमों का उल्लंघन करता है, यूएलबी उसपर कार्रवाई के लिए स्वतंत्र है।

बीडब्ल्यूजी की श्रेणी में आने वाली इकाइयां और संस्थान

बल्क वेस्ट जनरेटर्स में ऐसी ग्रुप हाउसिंग सोसायटी, सभी तरह के स्कूल और कॉलेज, बड़े संगठन, कार्यक्रम एवं आयोजन स्थल, छोटे-बड़े होटल, छोटे-बड़े ढाबे या रेस्तरां, केंद्र या राज्य सरकार के विभाग, शहरी स्थानीय निकाय, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम, निजी कंपनियां, छोटे-बड़े अस्पताल एवं नर्सिंग होम आदि सभी शामिल होते हैं, जहां से हर दिन सौ किलो से ज्यादा कचरा निकलता है।

आगरा के राजनगर में नगर निगम के माध्यम से तीन डिसेंट्रलाइज्ड वेस्ट टु कंपोस्ट प्लांट स्थापित किए गए हैं, जहां पर 2000 के करीब बल्क वेस्ट जनरेटर्स से मिलने वाला ऑर्गेनिक वेस्ट स्थायी रूप से प्रबंधित किया जा रहा है। इनमें से दो प्लांट्स पर बसई, सिंकदरा और बरोली अहीर एरिया की तीन मंडियों से आने वाला फल-सब्जियों का वेस्ट और एक जगह मंदिरों से आने वाला फूलों का वेस्ट इकट्ठा किया जाता है। ट्रांसपोर्ट नगर में 1 टन और राजनगर के दोनों प्लांट पर 2-2 टन वेस्ट प्रतिदिन निस्तारित किया जा रहा है।

C&D वेस्ट प्रोसेसिंग प्लांट

नोएडा प्लांट पर देखने को मिला कि वहां विभिन्न आकार में ऐसा मलबा आता है, जो कहीं निर्माण कार्यों के दौरान बचता है या अवैध निर्माण ढहाए जाने के दौरान निकलता है। सीएंडडी वेस्ट एक्सपर्ट मुकेश धीमान के मुताबिक प्लांट पर 350 एमएम साइज तक का मलबा लिया जाता है, इससे बड़े साइज में आता है तो उसे 15 दिन में एक बार रॉक ब्रेकर मशीन से तोड़कर छोटे साइज में किया जाता है। आम तौर पर प्लांट में 250 या 200 एमएम के साइज वाला मलबा आता है, जिसे क्रशर मशीन में भेजा जाता है और उसका साइज 140 एमएम तक कर दिया जाता है।

छंटाई होते-होते अंत में मिट्टी जैसे बारीक साइज का मलबा निकलता है, जिन्हें सीमेंट में मिलाकर सीमेंटेड ईंटों, कलरफुल पेवर ब्लॉक्स और टाइल्स आदि जैसे उत्पाद में बदलकर बाजार में भेजा जाता है। इस तरह मलबे को रीसाइकल करके दोबारा इस्तेमाल करने योग्य उत्पाद बनाए जाते हैं, जो बाजार में मिलने वाले दूसरे उत्पादों से सस्ते और टिकाऊ होते हैं क्योंकि उसमें कोई मिलावट नहीं होती।

काम के दौरान धूल के दुष्प्रभाव से बचाने को विशेष सुविधाएं

गीले मलबे की छंटाई में धूल नाम मात्र की निकलती है, मगर उसका भी प्रभाव प्लांट और कर्मचारियों पर न पड़े, इसके लिए दिनभर ट्रीट किए हुए पानी का पुन: उपयोग कर छिड़काव किया जाता है। जहां ज्यादा छिड़काव की जरूरत होती है, वहां हाई प्रेशर स्प्रिंकलर्स की व्यवस्था की जाती है। एक पॉइंट पर पूरे मलबे को गीला किया जाता है, वाहनों के टायरों में यूज्ड वॉटर का प्रेशर मारा जाता है। प्लांट पर दो-तीन कर्मचारी लगातार सफाई में लगे रहते हैं।

