उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सनातन धर्म पर ऐसा बयान दिया है, जिस पर सियासी बवाल भड़क गया है। राजस्थान में गुरुवार 27 जनवरी को एक सार्वजनिक समारोह के दौरान उन्होंने कहा कि सनातन धर्म भारत का राष्ट्रीय धर्म है। सीएम योगी ने कहा कि प्रत्येक भारतीय को सनातन धर्म का सम्मान करना चाहिए।
उत्तर प्रदेश के सीएम ने कहा कि अगर अतीत में आक्रमणकारियों ने मंदिरों को नष्ट कर दिया था तो लोगों को नष्ट मंदिरों को पुनर्स्थापित करने के लिए अभियान चलाना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘सनातन धर्म भारत का ‘राष्ट्रीय धर्म’ है। जब हम स्वार्थ से ऊपर उठते हैं, तो हम ‘राष्ट्रीय धर्म’ से जुड़ते हैं। जब हम राष्ट्रीय धर्म से जुड़ते हैं तो हमारा देश सुरक्षित होता है।’ योगी आदित्यनाथ, राजस्थान के भीनमाल में नीलकंठ महादेव मंदिर के जीर्णोद्धार कार्यक्रम में पहुंचे थे। सीएम योगी ने कहा कि अगर हमारे धार्मिक स्थलों को अपवित्र किया गया है तो उनका पुनर्स्थापना होनी चाहिए। अयोध्या में भगवान राम का मंदिर 500 साल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्गदर्शन में हो रहा है। योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि भारत का राष्ट्रीय मंदिर अयोध्या में बन रहा है।
बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री का नारा: “तुम मेरा साथ दो मैं तुम्हें हिंदू राष्ट्र दूंगा।”
बागेश्वर धाम के महाराज ने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के गुढ़ियारी में चल रहे अपने कथा के दौरान 23 जनवरी को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की जयंती पर उनकी वीरता को याद किया। और कहा कि नेताजी बोस का नारा था कि “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा।” मेरा नारा है कि “तुम मेरा साथ दो मैं तुम्हें हिंदू राष्ट्र दूंगा।” चूड़ी पहनकर घर पर मत बैठना। सदियों से संतों को नहीं छोड़ा तो हमें क्या छोड़ेंगे। मीरा, तुलसी, रैदास को नहीं छोड़ा तो हमें तो विरोधी गरियाएंगे ही। हिंदुओं एक हो जाओ। पंडित धीरेंद्र शास्त्री ने कहा कि “मुझे राजनेता नहीं बनना है, चुनाव नहीं लड़ना है, सनातनियों को एक करना है।
प्रत्येक सनातनी को आगे आना है। अब तिरंगा के साथ भगवा ध्वज भी लहराना है। छत्तीसगढ़ के लोगों यह आग बुझने नहीं देना है। भारत की पत्रकारिता सत्य दिखाती है, वही दिखाया है। जिस दिन सनातनी माला, भाला उठा लेंगे। हिंदू राष्ट्र बन जाएगा। हर कोई सुभाषचंद्र बोस बनाना चाहता है लेकिन पड़ोस में, अपने घर में नहीं। तिलक अवश्य लगाएं।
गार्डेन था, उद्यान बना! मनभावन तो अब हुआ!!
डरने, शर्माने की जरूरत नहीं है। राम प्यारे से जिसका संबंध है, उसे हर घड़ी आनंद है। महाराज ने पंडालों में मौजूद एक लाख से अधिक श्रद्धालुओं के समक्ष ऐलान किया कि यदि सभी हिंदू एकजुट हो जाएं तो भारत को हिंदू राष्ट्र बनने से कोई नहीं रोक सकता। महाराज ने कहा कि मुझे राजनेता नहीं बनना है, चुनाव नहीं लड़ना है, बस मेरा उद्देश्य समस्त सनातनियों को एक करना है। प्रत्येक सनातनी आगे आएं और राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा के साथ भगवा ध्वज भी लहराएं।
कांग्रेस को रास नहीं आया सीएम योगी का बयान
कांग्रेस ने सीएम योगी के इस बयान की कड़ी आलोचना की है। कांग्रेस नेता उदित राज ने सीएम योगी के बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया दर्ज की है। उन्होंने कहा, ‘हमारा सनातन धर्म भारत का राष्ट्रीय धर्म। सीएम योगी ने यह कहा है। मतलब सिख , जैन, बौद्ध, निरंकार, ईसाई और इस्लाम धर्म खत्म।’
क्यों बरपा है हंगामा?
भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है। भारत का संविधान किसी धर्म विशेष को राष्ट्रीय धर्म का दर्जा नहीं देता है। कांग्रेस इसी वजह से सीएम योगी के इस बयान पर सवाल खड़े कर रही है।
लखनऊ में जलाई गईं रामचरितमानस की प्रतियां, स्वामी प्रसाद मौर्य के समर्थन में प्रदर्शन
बिहार से शुरू हुआ रामचरितमानस विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। पिछले दिनों यूपी की राजधानी लखनऊ में रामचरितमानस की प्रतियां जलाई गई हैं। रामचरितमानस को लेकर समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के दिए विवादित बयान के समर्थन में ओबीसी महासभा उतर आया है।
मौर्य ने क्या कहा था
ओबीसी महासभा ने लखनऊ में प्रदर्शन किया और रामचरितमानस की प्रतियों को जलाया. समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा था कि कई करोड़ लोग रामचरितमानस को नहीं पढ़ते, सब बकवास है. यह तुलसीदास ने अपनी खुशी के लिए लिखा है। स्वामी प्रसाद मौर्य यहीं नहीं रुके, उन्होंने कहा कि सरकार को इसका संज्ञान लेते हुए रामचरितमानस से जो आपत्तिजनक अंश है, उसे बाहर करना चाहिए या इस पूरी पुस्तक को ही बैन कर देना चाहिए. स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि तुलसीदास की रामचरितमानस में कुछ अंश ऐसे हैं, जिन पर हमें आपत्ति है. क्योंकि किसी भी धर्म में किसी को भी गाली देने का कोई अधिकार नहीं है. तुलसीदास की रामायण की चौपाई है। इसमें वह शुद्रों को अधम जाति का होने का सर्टिफिकेट दे रहे हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य के इस बयान के खिलाफ यूपी में धार्मिक भावनाएं भड़काने का केस भी दर्ज हो चुका है।
कौन हैं स्वामी प्रसाद मौर्य
रामचरितमानस पर विवादित बयान देकर सुर्खियों में आने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य ने 80 के दशक में राजनीति में कदम रखा था. स्वामी प्रसाद मौर्य ‘बुद्धिज्म’ को मानते हैं। वह अंबेडकरवाद और कांशीराम के सिद्धांतों को मानने वाले नेताओं में हैं, जिसके चलते दलित-ओबीसी की राजनीति ही करते रहे हैं। स्वामी प्रसाद ने लोकदल से अपना सियासी सफर शुरू किया और बसपा में रहते हुए राजनीतिक बुलंदियों को छुआ। बसपा से लेकर बीजेपी तक की सरकार में मंत्री रहे और अब सपा के साथ है, लेकिन अंबेडकरवादी विचारों को नहीं छोड़ा।
बिहार के शिक्षा मंत्री ने दिया था विवादित बयान
बता दें कि इस पूरे विवाद की शुरुआत बिहार के शिक्षा मंत्री प्रो चंद्रशेखर के एक बयान से हुई थी। नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के 15वें दीक्षांत समारोह में छात्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘मनुस्मृति में समाज की 85 फीसदी आबादी वाले बड़े तबके के खिलाफ गालियां दी गईं। उन्होंने कहा था, ‘रामचरितमानस के उत्तर कांड में लिखा है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं। यह नफरत को बोने वाले ग्रंथ हैं। एक युग में मनुस्मृति, दूसरे युग में रामचरितमानस, तीसरे युग में गुरु गोलवलकर का बंच ऑफ थॉट। ये सभी देश और समाज को नफरत में बांटते हैं। नफरत देश को कभी महान नहीं बनाएगी। देश को महान केवल मोहब्बत बनाएगी।
हिंदू अच्छे हैं… सच्चे हैं… पाकिस्तान में चर्चे हैं!
