उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष विधान सभा चुनाव होने हैं। बीजेपी सत्ता में रिटर्न होगी या फिर हमेशा की तरह यूपी के मतदाता इस बार भी ‘बदलाव’ की बयार बहाने की परम्परा को कायम रखेंगे ? अथवा 2017 की तरह मोदी का जादू फिर चलेगा। यह सवाल सबके जहन में कौंध रहा है। बस फर्क इतना है कि पिछली बार बीजेपी, मायावती-अखिलेश सरकार की खामियां गिना और वोटरों को सब्जबाग दिखाकर सत्ता में आई थी। वहीं अबकी से उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार को पांच साल का हिसाब- किताब देना होगा।
‘बीजेपी सरकार’ की बात इस लिए कही जा रही है क्योंकि 2017 का विधान सभा चुनाव बीजेपी बिना मुख्यमंत्री का चेहरा आगे किए मोदी के फेस पर लड़ी थी। योगी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला तो अप्रत्याशित रूप से चुनाव जीतने के बाद लिया गया था। मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी की भले ही चैतरफा तारीफ हो रही हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि योगी जी अपने बल पर बीजेपी को 2022 विधान सभा चुनाव जीता ले जाने में पूरी तरह से सक्षम हैं।
यह और बात है कि 2022 के विधान सभा चुनाव में परिस्थतियां एकदम बदली नजर आ रही हैं,जो भाजपा के सबसे अधिक अनुकूल नजर आ रही हैं। 2017 के विधान सभा चुनाव के समय की ‘यूपी को यह साथ पंसद है’ वाली राहुल-अखिलेश की जोड़ी टूट चुकी है। वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में चर्चा का विषय रही बुआ-बबुआ के रिश्तों में ‘टूट’ पैदा हो गई है। मायावती ने तो अपने 65 वें जन्मदिन (15 जनवरी 2021 का)े पर यहां तक ऐलान तक कर दिया कि 2022 में यूपी और उत्तराखंड के चुनाव उनकी पार्टी अकेले लड़ते हुए 2007 की तरह 2022 में भी अपने दम पर सरकार बनाएगी।? दरअसल, गठबंधन की सियासत में मायावती की समस्या कुछ अलक किस्म की ही है। बसपा जिस पार्टी के साथ गठबंधन करती है,उस पार्टी के पक्ष में बसपा के वोट तो आसानी से ट्रांसर्फर हो जाते हैं,लेकिन दूसरी गठबंधन पार्टी के वोटर बसपा के लिए वोटिंग करने की जगह दूसरी राह तलाश पकड़ लेते हैं।
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की बात की जाए तो वह इसी बात से संतुष्ट नजर आ रहे हैं कि उप-चुनावों में उनकी ही पार्टी भाजपा को चुनौती दे रही है। यानी सपा चुनाव जीत नहीं पाती है तो दूसरे नंबर पर तो रहती ही है। इसी को अखिलेश अपनी ताकत समझते हैं,जिस तरह से एक के बाद एक बसपा नेता हाथी से उतर कर साइकिल पर सवार हो रहे हैं उसे भी अखिलेश के हौसले बढ़े हुए हैं। सपा प्रमुख को सबसे अधिक मुस्लिम वोट बैंक पर भरोसा है, लेकिन जिस तरह से मात्र दलित वोट बैंक के सहारे बसपा सुप्रीमों मायावती सत्ता की सीढ़िया चढ़ने में नाकामयाब रहती हैं,उसी प्रकार से सपा सिर्फ मुसलमानों के सहारे अपनी चुनावी वैतरणी पार करने में नाकाम रहती है। बात वोट बैंक में संेधमारी की कि जाए तो भीम सेना की नजर बसपा के दलित वोट बैंक में सेंधमारी की रहती है, वहीं ओवैसी,समाजवादी पार्टी के मुंिस्लम वोट बैंक में हिस्सेदारी करने को आतुर हैं।कुछ सीटों पर जहां बसपा मुस्लिम प्रत्याशी उतारती है,वहां उसके(बसपा)भी पक्ष में मुसलमान लामबंद होने से गुरेज नहीं करते हैं।
इस बार के विधान सभा चुनाव के लिए आम आदमी पार्टी और ओवैसी के ताल ठोंकने से सियासत का रंग कुछ चटक जरूर हुआ है, लेकिन यह पार्टियां क्या गुल खिला पायेंगी,यह सब भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। जहां तक ओवैसी की पार्टी की बात है तो उसके कूदने से समाजवादी पार्टी को ज्यादा नुकसान होता दिख रहा है। अपने पहले दौरे के दौरान ओवैसी ने समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव पर तीखा हमला बोलकर अपने इरादे भी स्पष्ट कर दिए हैं।
ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने वाराणसी पहुंचते ही मीडिया से बातचीत में तंज कसते हुए कहा प्रदेश में जब अखिलेश यादव की सरकार की थी तो हमें 12 बार प्रदेश में आने से रोका गया था। अब मैं आ गया हूं। सुभासपा के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर के साथ गठबंधन किया है, मैं दोस्ती निभाने आया हूं। ज्ञातव्य हो, सुभासपा ने 2017 में भाजपा से यूपी विधान सभा चुनाव के लिए गठबंधन किया था। अजगरा विधानसभा क्षेत्र में संयुक्त रैली में गठबंधन की घोषणा के बाद विधानसभा चुनाव में पूर्वांचल की कई सीटों पर बंटवारा हुआ था। मगर, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद यह गठबंधन टूट गया। इसके बाद से ही सुभासपा नए साथियों के साथ अपनी सियासत को पूर्वांचल में मजबूत करने की कोशिश में जुटी है। इसी क्रम में राजभर ने ओवैसी से सियासी दोस्ती की है।
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में कांगे्रस भी एक ‘कोण’ बनना चाहती है। याद कीजिए जब 2019 के लोकसभा चुनाव के समय उत्तर प्रदेश कांगे्रस की जिम्मेदारी प्रियंका वाड्रा ने संभाली थी, तब राहुल गांधी ने मीडिया से कहा भी था कि हमारी नजर 2022 के विधान सभा चुनाव पर हैं। 2022 के विधान सभा चुनाव में अब साल भर से कुछ ही अधिक का समय बचा है,लेकिन पिछले डेढ़- दो वर्षो में कांगे्रस की दिशा-दशा में कोई खास बदलाव आया होे,ऐसा दिखाई नहीं देता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांगे्रस मात्र रायबरेली संसदीय सीट जीत पाई थी,जहां से यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी स्वयं मैदान में थीं। राहुल तक अमेठी से चुनाव हार गए थे। इसके बाद तो राहुल गांधी ने यूपी की तरफ से मुंह ही फेर लिया। इतना ही नहीं लोकसभा चुनाव के पश्चात हुए तमाम उप-चुनावों में भी कांगे्रस की ‘लुटिया’ बार-बार डूबती रही। अपवाद को छोड़कर प्रत्येक उप-चुनाव में कांगे्रस प्रत्याशी जमानत तक नहीं बचा पाए। अबकी बार भी कांगे्रस से कोई भी दल गठबंधन को तैयार नहीं है।
बहरहाल, परिस्थितियां भाजपा के लिए जितनी भी अनुकूल क्यों न हों, लेकिन सियासी पिच पर कब कौन कैसा ‘बांउसर’ फेंक दें कोई नहीं जानता है। इसीलिए भाजपा आलाकमान यूपी पर पूरी तवज्जो दे रहा है। आलाकमान जानता है कि जब तक यूपी सुरक्षित है तभी तक दिल्ली का ‘ताज’ बचा रह सकता है। चाहें 2014 के हों या फिर 2019 के लोकसभा चुनाव दिल्ली में मोदी सरकार इसी लिए बन पाई क्योंकि यूपी में भाजपा का प्रदर्शन काफी बेहतर रहा था और इसका सारा श्रेय मोदी को जाता है। संभवता अबकी बार भी बीजेपी आलाकमान कोई नया प्रयोग करने की बजाए मोदी को ही आगे करके चुनाव लड़ेगी। योगी की भूमिका भी महत्वपूर्ण रहेगी, लेकिन कितनी यह भविष्य के गर्भ में छिपा है, जिस तरह से उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव से साल भर पहले गुजरात कैडर के 1988 बैच के सेवानिर्वत आईएएस रहे अरविंद कुमार शर्मा को भाजपा में शामिल करके उत्तर प्रदेश विधान परिषद चुनाव के लिए मैदान में उतारा गया है। वह काफी कुछ कहता है। मूलतः मऊ के निवासी अरविंद कुमार शर्मा 20 साल तक नरेंद्र मोदी के साथ काम कर चुके हैं। अरविंद के बारे में चर्चा जोरों पर है कि उन्हें जल्द ही योगी कैबिनेट में महत्वपूर्ण स्थान दिया जा सकता है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि अरविंद को मौजूदा डिप्टी सीएम डा. दिनेश शर्मा की जगह नये डिप्टी सीएम हो सकते हैं।
