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जीवन में वैज्ञानिक सोच भी जरूरी!

वीरेन्द्र बहादुर सिंह

सभी का कहना है कि महिलाओं को जीवन में वैज्ञानिक सोच रखना अति आवश्यक हैं। पर बहुत लोगों का मानना है कि वैज्ञानिक सोच अपनाने से मन की श्रद्धा समाप्त हो जाती है। ऐसे ही लोगों को लगता है कि वैज्ञानिक सोच की बातें करने वाले लोग अपनी संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं। ये मान्यताएं वैज्ञानिक सोच न होने की वजह से ही मानी जाती हैं। जबकि वैज्ञानिक सोच हर बात की सच्चाई जानने के लिए प्रेरित करती है। सत्य जानना भला किस धर्म और संस्कृति को नुकसान पहुंचाता है।

वैज्ञानिक सोच का मतलब हर बात पर सवाल करना यानी ऐसा भी होता है क्या? मानलीजिए कि जवाब मिलता है कि ऐसा होता है तो फिर दूसरा सवाल उठता है कि ऐसा कैसे होता हैं? इस तरह जिज्ञासा बारबार सवाल पूछने के लिए प्रेरित करती है और फिर जवाब में आपको तरह-तरह की जानकारी मिलने लगती है। मिलने वाली जानकारी को मन ही मन मनन करते हुए मंथन किया जाए तो समझदारी का मक्खन निकलता है। अगर सच्ची समझ से काम लिया जाए तो अज्ञानता के अलावा कुछ भी नष्ट नहीं होता और ज्ञान प्राप्त करने के लिए कोई भी धर्म या संस्कृति मना नहीं करती।

भारतीय नारी के स्वभाव की बात करें तो उसमेें श्रद्धा और भावुकता कूटकूट कर भरी होती है। वह दिमाग से नहीं, दिल से जीती है। श्रद्धा की वजह से वह सामाजिक रीतिरिवाजों, धार्मिक अनुष्ठानों के सामने मुश्किल से ही सवाल उठाती है। अनेक महिलाएं परंपरा, रीतिरिवाजो और उनके तथ्यों को जाने बगैर ही उनका अनुसरण करती हैं। परिणामस्वरूप कभी वे बंधन तो कभी बोझ लगते लगते हैं। मन में विद्रोह की भी भावना पैदा होती है और वे जो भी काम करती हैं, उसमें समझ और तर्क का समर्थन न होने से उनका पूरापूरा इन्वॉलमेंट नहीं होता।

सुनीसुनाई बातें या दंतकथाओं का सच जानने के बजाय पहले उनके पीछे का सच्चा कारण जानना और समझना चाहिए। तर्क और वास्तविकता की कसौटी पर कस कर ही जिन बातों का अनुसरण किया जाता है, उसे ही हम वैज्ञानिक सोच कह सकते हैं। भारत में साइंस-टेक्नोलॉजी में लगभग 43 प्रतिशत महिलाएं हैं। प्रयोगशाला में कारण और परिणाम का शोध करने वाली और टेक्नोलॉजी के साथ जीवन का ताल मिला कर चलने वाली महिलाएं भी जीवन में एकदम अवैज्ञानिक हैैं।

महिलाओं के लिए सब से अधिक वैज्ञानिक सोच की जरूरत स्वास्थ्य और स्वच्छता मेें है। बीमारी शरीर की अस्वस्थता का परिणाम है और इसका उपचार दवा है। दुआ से अगर यह ठीक होती है तो यह अनविजुअल है और दुआ हर किसी को लग जाए यह संभव भी नहीं है। फूंक मारने से या धागा बांधने से अगर शरीर की बीमारी ठीक हो जाती हो तो सालों पढ़ कर डाक्टर बनने की क्या जरूरत है? छोटे बच्चे को बुखार आने पर नजर लगी है यह मान कर डाक्टर के पास न जाने वाली महिलाओं के पास नजर का कोई वैज्ञानिक लॉजिक नहीं होता। कोई व्यक्ति कुछ किए बिना किसी को मात्र देख कर बीमार कर सकता है, इसका कोई प्रमाण नहीं है। आश्चर्य की बात तो यह है कि पढ़ी-लिखी महिलाएं भी ऐसे मामलों में विज्ञान की कसौटी पर जांच नहीं करतीं।

रोजरोज की लाइफ में रात को झाड़ू नहीं लगाया जा सकता, नाखून नहीं काटा जा सकता, झाड़ू या पीढ़ा सीधा खड़ा नहीं किया जा सकता, दही खा कर जाने से शुभ होता है, बिल्ली सामने से गुजर जाए या छींक आ जाए तो इसे अपशकुन मानने वाले पढ़ेलिखे लोग भी कम नहीं हैं। अगर इन बाताेंं मेें तथ्य दिखाई देता है तो इसकी वैज्ञज्ञनिक ढ़ंग से जांच करें। समझें और तार्किक रूप ही से उसका अनुसरण करें। हम जो करते हैं, अगर उसका वैज्ञानिक आधार हो तो एक फुलफॉलमेंट मिलेगा। ऐसा नहीं है कि हमारे धार्मिक या सामाजिक रीतिरिवाज एकदम निराधार हैं। जरूरत है उन्हें वैज्ञानिक अधार पर समझने की और नई पीढ़ी को समझाने की। कोई मिलता है तो हम दोनों हाथ जोड़ कर उससे नमस्कार करतें हैं या उसके चरणस्पर्श करते हैं। दोनों हाथ जोड़ने से आंख-कान और दिमाग को जाग्रत करने वाला प्वाइंट जाग्रत होता है। चरणस्पर्श करने से ईगो का नाश होता है और सामने वाले व्यक्ति की पॉजिटिविटी अपने अंदर आती है। शादीशुदा महिलाएं सिंदूर लगाती हैं। पहले सिंदूर में मरक्यूरी सल्फाइड, हल्दी और नींबू मिला होता था।

