सिनेमा में नए कंटेंट नई कहानी की कमी की रूदाली आए दिन फिल्म मेकर करते रहते है। लेकिन दुर्भाग्य है,की लेखक की कद्र नहीं करते। एक दो अपवाद निर्माताओं को छोड़ दिया जाए तो पूरी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसा कोई निर्माता नहीं जो लेखक को उसका हक ईमानदारी से देता हो। ऐसा कहना है फिल्म लेखक जावेद अहमद (Javed Ahmed) का, जावेद कहते है, एक दौर था जब लेखक की अहमियत थी। लेखक के पारिश्रमिक की कद्र की जाती थी,उसका हक नहीं मारा जाता था। लेकिन जैसे जैसे सिनेमा तकनीकी रूप से विकास करने लगा। लेखक की अहमियत कम होती चली गई। उनके अधिकारों की फिकर किसी को नहीं हुई। बस इल्ज़ाम लगने लगा कि कहानी में नयापन वाले लेखकों की कमी है।
जावेद बताते है, “दो चार निर्माताओं को दरकिनार कर दिया जाए, तो निर्माताओं का हाल ये है कि लेखक को पैसे देने के नाम पर लेखक को भिखारी समझ लिया जाता है। उनका बजट निकालते वक्त निर्माता गरीब हो जाता है, और आर्टिस्ट को पैसा देना हो तो आर्टिस्ट जितना पैसा मांगता है वो उन्हें कम लगता है। सब मानते है कि आज के दौर में कंटेंट अच्छा ना हो तो करोड़ों की फिल्म कौड़ियों के मोल है। लेकिन उन्हें कंटेंट का मोल समझ नहीं आता। लेखक की अहमियत समझ नहीं आती,उन्हें लेखक बोझ लगता है”।
जावेद अपना अनुभव बताते हुए कहते है, चार साल पहले मै भारत के एक बहुत बड़े निर्माता निर्देशक की फिल्म लिख रहा था, लेकिन एडवांस के नाम पर उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही थी,और एक दिन मैने काम रोक दिया। पैसे दो तो लिखेंगे,वरना नहीं. पैसे तो मिल गए लेकिन उनके अहंकार को ठेस लग गया की आज तक किसी ने पैसे नहीं मांगे। इसी तरह पिछले दिनों गिने चुने चार निर्माताओं में से एक निर्माता से फिल्म के डायरेक्टर ने मीटिंग कराई कहानी सुनाने के लिए, निर्माता साहब के पास कहानी सुनने के लिए सिर्फ 20 मिनट थे. मैने कैसे भी 20 मिनिट्स में कहानी सुना दी, कहानी पसंद आ गई।
निर्माता ने हाथ मिलाया और बोले आप स्क्रिप्ट लिखना शुरू कर दो,बजट और स्टार की चिंता ना कीजिएगा। वो मैं चुटकी में ले आऊंगा,मैं कहानी सुना कर बाहर आ गया। निर्माता दूसरी मीटिंग में व्यस्त हो गया। डायरेक्टर और एक्सक्यूटिव प्रोड्यूसर खुश हो गए, लेकिन मैने कहा जब तक 20% एडवांस नहीं देंगे मै काम नहीं शुरू करूंगा। डायरेक्टर और एक्सक्यूटिव प्रोड्यूसर दुहाई देते रहे की एडवांस के लिए बोलना ठीक नहीं है। इतना बड़ा मौका मिल रहा है आपको, मैने मना कर दिया कि तीन चार महीने क्या भूखे रह कर फिल्म लिखा जा सकता है? फिल्म लिखने के लिए मानसिक आजादी चाहिए होती है,मैं घर का भाड़ा,स्कूल फीस, रोज का खर्चा का जुगाड करूंगा या फिल्म लिखूंगा? पैसा नहीं तो काम नहीं।