डा. दिनेश शर्मा के बारे में आलाकमान को अच्छी रिपोर्ट नहीं मिल रही है, दिनेश शर्मा की ईमानदारी पर तो किसी को संदेह नहीं है,लेकिन वह जनहित के काम नहीं कर पा रहे हैं। फिलहाल, अरविंद मुंह खोलने को तैयार नहीं हैं, वह इतना ही कह रहे हैं कि सीएम-पीएम और पार्टी जो भी दायित्व देंगे, उसे स्वीकार कर खरा उतरने का प्रयास करूंगा। अरविंद शर्मा की हैसियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सियासत में आए हुए अरविंद को 24 घंटे भी न हुए थे, लेकिन पीएम मोदी के करीब होने के नाते यूपी के भाजपाई उनसे मिलने और सपंर्क तलाशने में जुट गए। पार्टी कार्यालय से लेकर कई चैराहों पर ए.के. शर्मा के भाजपा में स्वागत के होर्डिंग्स टंग गए। उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य सहित कई नेताओं ने भी ट्वीट कर पार्टी में स्वागत किया। इससे पूर्व गुजरात की मुख्यमंत्री और मोदी की काफी करीबी आनंदी बेन पटेल को यूपी का राज्यपाल बनाकर भेजा गया था।
बात बीजेपी आलाकमान की योगी पर भरोसे की कि जाए तो इसमें कई पेंच हैं। बीजेपी आलाकमान की सबसे बड़ी चिंता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली को लेकर है। योगी ‘वन मैन आर्मी’ की तरह काम करते हैं और अपनी ही पार्टी के नेताओं/जनप्रतिनिधियों की बजाए नौकरशाही/अफसरशाही पर ज्यादा भरोसा करते हैं। योगी पर यह भी आरोप लगता है कि वह नौकशाही/अफसरशाही में मौजूद ठाकुर लाॅबी के प्रति साफ्ट कार्नर रखते हैं,जबकि ब्राहम्णों के प्रति योगी का नजरिया हमेशा तंग रहता है। सबसे पहले करीब डेढ़ वर्ष पूर्व हिंदूवादी नेता कमलेश तिवारी की हत्या के बाद योगी सरकार के खिलाफ आक्रोष तेज हुआ था। इस घटना को लेकर यूपी के ब्राह्मण वर्ग में काफी नाराजगी देखने को मिली थी। ब्राह्मणों के तमाम संगठन सड़क से लेकर सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ मुखर हो गए। लखनऊ, कानपुर, गोंडा, मिर्जापुर समेत तमान जिलों के कई ब्रहाम्ण संगठन योगी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर चुके हैं।
ब्राह्मणों के तमाम संगठन आरोप लगा रहे हैं कि योगी सरकार में ब्राहम्णों पर अत्याचार बढ़ा है और कहीं उनकी सुनवाई नहीं की जा रही है। कमलेश तिवारी मर्डर केस समेत ब्राहम्णों के दर्जनों ऐसे मर्डर केस हैं जिनमें सरकार की ओर से घोर लापरवाही की गई। इसका खामियाजा पीड़ित पक्ष को भुगतना पड़ा। इसी कारण ब्राह्मणों में योगी सरकार के खिलाफ रोष बढ़ रहा है। अखिल भारतीय ब्राहम्ण महासभा (रा.) के अध्यक्ष राजेंद्र नाथ त्रिपाठी का कहना है कि यूपी में उन्होंने तमाम सरकारें देखीं लेकिन ब्राह्मणों के साथ सबसे अधिक नाइंसाफी इस सरकार में हुई। जबकि चुनाव में ब्राह्मणों ने दिल खोलकर बीजेपी का साथ दिया। अब वह जातिवाद के दलदल में उलझे हैं। वे अपने लोगों को बढ़ावा दे रहे हैं लेकिन ब्राह्मणों की उपेक्षा कर रहे हैं। ब्राह्मण ही नहीं दलित भी योगी सरकार से ज्यादा खुश नहीं हैं। हाथरस कांड को जिस तरह से योगी की पुलिस ने हैंडिल किया उससे दलितों में सरकार को लेकर काफी नाराजगी है।
खैर, योगी पक्षपात करते हैं यह बातें भले हकीकत से दूर हो, लेकिन विपक्ष तो इसको मुद्दा बनाए हुए हैं ही। कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद तो कई बार योगी पर ब्राहमणों के खिलाफ नाइंसाफी का आरोप लगा चुके हैं। कानपुर के गैंगस्टर और पुलिस के हत्यारे विकास दुबे को योगी पुलिस ने जिस तरह से एनकांउटर में मारा उससे भी ब्राहमणों में नाराजगी बढ़ी है। लब्बोलुआब यह है कि योगी ने भले अपने कामकाज से लोगों का दिल जीता हो, लेकिन सामाजिक समीकरण साधने में वह पूरी तरह से असफल रहे। योगी की यही कमी चुनाव में भाजपा के लिए मुसीबत बन सकती है। इसीलिए पूरे देश में बीजेपी के स्टार प्रचारक योगी आदित्यनाथ अपने ही राज्य में बीजेपी आलाकमान की कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं।