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वर्तमान सन्दर्भ में गांधी जी की प्रासंगिकता: गांधीवाद और अहिंसात्मक आंदोलन

  दया शंकर चौधरी

बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि आजादी के मुखिया महात्मा गांधी ने 15 अगस्त 1947 को देश के पहले आजादी के जश्न को नहीं मनाया था। लोग उनसे पूछते रहे कि वह आजादी का जश्न क्यों नहीं मना रहे, लेकिन उन्होंने इस मामले में चुप्पी साधे रखी। आखिर क्या कारण था कि वे आजादी का जश्न मनाने की बजाय 78 साल की उम्र में अकेले अपने दम पर पश्चिम बंगाल में धर्म के नाम पर होने वाले दंगों की तपिश झेल रहे थे। यह बात कही जा सकती है कि गांधी जी इस बात से जरूर खुश थे कि अंग्रेज भारत छोड़कर जा रहे हैं, लेकिल उनकी इस खुशी को उस दुख ने खत्म कर दिया था, जिसमें भारत के दो टुकड़े किए गये थे। बंटवारे के बाद उस समय एक करोड़ से ज्यादा लोग पाकिस्तान से हिंदुस्तान या हिंदुस्तान से पाकिस्तान जाने के लिए मजबूर थे। समझा जा सकता है कि धर्म के नाम पर बंटवारा देखने और दिल्ली में बैठकर मंत्रियों का चेहरा देखने में महात्मा गांधी की कोई दिलचस्पी नहीं थी। इस बात को समझना होगा कि गांधी जी के सन्दर्भ में देश की आजादी का मतलब क्या है।

वर्तमान अस्थिरता के दौर में जहाँ एक ओर कोविड-19 जैसी महामारी लोगों को हताश और बेहाल किये हुए है वहीं दूसरी ओर इसके आर्थिक परिणाम भी लोगों को भविष्य के प्रति आशंकित किये हुए हैं। आज संपूर्ण विश्व बाजारवाद के दौड़ में शामिल हो चुका है। लालच की परिणति युद्ध की सीमा तक चली जाती है। ऐसे में गांधीवाद की प्रासंगिकता पहले से कहीं अधिक हो जाती है। घृणा को दूर करने के लिये गांधीवाद को अपनाने की जरूरत है।

अब प्रश्न यह उठता है कि यह गांधीवाद है क्या। किसी भी शोषण का अहिंसक प्रतिरोध, सबसे पहले दूसरों की सेवा, संचय से पहले त्याग, झूठ के स्थान पर सच, अपने बजाय देश और समाज की चिंता करना आदि विचारों को समग्र रूप से गांधीवाद की संज्ञा दी जाती है। गांधीवादी विचार व्यापक रूप से प्राचीन भारतीय दर्शन से प्रेरणा पाते हैं और इन विचारों की प्रासंगिकता अभी भी बरकरार है। आज के दौर में जब समाज में कल्याणकारी आदर्शों का स्थान असत्य, अवसरवाद, धोखा, चालाकी, लालच व स्वार्थपरता जैसे संकीर्ण विचारों द्वारा लिया जा रहा है तो समाज सहिष्णुता, प्रेम, मानवता, भाईचारे जैसे उच्च आदर्शों को विस्मृत करता जा रहा है। विश्व की शक्तियाँ शस्त्र एकत्र करने की होड़ में लगी हुई हैं। ऐसे में विश्व शांति की पुनर्स्थापना के लिये, मानवीय मूल्यों को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिये आज गांधीवाद नए स्वरूप में पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो उठा है।

