सिद्धांतों पर आधारित विरोध करना विपक्ष का दायित्व है. लेकिन विगत नौ वर्षों से वह मात्र बाधक बन कर रह गया है. ऐसा करते हुए उसे बार बार फजीहत उठानी पड़ी. राजनीतिक रूप से भी उसे कोई लाभ नहीं हुआ. उसकी बाधाओं को पार करते हुए नरेंद्र मोदी आगे बढ़ते रहे. जन्मभूमि पर श्री राम मन्दिर निर्माण में विपक्षी नेताओं ने अंतिम समय तक बाधा डाली. अंततः इसका भी निवारण हुआ. अब तो लगता है कि ऐसी फजीहत विपक्ष की फ़ितरत बन गई है. इसलिए उसने नए संसद भवन (New Parliament Building) के उद्घाटन में बाधा उत्पन्न करने का संकल्प लिया है। उसने कहा कि नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्वारा होना चाहिए. लेकिन इस विषय पर भी उसकी फजीहत शुरू हो चुकी है।
आश्चर्य हुआ कि राष्ट्रपति के प्रति विपक्ष का ऐसा सम्मान क्यों उफान पर आ गया. चर्चा का प्रारंभ कांग्रेस ने किया. इसलिए इस सम्बन्ध में उसका इतिहास लोगों के ध्यान में आने लगा. द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद भी कांग्रेस के नेता उनके प्रति सम्मान व्यक्त नहीं कर सके थे. लोकसभा में कांग्रेस के नेता ने तो सार्वजनिक रूप से अमर्यादित बयान दिया था. इसके पहले राष्ट्रपति चुनाव में भी द्रोपदी मुर्मू के विरोध में निंदनीय अभियान चलाया गया था. दूसरी ओर द्रोपदी मुर्मू ने गरिमा और गंभीरता का परिचय दिया. किसी भी नकारात्मक टिप्पणी का जबाब नहीं दिया. किसी का विरोध नहीं किया.उन्होंने सकारत्मक मार्ग का अनुसरण किया. आज भी विपक्ष का सम्मान उनके प्रति नहीं है. बल्कि नरेंद्र मोदी द्वारा उद्घाटन में बाधा बाधा डालना उसका उद्देश्य है।
विपक्षी नेताओं को लगता है कि इस अड़ंगेबाजी से उसे राजनीतिक लाभ मिलेगा. लेकिन उसका यह दांव उल्टा पड़ा है. जिन तथ्यों पर लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया था, वह फिर चर्चा में आ गए. वस्तुतः कांग्रेस और उसके सहयोगियों को तो इस पर बोलने का कोई अधिकार नहीं है. उन्होंने तो संसद के नए भवन बनाने का पुरजोर विरोध किया था. फिर उन्हें उद्घाटन के सम्बन्ध में कोई सलाह देने का अधिकार ही नहीं है. इसके अलावा उनका अतीत भी इस सलाह को बेमानी साबित करने वाला है. इसलिए कांग्रेस और उसके सहयोगियों को इस नए भवन के सम्बन्ध में तीसरी बार शर्मिंदगी का ही सामना करना होगा. इसके पहले संसद भवन निर्माण के संबंध में विपक्षी पार्टियों को लगातर दो बार मुँह की खानी पड़ी थी।
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पहले उसने सेंट्रल विस्टा निर्माण को रोकने के लिए हंगामा किया था. बाद में पता चला कि इसके पीछे किराये की रकम थी. सेंट्रल विस्टा बन जाने के बाद निजी भवनों में चलने वाले कार्यालयों को यहीं स्थान मिल जाएगा. इससे निजी हाथों में पहुँच रही भारी धनराशि बंद हो जाती. इससे अनेक नेताओं पर सीधा प्रभाव पड़ता. यही व्यथा विपक्ष के अनेक नेताओं को परेशान कर रही थी.सच्चाई सामने आई तब विरोध भी शांत हो गया. लेकिन इस प्रकरण से विपक्ष की बड़ी फजीहत हुई थी. कई महिनों बाद इसी परिसर से विपक्षी नेता फिर एक मुद्दा उठा लाए. दूसरी बार भी मुँह की खानी पड़ी।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने यहां राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह का लोकार्पण किया था. शेर का मुँह देख कर विपक्ष विफर गया. उसने कहा कि मोदी सरकार ने परम्परागत चिन्ह को बदल दिया है. एक दर्जन से अधिक विपक्षी दलों के बीच मोदी सरकार के विरोध में प्रतिस्पर्धा चलती है. हर कोई विरोध की इस अंध दौड़ में सबसे आगे रहना चाहता है. किसी को सही गलत पर अपने विवेक से विचार करने का आवश्यकता नहीं लगती.ऐसे विरोध पर पुनः विपक्षी पार्टियों को शर्मिंदगी उठानी पड़ी है।