इन सबके बीच पाकिस्तान में एक तबका ऐसा है जो चाहता है कि भारत की तरह पाकिस्तान भी एक सेक्युलर, उदार लोकतंत्र रहे जिसमें सोचने की आजादी हो, किसी भी धर्म, संस्कृति को मानने की आजादी हो। पाकिस्तान में आम लोगो का मानना है कि भारत की दिनों-दिन हो रही तरक्की के पीछे सनातन धर्म की उदार नीति और “वसुधैव कुटुम्बकम” की सोच काम कर रही है। वहाँ ये आम चर्चा है कि हिंदू अच्छे हैं…सच्चे हैं। पाकिस्तान में एक दूसरा तबका भी है जो कट्टरवाद के जरिए चाहता है कि पाकिस्तान में सख्त शरिया कानून लागू हो जैसा कि अफगानिस्तान में तालिबान ने लागू किया है। पाकिस्तानी मीडिया में चर्चा है कि अगर पाकिस्तान में टीटीपी की हुकूमत आ गई तो पहला काम तो वो यही करेंगे कि सभी औरतों को काम से निकाल देंगे, पढ़ने भी नहीं देंगे। पाकिस्तान में यह एक तरह की पहचान का संकट है कि लोग किस तरह की सरकार चाहते हैं।
सनातन धर्म में ब्रह्म ही सत्य है
आइये समझते हैं सनातन धर्म की मान्यताएँ कैसे देश और विश्व सहित सम्पूर्ण मानव समाज के अनुकूल है। ऐसा माना जाता है कि हिन्दू धर्म एकेश्वरवादी नहीं बल्कि बहुदेववादी या सर्वेश्वरवादी धर्म है, यह धारणा गलत है। हिन्दू धर्म ग्रंथ, वेद उस एक परमतत्व के गुणगान से भरे पड़े हैं। जैसे इस्लाम में उसे अल्लाह, ईसाई में गॉड, यहूदी में याहेव कहा जाता है, उसी तरह हिन्दू धर्म में उस परम तत्व को ‘ब्रह्म’ कहा जाता है। ब्रह्म को ही दार्शनिक लोग अपनी-अपनी परिभाषा में गढ़कर परब्रह्म-अपरब्रह्म या सगुण ईश्वर, निर्गुण ईश्वर के रूप में बांटते हैं, जोकि उनकी बुद्धि का जाल मात्र है।
ब्रह्म या परमेश्वर के बाद हिन्दू धर्म में त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) को सबसे बड़ा दर्जा प्राप्त है। त्रिमूर्ति सभी देवताओं के उपर है। त्रिदेव के बाद भगवानों को सर्वोच्च पद प्राप्त है। भगवानों के बाद ही अन्य देवी और देवताओं को माना जाता है। देवी और देवताओं के बाद पूर्वजों का नंबर आता है। पूर्वजों के बाद माता और पिता को सम्माननीय, प्रार्थनीय माना जाता है। सनातन धर्म में गुरू या सद्गुरू को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है, यथा- गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः। गुरूर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।। अर्थात गुरू ही ब्रह्मा हैं, गुरू ही विष्णु हैं। जो सारे ब्रह्माण्ड में जड़ और चेतन सबमें व्याप्त हैं, उन परम पिता के श्री चरणों को देखकर मैं उनको नमस्कार करता हूँ।
ब्रह्म को ही ईश्वर, परमपिता, परमात्मा, परमेश्वर और प्रणव कहा जाता है। मूलत: ईश्वर एक, और केवल एक है। वो विश्वव्यापी और विश्वातीत दोनों है। वह स्वयंभू और विश्व का कारण (सृष्टा) है। पूर्ण, अनन्त, सनातन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। ऋग्वेद के अनुसार, ‘एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति’, अर्थात एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं। जो जन्मा