गांधी जी धर्म व नैतिकता में अटूट विश्वास रखते थे। उनके लिये धर्म, प्रथाओं व आंडबरों की सीमा में बंधा हुआ नहीं था बल्कि आचरण की एक विधि थी। गांधी जी के अनुसार, धर्मविहीन राजनीति मृत्युजाल है, धर्म व राजनीति का यह अस्तित्व ही समाज की बेहतरी के लिये नींव तैयार करता है। गांधी जी साधन व साध्य दोनों की शुद्धता पर बल देते थे। उनके अनुसार साधन व साध्य के मध्य बीज व पेड़ के जैसा संबंध है एवं दूषित बीज होने की दशा में स्वस्थ पेड़ की कल्पना करना बेमानी होगा।

गांधीवादी विचारधारा महात्मा गांधी द्वारा अपनाई और विकसित की गई उन धार्मिक-सामाजिक विचारों का समूह है, जो उन्होंने पहली बार वर्ष 1883 से 1914 तक दक्षिण अफ्रीका में तथा उसके बाद फिर भारत में अपनाई थी।गांधीवादी दर्शन न केवल राजनीतिक, नैतिक और धार्मिक है, बल्कि पारंपरिक और आधुनिक तथा सरल एवं जटिल भी है।

यह कई पश्चिमी प्रभावों का प्रतीक है, जिनको गांधीजी ने उजागर किया था, लेकिन यह प्राचीन भारतीय संस्कृति में निहित है तथा सार्वभौमिक नैतिक और धार्मिक सिद्धांतों का पालन करता है। गांधीजी ने इन विचारधाराओं को विभिन्न प्रेरणादायक स्रोतों जैसे- भगवतगीता, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, बाइबिल, आदि से विकसित किया था। ऐसा माना जाता है कि टॉलस्टॉय की पुस्तक ‘द किंगडम ऑफ गॉड इज विदिन यू’ का महात्मा गांधी पर गहरा प्रभाव था। गांधीजी ने रस्किन की पुस्तक ‘अंटू दिस लास्ट’ से ‘सर्वोदय’ के सिद्धांत को ग्रहण किया और उसे जीवन में उतारा।

गांधीजी ने आजादी की लड़ाई के साथ-साथ छुआछूत उन्मूलन, हिन्दू-मुस्लिम एकता, चरखा और खादी को बढ़ावा, ग्राम स्वराज का प्रसार, प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा और परंपरागत प्राकृतिक चिकित्सीय ज्ञान के उपयोग सहित तमाम दूसरे उद्देश्यों पर कार्य करना निरंतर जारी रखा। सत्य के साथ गांधीजी के प्रयोगों ने उनके इस विश्वास को पक्का कर दिया था कि सत्य की सदा विजय होती है और सही रास्ता सत्य का रास्ता ही है। आज मानवता की मुक्ति सत्य का रास्ता अपनाने से ही है। गांधी जी सत्य को ईश्वर का पर्याय मानते थे। गांधीजी का मत था कि सत्य सदैव विजयी होता है और अगर मनुष्य का संघर्ष सत्य के लिये है तो हिंसा का लेशमात्र उपयोग किये बिना भी वह अपनी सफलता सुनिश्चित कर सकता है।

गांधीजी सत्य के बड़े आग्रही थे। वे सत्य को ईश्वर मानते थे। सत्य उनके लिये सर्वोपरि सिद्धांत था। वे वचन और चिंतन में सत्य की स्थापना का प्रयत्न करते थे। लेकिन वर्तमान समय में देखा जाए तो राजनीतिज्ञ, मंत्रीगण अपने पद की शपथ ईश्वर को साक्षी मानकर करने के बावजूद गलत काम करने से पीछे नहीं हटते। अपने कर्तव्यों के पालन के समय वे सत्य को भी नकार देते हैं। अगर गांधीवादी सिद्धांतों का सही तरह से पालन किया जाए तो देश नवनिर्माण की दिशा में अपने आप आगे बढ़ चलेगा।

गांधीजी का मानना था कि मन, वचन और शरीर से किसी को भी दु:ख न पहुँचाना ही अहिंसा है। गांधीजी के विचारों का उद्देश्य सत्य एवं अहिंसा के माध्यम से विरोधियों का हृदय परिवर्तन करना है। अहिंसा का अर्थ ही होता है प्रेम और उदारता की पराकाष्ठा।

