गुजरात के कच्छ जिले की रहने वाली पाबिबेन रबारी, 5 साल की थीं तब पिता का साथ छूट गया। चौथी क्लास के बाद पढ़ाई छूट गई। मां दूसरों के घरों में चौका बर्तन करती थी, खेतों में मजदूरी करती थी। परिवार में न कोई कमाने वाला था न ही कोई आमदनी का जरिया। तीन बहनों में बड़ी पाबिबेन खेलने-कूदने की उम्र में मां के साथ काम पर जाने लगीं।
कभी खेतों में कुदाल चलातीं तो कभी किसी के घर झाड़ू-पोंछा। घंटों तक कुएं से पानी भरने पर दिन का एक रुपया मिलता था। मां-बेटी दिन भर काम करते-करते थक जाती थीं, लेकिन परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम करना भी पहाड़ जैसा काम लगता था। ट्राइबल कम्यूनिटी से ताल्लुक रखने वालीं पाबिबेन के सामने मुश्किलों का पहाड़ खड़ा था, लेकिन उन्होंने समर्पण के बजाय संघर्ष की राह चुनी। खुद को काबिल बनाने के साथ-साथ अपने गांव की महिलाओं को कामयाब बनाने की मुहिम शुरू की। आज उनकी कला की डिमांड भारत के साथ-साथ दुनिया के 40 देशों में है। 200 से ज्यादा महिलाओं को उन्होंने रोजगार दिया है। हजारों महिलाओं को काम से जोड़ा है। खुद उनकी कंपनी का सालाना टर्नओवर 30 लाख रुपए है।
चौथी क्लास तक पढ़ी हैं पाबीबेन
पढ़ना चाहती थीं लेकिन घर के हालात के आगे मजबूर थीं। 37 साल की पाबिबेन बताती हैं कि मैं पढ़ना चाहती थी। परिवार की आर्थिक मुसीबतों को दूर करने के लिए कुछ करना चाहती थी, लेकिन पैसे की तंगी के चलते चौथी के बाद पढ़ नहीं पाई। पूरा वक्त मां के साथ काम करते ही निकल जाता था। घर में दो छोटी बहनें थीं, उनकी भी देखभाल करनी पड़ती थी। मैंने मां से कई बार कहा भी कि मुझे पढ़ना है लेकिन वह भी मजबूर थी, क्या कर सकती थी। गरीबी और भूख के आगे हमारा कोई वश नहीं था।
कम उम्र में शादी, पति भेड़-बकरी चराते थे
वे कहती हैं कि कम उम्र में ही छत्तीसगढ़ में मेरी शादी हो गई। वहां भी इसी तरह के हालात थे। मुश्किलें पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही थीं। पति भेड़-बकरियां चराने का काम करते थे। कई बार जानवरों के साथ वे दूर निकल जाते थे। पाबिबेन कहती हैं कि छत्तीसगढ़ में मेरा रहना मुमकिन नहीं हो रहा था। क्योंकि हमारा कोई स्थाई ठिकाना नहीं था और मैं वैसे रहना नहीं चाहती थी। इसलिए पति को समझाने के बाद हम वापस गुजरात आ गए। यहां आकर हमने एक किराने की दुकान खोली। पति उसको संभालने लगे और मैं वहां की पारंपरिक (ट्रेडिशनल) कढ़ाई बुनाई का काम करने लगी, जो अपनी मां से सीखा था।
यहां ससुराल जाने वाली लड़कियां अपने साथ हाथ से कढ़ाई किया हुआ बैग और कपड़े ले जाती थीं। मैं बड़े घर की लड़कियों के लिए ये काम करने लगीं। इससे मुझे कुछ आमदनी भी होने लगी। कुछ महीने बाद पाबिबेन एक संस्था से जुड़ गईं। जिसके लिए वे कढ़ाई-बुनाई का काम करती थीं। बदले में उन्हें संस्थान की तरफ से मेहनताना मिलता था। पाबिबेन कहती हैं कि हमें काम के लिए पैसे तो मिलते थे लेकिन क्रेडिट नहीं मिलता था। बड़ी कंपनियां हमसे सस्ते दाम पर खरीदकर उसे अपने नाम से महंगी कीमत पर बेचती थीं। हम बस मजदूर बनकर रह जाते थे।
पति ने खुद का काम शुरू करने का सुझाव दिया