सरकार की तरफ से बताया गया कि सांसद के ऊपर लगाया गया राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह सारनाथ के मूल प्रतीक चिन्ह की एक प्रतिलिपि है.इसमें केवल आकार का ही अंतर है। अनुपात और परिपेक्ष जरूरी होता है. यह देखने वाले की आंखों में है कि उसे क्या दिखाई देता है। उसे शांत स्वभाव दिखता है या क्रोध दिखाई देता है। संसद के ऊपर लगे इस प्रतीक चिन्ह को लेकर कई तरह की चर्चाएं चल रहीं थीं. विपक्ष ने इसे बड़ा मुद्दा बना लिया था. कहा जा रहा था कि संसद के ऊपर रखे गए प्रतीक चिन्ह में शेर आक्रामक है। विपक्षी नेताओं ने इस तथ्य पर कोई विचार नहीं किया।
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इस संबंध में सरकार ने उसे जबाब दिया. कहा कि दो संरचनाओं की तुलना करते समय कोण, ऊंचाई और पैमाने के प्रभाव को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। यदि कोई नीचे से सारनाथ के प्रतीक को देखता है तो वह उतना ही शांत या क्रोधित लगेगा जितना कि चर्चा की जा रही है। सारनाथ मूल प्रतीक 1.6 मीटर ऊंचा है तो वही संसद भवन में यह प्रति 6.8 मीटर है। मूल प्रतीक चिन्ह की प्रतिलिपि नई इमारत से साफ-साफ नहीं दिखाई देती। इसलिए उसको बड़े आकार में लगाया गया है।
विशेषज्ञों को यह समझना चाहिए कि सारनाथ की मूल प्रतिमा जमीन पर स्थित है जबकि नया प्रतीक जमीन से 33 मीटर की ऊंचाई पर है। भवन एक है, उस पर विपक्ष ने तीसरी बार बाधा डाली है.विपक्षी दलों का कहना है कि नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को करना चाहिए. उसका इतना कहना था कि राष्ट्रपति चुनाव से लेकर कांग्रेस सरकारों के कार्यों का चिट्ठा फिर चर्चा में आ गया.अनेक गैर भाजपा दलों की सरकारों के प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और नेताओं ने संसद या विधानसभा के भवनों का उद्घाटन और शिलान्यास किया है।
इतना ही नहीं कई बार तो उद्घाटन समारोह में राष्ट्रपति या सम्बन्धित राज्य के राज्यपाल तक को आमंत्रित तक नहीं किया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने वर्ष 2010 में नए विधानसभा परिसर का उद्घाटन किया था. तब राष्ट्रपति के प्रति इनका सम्मान नदारत था. इसमें राष्ट्रपति को आमंत्रित नहीं किया गया था। 1975 को तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने नई दिल्ली में संसद की एनेक्सी यानी उपभवन का उद्घाटन किया था। उसमें भी राष्ट्रपति आमंत्रित नहीं थे. 1987 को तत्कालीन पीएम राजीव गांधी ने संसद भवन में नए पुस्तकालय का उद्घाटन किया था। 2020 में सोनिया गांधी ने छत्तीसगढ़ में नए विधानसभा भवन भवन का शिलान्यास किया था। जिसमें राज्यपाल को आमंत्रण नहीं दिया गया था।
आंध्र प्रदेश के नए विधानसभा भवन उद्घाटन 2018 में तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू किया था. राज्यपाल आमंत्रित नहीं थे. 2009 में असम में मुख्यमंत्री ने विधानसभा के नये भवन का शिलान्यास किया था। उस समारोह में भी राज्यपाल को आमंत्रित नहीं किया गया था। 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने मणिपुर की राजधानी विधानसभा परिसर और सिटी कन्वेंशन सेंटर समेत कई भवनों का शुभारंभ किया था. अब विपक्षी नेताओं को इन बातों का जबाब देना होगा. उनको यह भी जबाब देना होगा कि सेंगोल को उपेक्षित क्यों रखा गया।
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नए संसद भवन में इसकी स्थापना होगी. गत वर्ष इसे इलाबादाद संग्रहालय से निकाल कर नई दिल्ली भेजा गया था. यह देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से उनकी व्यक्तिगत संग्रहीत वस्तुओं के साथ इलाहाबाद संग्रहालय को प्राप्त हुआ था। इलाहाबाद संग्रहालय की चेयरपर्सन और राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने निर्देश दिया कि इस ऐतिहासिक छड़ी सेंगोल को दिल्ली संग्रहालय भेजने की व्यवस्था की जाए. वस्तुतः नए संसद भवन के उद्घाटन के वास्तविक हकदार नरेंद्र मोदी ही है. उनकी संकल्प शक्ति से ही यह भवन बना है।
रिपोर्ट-डॉ दिलीप अग्निहोत्री