ये कहानी है मोहित आहूजा की, जो स्पेशली एबल्ड बच्चों को फोटोग्राफी सिखाते हैं। वे कहते हैं- कैमरा फोटोज़ खींचता है। वो नहीं जानता कि उसे पकड़ने वाला अंधा है, अनाड़ी है या सबसे बेहतरीन फोटोग्राफर।
स्पेशली-एबल्ड होना आजकल फैशनेबल लफ्ज है। जब भी फेसबुक खोलो, कोई न कोई स्पेशली-एबल्ड बच्चों, कैंसर या डिप्रेशन पर बात करता मिल जाएगा। बड़ी-बड़ी पोस्ट, भारी-भरकम शब्द, हर पोस्ट पर ढेरों लाइक व शेयर- देखकर लगे कि संसार का दिल मुलायमियत से कितना भरा हुआ है। फेसबुक से बाहर असल संसार का चेहरा एकदम अलग है। जैसे बाघ अपने पंजे छिपाए बैठा हो व शिकार पाते ही नाखून मार देगा।
स्पेशली-एबल्ड बच्चों को आज भी निर्बल माना जाता है। हम निहाल हो जाते हैं अगर किसी ऐसे बच्चे ने 12वीं भी कर ली या फोन उठाकर जवाब देना सीख लिया।
स्पेशली एबल्ड बच्चों पर कार्य करने वाले जितने NGOs हैं, वे उन्हें कैंडल बनाना सिखाते हैं या फिर लिफाफे या दिए। वे मान बैठे हैं कि इन्हें इससे ज्यादा कुछ सिखाया नहीं जा सकता। तभी तो जब मैंने 2015 में सोचा कि मुझे इन्हें फोटोग्राफी सिखानी है तो बहुत से लोगों ने पीठ तो ठोंकी लेकिन साथ देने से इन्कार कर दिया।
तब मैंने अपनी गड्डी से लेकर चड्डी तक बेच दी। यही वो पैसे थे, जिनसे मुझे आरंभ करनी थी।
तब बहन ने नई-नई साइकिल सीखी थी। अगली रोज वो साइकिल से अपने एनजीओ जाने वाली थी। एक शाम पहले पापा घर से निकले व रास्ते में पड़ने वाली सारी दुकानों में रुके। एक-एक से मिले, बेटी की तस्वीर दिखाई व कहा- ये अब से रोज यहां से गुजरेगी। जब भी उसके चेहरे पर कोई कठिनाई दिखे, आप मदद कर दीजिए। मैं हर सप्ताह आऊंगा व कुछ खर्च हुआ हो तो उसका भरपाई कर दूंगा। ऐसा वर्षों तक चला।
उसके साथ रहते हुए मैंने डिसएबिलिटी को करीब से समझा। अजीब चेहरे की वजह से उसकी बीमारी को मॉन्स्टर नाम मिला है। लोग पहली बार देखें तो भय जाते हैं, फिर दया जताते हैं। यही हमारा हासिल है।
इसी सोच को बदलने के लिए जॉब छोड़ी। दो-तीन महीने लगे, तब जाकर एक एनजीओ में बात बनी। वे स्पेशल बच्चों पर कार्य करते। वहां मुझे फोटोग्राफी की 10 दिनों की वर्कशॉप लेनी थी। लगभग 15 बच्चे रहे होंगे। कैमरा पकड़ना दूर, किसी ने कभी कैमरा देखा तक नहीं था। 10 दिन बीते।
फाइनल शूट किया तब तक अहसास हो चुका था कि ये बच्चे सचमुच स्पेशल हैं। इनपर आगे कार्य करना चाहिए। मैंने बात की। सबने विरोध किया।