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मोहित आहूजा नेत्रहीन बच्चों को सिखाते है फोटोग्राफी

 वो बीमारी जिसमें चेहरा दूसरे चेहरों से अलग लगता है कई  भी तकलीफें थीं उपचार के लिए बार-बार एम्स आना होता हम साउथ दिल्ली आ गए दीदी की वजह से पूरा घर स्पेशली-एबल्ड हो गया आम घरों से थोड़ा ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा सुलझा हुआ दीदी ही है, जिसने मुझे इंसान बनाया, अन्यथा अबतक मैं अपनी दुकान खोल चुका होता  शाम को पैसे गिनता या तगादे करता होता

ये कहानी है मोहित आहूजा की, जो स्पेशली एबल्ड बच्चों को फोटोग्राफी सिखाते हैं वे कहते हैं- कैमरा फोटोज़ खींचता है वो नहीं जानता कि उसे पकड़ने वाला अंधा है, अनाड़ी है या सबसे बेहतरीन फोटोग्राफर

स्पेशली-एबल्ड होना आजकल फैशनेबल लफ्ज है जब भी फेसबुक खोलो, कोई न कोई स्पेशली-एबल्ड बच्चों, कैंसर या डिप्रेशन पर बात करता मिल जाएगा बड़ी-बड़ी पोस्ट, भारी-भरकम शब्द, हर पोस्ट पर ढेरों लाइक  शेयर- देखकर लगे कि संसार का दिल मुलायमियत से कितना भरा हुआ है फेसबुक से बाहर असल संसार का चेहरा एकदम अलग है जैसे बाघ अपने पंजे छिपाए बैठा हो  शिकार पाते ही नाखून मार देगा

स्पेशली-एबल्ड बच्चों को आज भी निर्बल माना जाता है हम निहाल हो जाते हैं अगर किसी ऐसे बच्चे ने 12वीं भी कर ली या फोन उठाकर जवाब देना सीख लिया

स्पेशली एबल्ड बच्चों पर कार्य करने वाले जितने NGOs हैं, वे उन्हें कैंडल बनाना सिखाते हैं या फिर लिफाफे या दिए वे मान बैठे हैं कि इन्हें इससे ज्यादा कुछ सिखाया नहीं जा सकता तभी तो जब मैंने 2015 में सोचा कि मुझे इन्हें फोटोग्राफी सिखानी है तो बहुत से लोगों ने पीठ तो ठोंकी लेकिन साथ देने से इन्कार कर दिया

तब मैंने अपनी गड्डी से लेकर चड्डी तक बेच दी यही वो पैसे थे, जिनसे मुझे आरंभ करनी थी

मोहित याद करते हैं – वैसे असल आरंभ वर्षों पहले हो चुकी थी मेरी बड़ी बहन स्पेशली एबल्ड है मुझसे 12 वर्ष बड़ी मेरा जन्म हुआ, तब तक पूरा घर ही स्पेशली एबल्ड हो चुका था घर की हरेक वस्तु उसी ढंग रखी हुई, जिसमें उसे सहूलियत हो ये अच्छा वैसा ही है, जैसे घर में कोई कम कद का आ जाए तो उसे नॉर्मल महसूस कराने के लिए सारी चीजें नीचे रखी जाने लगती हैं

तब बहन ने नई-नई साइकिल सीखी थी अगली रोज वो साइकिल से अपने एनजीओ जाने वाली थी एक शाम पहले पापा घर से निकले  रास्ते में पड़ने वाली सारी दुकानों में रुके एक-एक से मिले, बेटी की तस्वीर दिखाई  कहा- ये अब से रोज यहां से गुजरेगी जब भी उसके चेहरे पर कोई कठिनाई दिखे, आप मदद कर दीजिए मैं हर सप्ताह आऊंगा  कुछ खर्च हुआ हो तो उसका भरपाई कर दूंगा ऐसा वर्षों तक चला

उसके साथ रहते हुए मैंने डिसएबिलिटी को करीब से समझा अजीब चेहरे की वजह से उसकी बीमारी को मॉन्स्टर नाम मिला है लोग पहली बार देखें तो भय जाते हैं, फिर दया जताते हैं यही हमारा हासिल है

इसी सोच को बदलने के लिए जॉब छोड़ी दो-तीन महीने लगे, तब जाकर एक एनजीओ में बात बनी वे स्पेशल बच्चों पर कार्य करते वहां मुझे फोटोग्राफी की 10 दिनों की वर्कशॉप लेनी थी लगभग 15 बच्चे रहे होंगे कैमरा पकड़ना दूर, किसी ने कभी कैमरा देखा तक नहीं था 10 दिन बीते

फाइनल शूट किया तब तक अहसास हो चुका था कि ये बच्चे सचमुच स्पेशल हैं इनपर आगे कार्य करना चाहिए मैंने बात की सबने विरोध किया

पेरेंट्स की सोच बदलना सबसे बड़ा चैलेंज हैं

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