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जावेद अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते है, जो नए राइटर है,वो बड़े प्रोड्यूसर तक पहुंच नहीं पाते। अच्छे कंसेप्ट के लिए निर्माताओं को प्रतिभाओं के लिए अपना दरवाजा खोलना होगा,पैसे खर्च करना होगा, जो अच्छी कहानी आए उसे तुरंत पैसे दे कर अपने अधिकार में लेना होगा। राइटर को अपने ऑफिस के चक्कर खिलाने की जरूरत नहीं है। उन्हें तुरंत पैसे दे कर स्क्रिप्ट लिखने के काम पर लगा देना चाहिए। उसे उसकी बेहतरीन कीमत मिलनी चाहिए,ताकि वो दिल से दुआएं देते हुए आपके लिए लिख सके।
जावेद बताते है,जबसे फिल्म इंडस्ट्री में कारपोरेट आया,एक क्रिएटिव नाम का जीव आ गया है। जिनमें सिर्फ 20% लोगों के पास दिमाग है,बाकी सिर्फ इंग्लिश बोल के, और कोरियन फिल्में देख के ज्ञानी बने हुए है। उनकी पगार इतनी होती है कि अच्छे स्क्रिप्ट में वो उंगली करना शुरू करते है, सिर्फ मीटिंग का खेल खेलते है। इंडियन इमोशन की उन्हें समझ नहीं है,कही कोई विदेशी फिल्म देख कर वही सिन हिंदी फिल्मों में भी घुसेड़ देते है, वो स्क्रिप्ट में दखल अंदाजी इस लिए भी करते है ताकि उनकी कंपनी को लगे कि बंदा काम कर रहा है,वेतन वसूल हो रहा है।
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जावेद ने बताया कि, अभी एक ट्रेड और शुरू हुआ है, राइटर कहानी दे,वो कहानी स्टूडियो और स्टार को पसंद आई तो राइटर को एडवांस मिलेगा। ये बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है, जब राइटर को पैसे नहीं दे सकते,स्टार और स्टूडियो कहानी सुन के ही हां करेगा तो लोग निर्माता क्यों बनना चाहते है,जब शुरुआती पैसे भी नहीं लगा सकते? स्टूडियो और स्टार के हां से ही राइटर को पैसे देना है तो तुम बीच में किस बात के बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बन रहे हो।
साथ ही जब अच्छी कहानियां निर्माताओं के पास आती है तो उन्हें वो हजम नहीं होती,सीधी सादी कहानियां समझ नहीं आती है। आज हर किसी को स्त्री जैसी कहानी की तलाश है, लेकिन जब “स्त्री” के राइटर कहानी ले कर भटक रहे थे तो क्या हुआ था उनके साथ ये जग जाहिर है, तब उनको ठुकराए जाने की बात को विजयगाथा कह दिया जाता है, लेकिन हकीकत में तो वो उन लोगों के मुंह पर तमाचा है,जिन्होंने उस स्क्रिप्ट को ठुकराया था।
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अगर “लापता लेडीज” से आमिर खान का प्रोडक्शन नहीं जुड़ा होगा और लेखक वो कहानी किसी दूसरे प्रोड्यूसर को सुनाता तो आज तक फिल्म नहीं बन पाती, लोग ये कह कर ठोकर मार देते की भोजपुरी फिल्म बन सकती है। हिंदी नहीं, लेकिन जब फिल्म बन के सफल हो गई,तो अब सब “लापता लेडीज” जैसी कहानी ढूंढ रहे है। जावेद कहते है, हर इंसान अपने आप में एक कहानी है, और फिल्म निर्माताओं को कहानी नहीं मिल रही,ये अद्भुत बात है। दरअसल निर्माताओं को लेखक की अहमियत समझनी होगी। उन्हें कीमत चुकानी होगी, उनकी तलाश करनी होगी, तभी नए कहानियों का जखीरा मिलेगा। वरना निर्माताओं को नई कहानी के नाम पर रूदाली करना बंद कर देना चाहिए।