है वह ब्रह्म या ईश्वर नहीं हो सकता और न है। परमेश्वर कभी जन्म नहीं लेता और न ही वह अवतरित होता है। मध्यकाल में ही हिंदुओं को पुन: वेदों तथा एकेश्वरवाद की ओर मोड़ने के अथक प्रयास हुए, लेकिन सभी निष्फल रहे। आधुनिक युग में ब्रह्म समाज, आर्य समाज जैसे संगठनों ने हिंदुओं को मूर्ति पूजा, कर्मकांड और तरह-तरह देवताओं को पूजने से दूर रखने के अथक प्रयास किए लेकिन वे सब भी असफल ही सिद्ध हुए। कई साधु-संत हुए जिन्होंने कहा कि सबका मालिक एक ही है।
आत्मा: प्रत्येक शरीर में आत्मा होती है। ब्रह्मांड में असंख्य आत्माएं है। पेड़, पौधे, जल, अग्नि आदि समस्त दिखाई देने वाला जगत ही भीतर से न दिखाई देने वाले आत्मा के द्वारा ही चलायमान है। हिन्दू धर्म के अनुसार हर चेतन प्राणी में एक अभौतिक आत्मा होती है, जो सनातन, अव्यक्त, अप्रमेय और विकार रहित है। हिन्दू धर्म के मुताबिक मनुष्य में ही नहीं, बल्कि हर पशु और पेड़-पौधे, यानि कि हर जीव में आत्मा होती है। आत्मा ही ब्रह्म में लीन होकर देवता या भगवान कहलाती है। श्रीमदभगवद्गीता के अनुसार आत्मा को ब्रह्म स्वरूप इसलिए माना जाता है कि ‘यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न तो मरता है तथा न ही यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य सनातन, पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।
शरीर के जन्म-मरण का चक्र
किसी भी जन्म में अपनी आजादी से किए गए कर्मों के मुताबिक आत्मा अगला शरीर धारण करती है। जन्म-मरण के चक्र में आत्मा स्वयं निर्लिप्त रहते हुए अगला शरीर धारण करती है। अच्छे कर्मफल के प्रभाव से मनुष्य कुलीन घर अथवा योनि में जन्म ले सकता है जबकि बुरे कर्म करने पर निकृष्ट योनि में जन्म लेना पड़ता है। जन्म-मरण का सांसारिक चक्र तभी खत्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है।
हिंदू धर्म के ग्रंथ
हिंदू धर्म के पवित्र ग्रन्थों को दो भागों में बाँटा गया है- श्रुति और स्मृति। श्रुति हिन्दू धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं, जो पूर्णत: अपरिवर्तनीय हैं, अर्थात् किसी भी युग में इनमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। स्मृति ग्रन्थों में देश-कालानुसार बदलाव हो सकता है। श्रुति के अन्तर्गत चार वेद आते हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। ब्रह्म सूत्र और उपनिषद् वेद का ही हिस्सा हैं। वेद श्रुति इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि हिन्दुओं का मानना है कि इन वेदों को परमात्मा ने चार ऋषियों को उस वक्त सुनाया था, जब वे गहरे ध्यान में थे। बाद में उक्त ज्ञान को श्रवण परम्परा के अनुसार गुरु द्वारा शिष्यों को उपदेश करके दिया जाता रहा। श्रुति को छोड़कर अन्य सभी हिन्दू धर्म ग्रंथ स्मृति कहे जाते हैं, क्योंकि इनमें वो कहानियाँ हैं जिनको लोगों ने पीढ़ी दर पीढ़ी याद किया और बाद में लिखा।
प्रमुख स्मृति ग्रन्थ
