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संघ प्रमुख का सकरात्मक संवाद

      डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

राष्ट्रीय स्वय सेवक संघ की स्थापना सकरात्मक चिंतन के आधार पर हुई थी. इसमें किसी के प्रति नकारात्मक विचार नहीं था.राष्ट्रहित को सर्वोच्च माना गया.संघ की शाखाओं में प्रतिदिन वत्सले मातृ भूमि की प्रार्थना की जाती है. वैसे भी हिन्दू समाज के संगठन के विचार में असहिष्णुता सम्भव ही नहीं है. क्योंकि दुनिया की सर्वाधिक प्राचीन यहां की सभ्यता संस्कृति में उदार चिंतन का समावेश है.

वसुधा को कुटुंब माना गया.सम्पूर्ण मानवता के कल्याण और सुख की कामना की गई. मोहन भागवत ने कहा था कि राष्ट्र को सर्वोच्च मानने के विचार मात्र से सभी भेद तिरोहित हो जाते हैं। भारत ही एकमात्र देश है,जहाँ पर सबके सब लोग बहुत समय से एक साथ रहते आए हैं। सबसे अधिक सुखी मुसलमान भारत देश के ही हैं। दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है,जहाँ उस देश के वासियों की सत्ता में दूसरा संप्रदाय पूरे अधिकार के साथ रहा हो। हमारे यहाँ मुसलमान व ईसाई हैं। उन्हें तो यहाँ सारे अधिकार मिले हुए है। संघ की प्रेरणा से राष्ट्रीय मुस्लिम मंच सामजिक एकता और सौहार्द के लिए समर्पित भाव से कार्य कर रहा है. मोहन भागवत का दिल्ली के एक मदरसे में जाना इसी भावना के अनुरूप था।

डॉ. भागवत पुरानी दिल्ली के आजाद मार्केट स्थित मदरसा तजवीद-उल-कुरान भी गए। वहां उन्होंने मदरसे के शिक्षकों और छात्रों से संवाद किया. वह यहां मौलाना उमेर अहमद इलियासी के आमन्त्रण पर पहुँचे थे. मौलाना डॉ. इलियासी इस मस्जिद के इमाम और ऑल इंडिया इमाम ऑर्गेनाइजेशन के प्रमुख हैं। उन्होंने डॉ मोहन भागवत का कहना दोहराया कि हम सबका डीएनए एक है. मोहन भागवत भी चाहते हैं कि देश में हिंदू और मुसलमानों के बीच शांति सौहार्द कायम करने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं. इस क्रम में वह पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी, दिल्ली के पूर्व उप राज्यपाल नजीब जंग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति रिटायर्ड कर्नल जमालुद्दीन शाह,वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सांसद शाहिद सिद्दीकी और शिक्षाविद् मुस्तफा शेरवानी से संवाद कर चुके हैं. इस संवाद को लोग नई पहल के रूप में देख रहे हैं. लेकिन वैचारिक रूप से इसमें कुछ भी नया नहीं हैं. संघ शांति और अहिंसा के मार्ग पर चलने वाला संगठन है. उसके सभी प्रयास इसी भावना के अनुरूप रहते हैं।

इसके साथ ही संघ भारत माता को परम वैभव के पद पर आसीन देखना चाहता है. इसके लिए देश में शांति और परस्पर सौहार्द रहना आवश्यक है.कुछ समय पहले मोहन भागवत ने कहा था कि धर्म का अर्थ वर्तमान के समय में संतुलन, संयम और मध्यम है.समाज को एकजुट करने, राष्ट्रीय भावना की प्रेरणा देने के उद्देश्य से उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना हुई थी. राष्ट्रीय व प्राकृतिक आपदा के समय स्वयंसेवक अपनी प्रेरणा से बिना भेदभाव के सेवा कार्य में जुटते रहे है। चीन व पाकिस्तान के आक्रमण के समय स्वयंसेवक अपने स्तर से सहयोग करते थे। इसलिए गणतंत्र दिवस परेड में स्वयंसेवकों को पथ संचलन हेतु राजपथ पर आमंत्रित किया गया था। लाल बहादुर शास्त्री ने द्वितीय सर संघचालक से पूछा था कि आप स्वयंसेवकों को राष्ट्र सेवा की प्रेरणा कैसे देते थे।