इसके बाद पाबिबेन के पति ने सुझाव दिया कि हमें दूसरों के लिए बनाने की बजाय खुद के नाम से मार्केटिंग करनी चाहिए। आइडिया तो बढ़िया था, लेकिन मुश्किल यह थी कि न तो दोनों पढ़े-लिखे थे और न ही उनके पास उतने पैसे ही थे कि कंपनी शुरू कर सकें। पाबिबेन कहती हैं कि 2016 में मैं अपने एक परिचित नीलेश प्रियदर्शी से मिलीं। वे पढ़े-लिखे और इन सब चीजों में एक्सपर्ट थे। कॉरपोरेट और रूरल दोनों ही सेक्टर में उनका लंबा अनुभव था। उनसे मैंने अपना आइडिया शेयर किया। उन्होंने हमारी काफी मदद की और हमें मार्केटिंग की जानकारी दी, संसाधन उपलब्ध कराए। कुछ महीने बाद हमने पबिबेन डॉट कॉम नाम से खुद की कंपनी रजिस्टर की और मार्केटिंग करने लगे।
धीरे-धीरे बढ़ने लगी प्रोडक्ट की डिमांड
स्थानीय महिलाएं पाबिबेन के लिए प्रोडक्ट तैयार करने का काम करती हैं। इसके बाद वे उसकी मार्केटिंग करती हैं। पाबिबेन और उनकी टीम पहले लोकल मार्केट में कारोबार करती थीं। बाद में उन्होंने अलग-अलग एग्जीबिशन में जाना शुरू कर दिया। कई शहरों में स्टॉल लगाकर मार्केटिंग करना शुरू कर दिया। इसका उन्हें बढ़िया रिस्पॉन्स मिला। एक के बाद एक उनके ग्राहक बढ़ते गए। धीरे-धीरे उन्होंने अपने काम का भी दायरा बढ़ा दिया। गांव की स्थानीय महिलाओं को काम पर रख लिया। इससे इन महिलाओं को भी अच्छी आमदनी होने लगी। इसके बाद उन्होंने मार्केटिंग के लिए सोशल मीडिया की मदद ली। खुद की वेबसाइट बनवाई और देशभर में अपने प्रोडक्ट की डिलीवरी करने लगीं। कोरोनाकाल में अमेजन और फिल्पकार्ट पर भी उनके प्रोडक्ट उपलब्ध हो गए। अभी वे बैग, शॉल, मोबाइल कवर, पर्स सहित 50 से ज्यादा वैराइटी के प्रोडक्ट्स की मार्केटिंग करती हैं। अमेरिका, जापान सहित 40 देशों में उनके प्रोडक्ट्स की डिमांड है।
साल 2016 में प्रधानमंत्री मोदी कर चुके हैं पाबिबेन के काम की तारीफ
देश के कई शहरों में उनके रिटेलर्स जुड़े हैं। उनके बनाए प्रोडक्ट को कुछ बॉलीवुड और हॉलीवुड फिल्मों में भी जगह मिली है। उन्हें नेशनल और इंटरनेशनल लेवल पर सम्मान भी मिले हैं। पाबिबेन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सम्मानित कर चुके हैं। इसके साथ ही वे केबीसी के मंच पर अमिताभ बच्चन के साथ नजर आ चुकी हैं।
अब कारीगर क्लिनिक मॉडल पर फोकस
पाबिबेन के साथ काम करने वाले नीलेश बताते हैं कि अभी हम लोग कारीगर क्लिनिक मॉडल पर काम कर रहे हैं। इसमें हम स्थानीय कलाकारों को बढ़ावा देते हैं। सबसे पहले हम गांव-गांव जाकर कलाकारों से मिलते हैं, उनकी कला और काम को समझने की कोशिश करते हैं। इसके बाद जैसे डॉक्टर क्लिनिक में मरीज के डिजीज का एनालिसिस करता है, वैसे ही हम लोग कलाकारों की प्रॉब्लम को समझते हैं, उन्हें प्रोडक्ट बनाने या मार्केटिंग में कहां दिक्कत आ रही है, इसको लेकर जानकारी जुटाते हैं। इसके बाद हम ऐसे कलाकारों को मंच देते हैं। ताकि वे खुद के नाम से अपना प्रोडक्ट तैयार कर सकें। नीलेश कहते हैं कि हमारी कोशिश है कि पाबिबेन की तरह और भी स्थानीय कलाकार तैयार करें, उन्हें ब्रांड के रूप में तब्दील करें। पिछले दो साल में हमने ऐसे कई कलाकारों को पहचान और मार्केटिंग के लिए प्लेटफॉर्म दिया है। कोरोनाकाल में इन महिलाओं के बनाए स्पेशल गिफ्ट पैक की भी खूब डिमांड रही है।