इतिहास ग्रंथ में रामायण, महाभारत और 18 पुराणों का महत्व है। भगवद गीता महाभारत का एक हिस्सा है। मनुस्मृति, धर्मशास्त्र, धर्मसूत्र और आगम शास्त्र चारों वेदों की व्यवस्था पर आधारित शास्त्र हैं। वेदों के दर्शन को 6 प्रमुख भागों में बांटकर ऋषियों ने समझाया है- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त। अगर श्रुति और स्मृति में कोई विवाद होता है तो श्रुति ही मान्य होगी।
मूर्तिपूजा और मंदिर
वेद कहते हैं उस परमेश्वर की मूर्ति नहीं बनाई जा सकती, क्योंकि वह निराकार, अजन्मा, अनित्य, निर्विकार है। प्राचीन हिंदू किसी भी देवी और देवता की मूर्ति बनाकर उन्हें नहीं पूजते थे। प्राचीन हिंदू मंदिर भी नहीं बनाते थे। प्राचीन काल में वैदिक मंत्रों और यज्ञ से कई देवताओं की स्तुति की जाती थी। आजकल ज्यादातर हिन्दू देवी-देवताओं और भगवानों की मूर्ति बनाकर उनकी पूजा-आरती करते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि हिन्दू धर्म मे मूर्ति पूजा का प्रचलन गौतम बुद्ध और महावीर के समय से प्रारम्भ हुआ। बौद्ध काल में जैन और बौद्ध का अनुसरण करते हुए हिंदुओं ने मंदिर बनाकर उसमें मूर्तियों को स्थापित करना शुरू किया। प्रारंभ में विष्णु और शिव के मंदिर ही बनें। बाद में दुर्गा, कालभैरव, राम और कृष्ण आदि की मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजने लगे। हिंदुओं ने अपने प्रमुख और प्राचीन धार्मिक स्थानों को धीरे-धीरे मंदिर और मूर्ति में बदल दिया। प्राचीन मन्दिर मध्ययुगीन भारतीय कला के श्रेष्ठतम प्रतीक रहे हैं। हालांकि अब हिंदुओं का झुकाव हनुमान, शनि, भैरव, दुर्गा और श्रीकृष्ण की ओर ज्यादा हो चला है। पहले के हिंदू प्रार्थना, ध्यान और यज्ञ करते थे और आजकल के हिंदू मनमानी पूजा और आरती करके प्रसाद वितरण करते हैं, जो कि वेद और धर्म विरूद्ध है।
हिंदूओं के धर्मगुरु
लगभग बारह सौ वर्ष पहले आदिगुरु शंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में स्थित चार धाम के पास चार पीठ (मठ) स्थापित किए उत्तर में बदरीनाथ के निकट ज्योतिपीठ, दक्षिण में रामेश्वरम् के निकट श्रृंगेरी पीठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धन पीठ और पश्चिम में द्वारिकापीठ। उक्त चार मठ में उन्होंने चार शंकराचार्य नियुक्ति किए। उक्त चार को ही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं।
व्रत, तीर्थ एवं पर्व
तीर्थों में चार धाम, ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ और भगवान राम, कृष्ण की जन्मभूमि को ही प्रमुख माना जाता है। हिन्दू धर्म में सूर्योपासनाके लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ और संक्रांति। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है, किन्तु काल क्रम मे अब यह कुछ प्रदेश वासियों का ही पर्व बनकर रह गया है। इसके बाद हिन्दू नववर्ष को मनाने का महत्व है। इसके बाद रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, नवरात्री, शिवरात्री आदि त्योहार मनाते हैं। मूलत: सूर्य जब उत्तरायण होता है तब तीर्थ और उत्सव का समय होता है और जब यह दक्षिणायन होता है तब व्रत और पूजा का समय शुरू होता है। हिंदू धर्म में सबसे ज्यादा महत्व कुंभ को मनाने का है। प्रत्येक 12 वर्ष में आने वाले कुंभ को महाकुंभ और छ वर्ष पश्चात आने वाले कुंभ को अर्धकुंभ कहते हैं।