यहां फॉग गन की मदद से प्लांट और उसके आसपास विकसित किए गए हरित पार्क और पेड़-पौधों में फॉगिंग करके उनपर जमी धूल हटाने का काम सुनिश्चित किया जाता है। इसके अलावा प्लांट्स की आईईसी टीम द्वारा आसपास के क्षेत्र में लोगों को बताया जाता है कि वेस्ट मलबे को कहां डाला जाए, ताकि वह कूड़े के ढेर में बदलने के बजाय प्लांट पहुंचकर रीसाइक्लिंग का हिस्सा बन सके।

सुबह हाजिरी के बाद कर्मचारी कंपनी द्वारा सुरक्षा की दृष्टि से डिजाइन की गई विशेष यूनिफॉर्म पहनते हैं। प्लांट के कर्मचारी अंकित तिवारी ने बताया कि उनके सेफ्टी पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई) किट दी जाती है, जिसमें जैकेट, हेलमेट आदि सुरक्षा उपकरण शामिल होते हैं। हूटर बजते के बाद मलबे को छोटे-बड़े आकार में छांटने वाली मशीनें चालू की जाती हैं।

एक ऑपरेटर मलबा लाने वाले वाहन का वजन करता है, फिर उसे गीला करके उतरवाया जाता है। एक इंडिकेटर हॉर्न बजने के बाद मलबा मशीन में डाला जाता है, दूसरे हॉर्न के बाद कोई मलबा उसमें नहीं डाला जाता। शाम साढ़े चार बजे प्लांट पर काम बंद कर दिया जाता है। फिर प्लांट में मशीनों के नीचे साफ-सफाई और फिर उनकी ग्रीसिंग का काम चलता है।

(Ganga Towns) गंगा के किनारे बसे शहर

हरिद्वार, 1 लाख से अधिक आबादी वाले गंगा किनारे बसे सबसे स्वच्छ शहरों में से एक है और प्रयागराज, वाराणसी जैसे अन्य गंगा किनारे बसे शहरों में भी पर्यटकों की संख्या में तेजी से वृद्धि के साथ-साथ निरंतर शहरी विकास की चुनौती बनी हुई है। हरिद्वार में 12 दिनों की कांवड़ यात्रा के दौरान लगभग 28,000 मीट्रिक टन कूड़ा उत्पन्न होता है। यहां हरिद्वार नगर निगम (एमसीएच) की स्वच्छता टीमें पूरी कांवड़ यात्रा के दौरान कूड़े के निपटान के लिए लगातार काम करती हैं, इसके साथ ही यात्रा समाप्त होने के ठीक बाद 1,200 सफाई कर्मचारियों की आठ टीमों के सहयोग से कूड़े को निपटाने का काम किया।

वहीं दूसरी तरफ उत्तरकाशी में चार धाम यात्रा और कांवड़ यात्रा के दौरान जो भी गीला कूड़ा और सूखा कूड़ा प्राप्त होता है उन्हें क्रमशः खाद और सिलियां बनाकर रीसाइक्लिंग के लिए भेजा जाता है। विशेषतः धार्मिक यात्रा के दौरान रात्रि सफाई अभियान चला कर नगर के मुख्य मार्गों, चौराहों एवं मंदिरों के आसपास सफाई की व्यवस्था की जाती है।

स्वच्छ भारत मिशन-शहरी 2.0 के तहत प्रयागराज नगर निगम ने कांवड़ यात्रा 2023 के आयोजन में श्रद्धालुओं को प्लास्टिक मुक्त, कचरा मुक्त, खुले में शौच मुक्त और रीसाइक्लिंग को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहित किया। साथ ही कांवड़ क्षेत्र में उत्पन्न कचरे के औपचारिक संचालन और प्रोसेसिंग पर भी ध्यान केंद्रित किया गया। इसके लिए प्रयागराज नगर निगम ने विभिन्न गतिविधियों का आयोजन भी किया।

स्वच्छ भारत मिशन-शहरी 2.0 का एक मुख्य घटक गंगा टाउन के घाटों या नदी तटों के पास से ओपन डंपसाइट को हटाना, नागरिकों तक गंदगी न फैलाने के संदेशों को पहुंचाना, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और घाटों के लिए नियमित सफाई व्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करना है।

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