मरक्यूरी के कारण ब्लडप्रेशर कंट्रोल में रहता था और सेक्स की इच्छा जाग्रत होती थी। नईनई शादी कर के आई लड़कियों में मरक्यूरी के कारण स्ट्रेस कम होता है। विधवाओं मेें सेक्स की इच्छा कम हो, इसीलिए उनके सिंदूर लगाने पर प्रतिबंध लगाया गया है। तिलक हमारे आज्ञाचक्र को सक्रिय करता है। अब बात चूड़ी पहनने की करते हैं। सामान्य रूप से कलाई का भाग हमेशा घूमता रहता है। चूड़ियां कलाई के हिस्से में रहती हैं, जो ब्लड सर्क्युलेशन को सामान्य लेबल पर रखती हैं। हमारे यहां करोड़ों महिलाएं स्वर्ग की अपेक्षा में मंदिर जाती हैं। दीया जला कर माला-पूजा आदि करती हैं। मंदिर में जाने के पीछे वैज्ञानिक कारण मंदिर की आकार रचना है।

मंदिर की चारों दिशाओं के खंभों द्वारा चुंबकीय तरंगें उत्पन्न होती हैं। मंदिर के गर्भगृह में पृथ्वी का चुंबकीय तत्व सबसे अधिक देखने को मिलता है। गर्भगृह में तमाम कॉपर (तांबे) की पट्टियां होती हैं, जो पृथ्वी से आने वाली तरंगो को मंदिर में केंद्रित करती हैं। रोजाना मंदिर की प्रदक्षिणा करने वाले शरीर में ये तरंगें जा कर एनर्जी पैदा करती हैं। इसके अलावा मंदिर का पवित्र वातावरण सकारात्मकता पैदा करता है। स्वर्ग का तो पता नहीं, पर सकारात्मकता मंदिर जाने का वैज्ञानिक आधार है। पंचतत्वों में एक तत्व अग्नि भी है। अग्नि जीवन में ज्योति और गति दोनों प्रदान करती है। हम देखते हैं कि एक छोटा सा दीया अंधकार को चीर कर उजाला फैलाता है। यह मनोभावना दीया करने के पीछे होती है। अंधकार को दूर करने की प्रार्थना मन को भी प्रकाशमय होने के लिए प्रेरित करती है। दीया आत्मसुधार की ओर ले जाता है तो पूजा द्वारा मूर्ति में उपस्थित पॉजिटिव वाइब्रेशन हमारे अंदर आता है। प्राचीन धार्मिक सामाजिक रिवाजों का वैज्ञानिक महत्व समझ न आए तो उसे फॉलों करने का कोई मतलब नहीं है। आज की महिलाएं बुद्धिमान हैं और बुद्धि का तर्क और विज्ञान से सीधा संबंध है।

ऐसी तमाम बातें हैं, जिन्हें हम जाने-अनजानेे में फॉलो करते आ रहे हैं। आप लोगों में से तमाम लोगों ने ट्रेन या बस से यात्र करते समय नदी में सिक्का फेंका होगा। तब किसी ने आप को वेस्ट आफ मनी की बात कह कर टोंका भी होगा। परंतु पहले के जमाने में तांबे के सिक्के चलते थे। जिसे पानी मेे फेंकने से कॉपर तत्व बढ़ता है, जो मानवशरीर के लिए जरूरी तत्व माना जाता है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है, जिसे हम जानते ही हैं। पर आजकल जो सिक्के फेंके जाते हैं, इसका कोई मतलब नहीं है। ये वैज्ञानिक कारणों से नहीं, आस्था की वजह से फेंके जाते हैं, जो वेस्ट आफ मनी ही है। मंदिर में हम घंटा भगवान को खुश करने के लिए बजाते हैं, जो आज हमें ध्वनि प्रदूजण लगता है। इन दोनों के बीच वैज्ञानिक कारण यह है कि घंटे से निकलने वाली आवाज हमारे बांएं और दाहिने दिमाग को एक कर के कॉंन्सेंट्रेशन बढ़ाती है। घंटे की आवाज हमारे शरीर के 7 चक्रों को जाग्रत करती है और मन की नकारात्मकता को दूर करती है। इसी तरह व्रत डायजेस्ट सिस्टम को सुधारता है।

किसी भी चीज की सच्चाई जानेसमझे बगैर किए जाने वाले काम पत्थर पर पानी डालने या भैंस के आगे भागवत करने जैसा है। हम जो कुछ भी करते हैं, उसका खास फायदा नहीं मिलता। मात्र रीतिरिवाज ही नहीं, जीवन के छोटे-छोटे काम और निर्णयों में भी वैज्ञानिक सोच रखना चाहिए। बच्चों को पालने की रीति हो या नौकरी में आगे बढ़ने की बात, परिणाम को लक्ष्य में रख कर आयोजन करने से ही सफलता मिल सकती है। यह अच्छा और सच्चा है, तो क्यों, इसका कारण खोजने की तर्कबद्ध प्रक्रिया ही वैज्ञानिक सोच है, जो गलत परिणाम से बचाती है और मन को परिपूर्णता का अहसास कराती है।

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