आहार-विहार (सनातन धर्म)
हिंदू धर्म शाकाहार का पक्षधर है। शुद्ध शाकाहारी को सात्विक, आवश्यकता से अधिक तला भुना खाने वाले को राजसिक और मांसाहारी को तामसिक व्यक्ति कहा जाता है। वैदिक काल में पशुओं का मांस खाने की अनुमति नहीं थी।
वर्ण व्यवस्था
प्राचीन हिंदू व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था का विशेष महत्व था लेकिन इसका आधार जाति नहीं था। इसका आधार कर्म था। किसी भी जाति का व्यक्ति कोई भी वर्ण धारण कर सकता है। चार प्रमुख वर्ण थे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पहले यह व्यवस्था कर्म प्रधान थी। अगर कोई सेना में काम करता था तो वह क्षत्रिय कहलाता था फिर वही किसी भी जाति, समाज, प्रांत का हो। इसी तरह पठन-पाठन और शिक्षक कर्म से जुड़े लोग ब्राह्मण, व्यापार से जुड़े लोग वैश्य और सेवाकार्य से जुड़े लोगों को शूद्र कहा जाता था। लेकिन आज वर्ण को जाति समझने की भूल की जाती है।
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी सकल ताड़ना के अधिकारी” का सही अर्थ क्या है….।
दरअसल, कुछ लोग इस चौपाई का अपनी बुद्धि और अतिज्ञान के अनुसार विपरीत अर्थ निकालकर तुलसी दास जी और रामचरित मानस पर आक्षेप लगाते हुए अक्सर दिख जाते हैं। यह बेहद ही सामान्य समझ की बात है कि अगर तुलसी दास जी स्त्रियो से द्वेष या घृणा करते तो! रामचरित मानस में उन्होने स्त्री को देवी समान क्यों बताया।
तुलसीदास जी ने तो..“एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी” अर्थात, पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर…दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है। साथ ही…..सीता जी की परम आदर्शवादी महिला एवं उनकी नैतिकता का चित्रण….उर्मिला के विरह और त्याग का चित्रण……यहाँ तक कि….लंका से मंदोदरी और त्रिजटा का चित्रण भी सकारात्मक ही है! सिर्फ इतना ही नहीं….सुरसा जैसी राक्षसी को भी हनुमान द्वारा माता कहनाकैकेई और मंथरा भी तब सहानुभूति का पात्र हो जाती हैं….जब, उन्हे अपनी ग़लती का पश्चाताप होता है।
ऐसे में तुलसीदास जी के शब्दों का अर्थ…स्त्री को पीटना अथवा प्रताड़ित करना कदापि नहीं हो सकता। साथ ही, इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि…. तुलसी दास जी शूद्रो के विषय मे तो कदापि ऐसा लिख ही नहीं सकते क्योंकि उनके प्रिय श्रीराम द्वारा शबरी…..निषाद….केवट आदि से मिलन के जो उदाहरण है, वो तो और कुछ ही दर्शाते है। तुलसी दासजी ने मानस की रचना अवधी भाषा में की है और रामचरित मानस में प्रचलित शब्द ज़्यादा आए हैं, इसलिए “ताड़न” शब्द को संस्कृत से ही जोड़कर नहीं देखा जा सकता।फिर, यह प्रश्न बहुत स्वाभिविक सा है कि आखिर इसका भावार्थ है क्या?
