नई दिल्ली। देश में करीब 14.3 फीसदी बुजुर्ग अपने घर-परिवार और बच्चों के बिना अकेले जीवन बिता रहे हैं। लेकिन आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता को तरजीह देने का ही नतीजा है कि इनमें से अधिकतर ने अकेले हैं तो क्या गम है…को अपने जीवन का सूत्र बना लिया है।
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अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस (1 अक्तूबर) के मौके पर एक ताजा सर्वेक्षण में अकेले रहने वाले बुजुर्गों में से 46.9 फीसदी ने माना कि तमाम चुनौतियों के बावजूद वे अपने जीवन से संतुष्ट हैं। सर्वे में 41.5 फीसदी ने असंतुष्ट होने की बात स्वीकार की है। एजवेल फाउंडेशन ने अकेले रहने वाले वृद्धजनों की स्थिति पर सितंबर में किए गए सर्वे में पाया कि ग्रामीण क्षेत्रों (13.4 प्रतिशत) की तुलना में शहरी क्षेत्रों (15 प्रतिशत) में अकेले रहने वाले बुजुर्गों की तादाद ज्यादा है।
सर्वे के मुताबिक, अकेले रहने वालों में से 41.9 प्रतिशत बुजुर्गों में 46.5 प्रतिशत महिलाएं शामिल हैं। उन्होंने बताया कि वह पांच साल से अधिक समय से स्वतंत्र रूप से रह रही हैं। 21.5 फीसदी उत्तरदाताओं ने बुढ़ापे में अकेले रहने को निजता और पर्सनल स्पेस मिलने के लिहाज से महत्वपूर्ण बताया। सामाजिक प्रभाव के संदर्भ में 51.3 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि बुढ़ापे में अकेले रहने की बढ़ती प्रवृत्ति का नकारात्मक असर हुआ है, जबकि 28.5 प्रतिशत इसे सकारात्मक मानते हैं।
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मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर
सर्वे में 41 फीसदी बुजुर्गों ने बताया कि अकेले रहने की वजह से मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर पड़ा, जबकि करीब 32 प्रतिशत का मानना है कि इसमें सुधार हुआ। वहीं, 10.4 फीसदी उत्तरदाताओं ने कहा कि उन्हें हमेशा अकेलापन महसूस होता जबकि 21.2 फीसदी की राय थी कि कई बार उन्हें इससे दिक्कत होती है।
भावनात्मक सहारा देने की जरूरत
एजवेल फाउंडेशन के संस्थापक अध्यक्ष हिमांशु रथ परिवार की अलग-अलग पीढ़ियों के बीच संवाद की जरूरत पर बल देते हैं। इससे बुजुर्गों को भावनात्मक सहारा मिल सकेगा और दोनों पीढ़ियां बेहतर कल के लिए तैयार हो सकेंगी। अध्ययन में बुजुर्गों के लिहाज से स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ाने और उनकी सुरक्षा और वित्तीय मजबूती सुनिश्चित करने वाले कानून बनाए जाने की जरूरत भी बताई गई है।