गुरु गोलवलकर ने कहा था को हम लोग शाखा में खेलते हैं। यहीं संगठन की प्रेरणा मिलती है, संस्कार और राष्ट्रभाव जाग्रत होता है। इसके लिए शाखाओं की पद्धति शुरू की गई।वस्तुतः मोहन भागवत ने कोई नई बात नहीं कही है। संघ प्रारंभ से ही इसी सांस्कृतिक अवधारणा पर विश्वास करता रहा है। इसी विचार को मोहन भागवत ने अभिव्यक्त किया। कहा कि सभी भारतीयों का डीएनए एक है। चाहे वे किसी भी धर्म के हों। लिंचिंग हिंदुत्व के विरुद्ध है। हिंदू मुस्लिम एकता भ्रामक है क्योंकि वे अलग नहीं। पूजा पद्धति को लेकर लोगों के बीच अंतर नहीं किया जा सकता। यह सिद्ध हो चुका है कि हम पिछले चार हजार सालों से एक ही पूर्वजों के वंशज हैं। देश में एकता के बिना विकास संभव नहीं है। एकता का आधार राष्ट्रवाद होना चाहिए। स्पष्ट है कि मोहन भागवत का बयान भारतीय संस्कृति के अनुरूप है।

आरएसएस के सर संघ चालक मोहन भागवत पहले भी सामाजिक समरसता का सन्देश देते रहे हैं. भारतीयों का डीएनए एक है। इसलिए सामाजिक समरसता का भाव रहना चाहिए। भारत में तो प्राचीन काल से सभी मत पंथ व उपासना पद्धति को सम्मान दिया गया। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः ही भारत की विचार दृष्टि है। निःस्वार्थ सेवा और सामाजिक समरसता भारत की विशेषता रही है। सेवा कार्य में कोई भेदभाव नहीं होता। संविधान की प्रस्तावना में ही बंधुत्व की भावना का उल्लेख किया गया है। यह शब्द हिंदुत्व की भावना के अनुरूप है। इस दर्शन में किसी सम्प्रदाय से अलगाव को मान्यता नहीं दी गई। विविधता के बाद भी समाज एक है। भाषा, जाति, धर्म, खानपान में विविधता है। उनका उत्सव मनाने की आवश्यकता है।

कुछ लोग विविधता की आड़ में समाज और देश को बांटने की कोशिश में जुटे रहते हैं। लेकिन भारतीय चिंतन विविधता में भी एकत्व सन्देश देता है।हमारी संस्कृति का आचरण सद्भाव पर आधारित है। यह हिंदुओं तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत में रहने वाले ईसाई और मुस्लिम परिवारों के भीतर भी यह भाव साफ देखा जा सकता है। एक सौ तीस करोड़ का समाज भारत माता का पुत्र है। हमारा बंधु है। क्रोध और अविवेक के कारण इसका लाभ लेने वाली अतिवादी ताकतों से सावधान रहना है। सेवा समरसता आज की आवश्यकता है। इस पर अमल होना चाहिए। इसी से श्रेष्ठ भारत की राह निर्मित होगी।वर्तमान परिस्थिति में आत्मसंयम और नियमों के पालन का भी महत्व है। समाज में सहयोग सद्भाव और समरसता का माहौल बनाना आवश्यक है। भारत ने दूसरे देशों की सहायता करता रहा है। क्योंकि यहीं हमारा विचार है।

समस्त समाज की सर्वांगीण उन्नति ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। जब हिंदुत्व की बात आती है तो किसी अन्य पंथ के प्रति नफरत, कट्टरता या आतंक का विचार स्वतः समाप्त हो जाता है। तब वसुधैव कुटुंबकम व सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव ही जागृत होता है। भारत जब विश्व गुरु था,तब भी उसने किसी अन्य देश पर अपने विचार थोपने के प्रयास नहीं किये। भारत शक्तिशाली था, तब भी तलवार के बल पर किसी को अपना मत त्यागने को विवश नहीं किया।

दुनिया की अन्य सभ्यताओं से तुलना करें तो भारत बिल्कुल अलग दिखाई देता है। जिसने सभी पंथों को सम्मान दिया। सभी के बीच बंधुत्व का विचार दिया। ऐसे में भारत को शक्ति संम्पन्न बनाने की बात होती है तो उसमें विश्व के कल्याण का विचार ही समाहित होता है। भारत की प्रकृति मूलतः एकात्म है और समग्र है। अर्थात भारत संपूर्ण विश्व में अस्तित्व की एकता को मानता है।इसलिए हम टुकड़ों में विचार नहीं करते। हम सभी का एक साथ विचार करते हैं। समाज का आचरण शुद्ध होना चाहिए। इसके लिए जो व्यवस्था है उसमें ही धर्म की भी व्यवस्था है। धर्म में सत्य,अहिंसा,अस्तेय ब्रह्मचर्य,अपरिग्रह,शौच, स्वाध्याय,संतोष,तप को महत्व दिया गया। समरसता सद्भाव से देश का कल्याण होगा। हमारे संविधान के आधारभूत तत्व भी यही हैं।

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