यह ध्यान योग्य बात है कि…. क्षुद्र मानसिकता से ग्रस्त ऐसे लोगों को……निंदा के लिए ऐसी पंक्तियाँ दिख जाती है …. परन्तु उन्हें यह नहीं दिखता है कि…राजा दशरथ ने स्त्री के वचनो के कारण ही तो अपने प्राण दे दिये थे। श्रीराम ने स्त्री की रक्षा के लिए रावण से युद्ध किया। साथ ह….रामायण के प्रत्येक पात्र द्वारा….पूरी रामायण मे स्त्रियो का सम्मान किया गया और उन्हें देवी बताया गया! असल में ये चौपाइयां उस समय कही गई है जब…समुन्द्र द्वारा श्री राम की विनय स्वीकार न करने पर श्री राम क्रोधित हो गए…….और अपने तरकश से बाण निकाला…! तब समुद्र देव….श्री राम की शरण मे आए….और, श्रीराम से क्षमा मांगते हुये अनुनय करते हुए कहने लगे कि….हे प्रभु – आपने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी…..और ये लोग विशेष ध्यान रखने यानि शिक्षा देने के योग्य होते है!
दरअसल…..ताड़ना एक अवधी शब्द है….जिसका अर्थ….निगाह रखना, पहचानना..परखना होता है! तुलसीदास जी… के कहने का मंतव्य यह है कि…..अगर हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचानते….तो, उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी…..अतः उससे स्वभाव को जानना आवश्यक है। इसी तरह गंवार का अर्थ…..किसी का मजाक उड़ाना नही…..बल्कि, उनसे है जो अज्ञानी हैं… और प्रकृति या व्यवहार को जाने बिना उसके साथ जीवन सही से नहीं बिताया जा सकता। इसी तरह पशु और नारी के परिप्रेक्ष में भी वही अर्थ है कि…..जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पहचानते…..उसके साथ जीवन का निर्वाह अच्छी तरह और सुखपूर्वक नहीं हो सकता। इसका सीधा सा भावार्थ यह है कि….. ढोल, गंवार, शूद्र, पशु….और नारी….के व्यवहार को ठीक से समझना चाहिए और देखरेख में रखना एवम संरक्षण देना चाहिए….और उनके किसी भी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए! तुलसीदास जी के इस चौपाई को लोग अपने जीवन में भी उतारते हैं……परन्तु….रामचरित मानस को नहीं समझ पाते हैं। जैसे कि…यह सर्व विदित कि…..जब गाय, भैंस, बकरी आदि पशुओं का दूध दूहा जाता है..तो, दूध दूहते समय यदि उसे किसी प्रकार का कष्ट हो रहा है….अथवा वह शारीरिक रूप से दूध देने की स्थिति में नहीं है…तो वह लात भी मार देते है….जिसका कभी लोग बुरा नहीं मानते हैं….! सुन्दर कांड की पूरी चौपाई कुछ इस तरह की है….।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं।।
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु , नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।
भावार्थ:-प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी.. और, सही रास्ता दिखाया…..किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है…!
क्योंकि…. ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री……..ये सब देखरेख शिक्षा तथा सही ज्ञान के अधिकारी हैं।
अर्थात…. ढोल (एक साज), गंवार(मूर्ख), शूद्र (कर्मचारी), पशु (चाहे जंगली हो या पालतू) और नारी (स्त्री/पत्नी), इन सब को अपनी देखरेख में साधना अथवा सिखाना पड़ता है.. और निर्देशित करना पड़ता है…. तथा विशेष ध्यान रखना पड़ता है॥ इसीलिए….बिना सोचे-समझे आरोप पर उतारू होना …..मूर्खो का ही कार्य है…। आपकी जानकारी हेतु रामचरित मानस की घटना अर्थात संवाद का सम्पूर्ण सन्दर्भ यहाँ दे रहा हूँ।
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।
भावार्थ:-इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!
लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु। सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति।।
भावार्थ:-हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश) की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी। क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बोएँ फल जथा।।
भावार्थ:-ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान् की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है। अर्थात् ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है।
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा। संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।।
भावार्थ:-ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी।
मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने। कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना।।
भावार्थ:- मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया।
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच। बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।
भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है। (सन्मार्ग पर आता है)।
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे। गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
भावार्थ:-समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है।
तव प्रेरित माया उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए। प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई।।
भावार्थ:-आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों ने यही गाया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने के योग्य हैं।