गांधी जी व्यक्तिगत जीवन से लेकर वैश्विक स्तर पर ‘मनसा वाचा कर्मणा’ अहिंसा के सिद्धांत का पालन करने पर बल देते थे। आज के संघर्षरत विश्व में अहिंसा जैसा आदर्श वाक्य अति आवश्यक है। गांधी जी बुद्ध के सिद्धांतों का अनुगमन कर इच्छाओं की न्यूनता पर भी बल देते थे। यदि इस सिद्धांत का पालन किया जाए तो आज क्षुद्र राजनीतिक व आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये व्याकुल समाज व विश्व अपनी कई समस्याओं का निदान खोज सकता है। आज संपूर्ण विश्व अपनी समस्याओं का हल हिंसा के माध्यम से ढूंढना चाहता है।

वैश्वीकरण के इस दौर में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा ही खत्म होती जा रही है। अमेरिका, चीन, उत्तर कोरिया, ईरान जैसे देश हिंसा के माध्यम से प्रमुख शक्ति बनने की होड़ एवं दूसरों पर वर्चस्व के इरादे से हिंसा का सहारा लेते हैं। इस हेतु वैश्विक रूप से शस्त्रों की होड़ लग गई है। यह अंधी दौड़ दुनिया को अंतत: विनाश की ओर ले जाता है। आज अहिंसा जैसे सिद्धांतों का पालन करते हुए विश्व में शांति की स्थापना की जा सकती है जिसकी आज पूरे विश्व को आवश्यकता है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विश्वपटल पर अपने प्रत्येक संबोधन में वसुधैव कुटुम्बकम् की वकालत करते हैं। इसी तरह सत्याग्रह का अर्थ है सभी प्रकार के अन्याय, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ शुद्धतम आत्मबल का प्रयोग करना। गांधी जी के अनुसार व्यक्तिगत पीड़ा सहन कर अधिकारों को सुरक्षित करने और दूसरों को चोट न पहुँचाने की एक विधि सत्याग्रह भी है। सत्याग्रह की झलक उपनिषद, बुद्ध और महावीर की शिक्षाओं में भी देखने को मिलती है।

गांधीजी का मत था कि अहिंसात्मक प्रतिरोध कठोर-से-कठोर हृदय को भी पिघला सकता है। वे इसे दुर्बल मनुष्य का शस्त्र नहीं मानते थे। उनके अनुसार शारीरिक प्रतिरोध करने वाले की अपेक्षा अहिंसात्मक प्रतिरोध करने वाले में कहीं ज्यादा साहस होना चाहिये। आज के समय में सत्याग्रह का प्रयोग विभिन्न स्थानों एवं परिस्थितियों पर सुसंगत एवं तार्किक प्रतीत होता है। राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी नीतियों, आदेशों से मतभेद की स्थिति में विरोध हेतु सत्याग्रह का प्रयोग कहीं श्रेयस्कर है।

आत्मबल शारीरिक बल से अधिक श्रेष्ठ होता है। बुराई के प्रतिकार के लिये यदि आत्मबल का सहारा लिया जाए तो मौजूदा परेशानियाँ दूर की जा सकती हैं। फिलहाल (2 अक्टूबर) गांधी जयंती के दिन अहिंसा के सही अर्थों को समझने की जरूरत है, हमें ये कदापि नहीं भूलना चाहिए कि गांधी जी के अहिंसा का पाठ ‘एक गाल पर थप्पड़ के बाद दूसरे गाल पर थप्पड़ खा लेने का सिद्धांत नहीं था।’ बल्कि शोषण के खिलाफ शुद्धतम आत्मबल का प्रयोग करना ही सही अर्थों में अहिंसा है।

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